—शंभु छंद—
श्री शांतिनाथ श्री कुंथुनाथ, अरनाथ प्रभू जन्में यहां पर।
यह हस्तिनागपुर तीर्थ वंद्य, रत्नों की वृष्टि हुई यहाँ पर।।
यहां तेरहद्वीप बना सुंदर, जिनमंदिर हैं महिमाशाली।
मेरा यहाँ संघ सहित निवास, स्वाध्याय ध्यान से है हितप्रद।।१।।
अकृत्रिम वृक्ष जिनालय का, यह विधान अतिशायी सुखप्रद।
सुखशांति समद्धी देकर के, अतिशय शक्ती देगा संतत।।
वीराब्द पचीस सौ उनतालिस, शुभ ज्येष्ठ कृष्ण दशमी तिथि में।
यह विधान रचना पूर्ण किया, होवे मंगलकर सब जग में।।२।।
श्रीमत् चारित्र चक्रवर्ती, आचार्य शांतिसागर गुरुवर।
बीसवीं सदी के प्रथम सूरि, इन पट्टाचार्य वीरसागर।।
ये दीक्षा गुरुवर मेरे हैं, मुझ नाम रखा था ‘ज्ञानमती’।
इनके प्रसाद से ग्रंथों की, रचना कर हुई अन्वर्थमती।।३।।
शाश्वत तरु के जिनभवनों की, जिनप्रतिमा की पूजा सुंदर।
निश्चित ऐसा दिन आवेगा, साक्षात् दर्श होगा सुखकर।।
जब तक जग में शाश्वत मंदिर, प्रतिमाओं की भक्ती होवे।
तब तक मुझ गणिनी ‘ज्ञानमती’-कृत पूजा सुकृतफल देवे।।४।।
—दोहा—
शाश्वत जिनगृह वंदना, शाश्वत सुख दातार।
भविजन नित वंदन करो, पावो सौख्य अपार।।५।।
।।इति अकृत्रिमवृक्षजिनालयविधानं संपूर्णम्।।
।।जैनं जयतु शासनम्।।