‘‘वर्धमान भगवान ने तीर्थ की उत्त्पत्ति की है।१’’ अठारह भाषा और सात सौ क्षुद्र भाषा स्वरूप द्वादशांगात्मक उन अनेक बीज पदों के प्ररूपक अर्थकर्ता हैं’’ तथा बीज पदों में लीन अर्थ के प्ररूपक बारह अंगों के कर्ता गणधर भट्टारक ग्रंथकर्ता हैं।।२’’
संपहि वड्ढमाणतित्थगंधकत्तारो वुच्चदे—
दिव्यध्वनि का वर्णन तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में आया है।
जोयणपमाणसंट्ठिद—तिरियामरमणुवणिवहपडिबोधो।
मिदमधुरगभीरतरा — विसदविसयसयलभासाहिं।।६०।।
अट्ठरस महाभासा खुल्लयभासा वि सत्तसयसंखा।
अक्खरअणक्खरप्पय सण्णीजीवाण सयलभासाओ।।६१।।
एदािंस भासाणं तालुवंदतोट्ठकंठवावारं।
परिहरिय एक्ककालं भव्वजणाणंदकरभासो।।६२।।
एक योजन प्रमाण तक स्थित तिर्यंच देव और मनुष्यों के समूह को बोध प्रदान करने वाली भगवान की दिव्यध्वनि होती है। यह दिव्यध्वनि मृदु—मधुर, अतिगंभीर और विशद—स्पष्ट विषयों को कहने वाली संपूर्ण भाषामय होती है। यह संज्ञी जीवों की अक्षर और अनक्षररूप अठारह भाषा और सात सौ लघु भाषाओं में परिणत होती हुई, तालु—ओंठ—दाँत तथा कंठ के हलन—चलनरूप व्यापार से रहित होकर एक ही समय में भव्यजीवों को आनंदित करने वाली होती हैं ऐसी दिव्यध्वनि के स्वामी तीर्थंकर भगवान होते हैं।।६०-६१-६२।।
अब वर्धमान जिनके तीर्थ में ग्रंथकर्ता को कहते हैं—
‘‘उक्त पाँच अस्तिकायादिक क्या हैं ?’’ ऐसे सौधर्मेन्द्र के प्रश्न से सन्देह को प्राप्त हुए, पाँच सौ, पाँच सौ शिष्यों से सहित तीन भ्राताओं से वेष्टित, मानस्तंभ के देखने से गर्व रहित हुए, बुद्धि को प्राप्त होने वाली विशुद्धि से संयुक्त वर्धमान भगवान के दर्शन करने पर असंख्यात भवों में अर्जित महान् कर्मों को नष्ट करने वाले, जिनेन्द्रदेव की तीन प्रदक्षिणा करके पाँच अंगों द्वारा भूमिस्पर्श पूर्वक वंदना करके एवं हृदय से जिनभगवान का ध्यान कर संयम को प्राप्त हुए, विशुद्धि के बल से मुहूर्त के भीतर उत्पन्न हुए समस्त गणधर के लक्षणों से संयुक्त तथा जिनमुख से निकले हुए बीजपदों के ज्ञान से सहित ऐसे गौतमगोत्रवाले इन्द्रभूति ब्राह्मण द्वारा चूँकि आचारांग आदि बारह अंगों तथा सामायिक, चतुा\वशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निषिद्धिका, इन अंगबाह्य चौदह प्रकीर्णकों की श्रावण मास के कृष्ण पक्ष में युग की आदि में प्रतिपदा के पूर्व दिन में रचना की थी, अतएव इन्द्रभूति गणधर देव भट्टारक श्री वर्धमान स्वामी के तीर्थ में ग्रंथकर्ता हुए। कहा भी है—
वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि सावणे बहुले।
पडिवदुपुव्वदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजिम्मि।।४०।।
‘‘वर्ष के प्रथम मास व प्रथम पक्ष में श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के पूर्व दिन में अभिजित् नक्षत्र में तीर्थ की उत्पत्ति हुई२।
षट्खंडागम ग्रंथ में श्रीवीरसेनस्वामी कहते हैं—
‘‘तेण महावीरेण केवलणाणिणा कहिदत्थो तम्हि चेव काले तत्थेव खेत्ते खयोवसम—जणिदचउ—रमलबुद्धिसंपण्णेण ब्रह्मणेण गोदमगोत्तेण सयलदुस्सुदि—पारएण जीवाजीवविसयसंदेह—विणासणट्ठमुवगयवड्ढमाण-पादमूलेण इंदिभूदिणावहारिदो१।।२।।
इस प्रकार केवलज्ञानी भगवान महावीर के द्वारा कहे गये पदार्थ को उसी काल में और उसी क्षेत्र में क्षयोपशम विशेष से उत्पन्न चार प्रकार के—मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्ययरूप निर्मल ज्ञान से युक्त संपूर्ण अन्यमतावलंबी वेद—वेदांग में पारंगत, गौतमगोत्रीय ऐसे इन्द्रभूति ब्राह्मण ने जीव—अजीव विषयक संदेह को दूर करने के लिए श्रीवर्द्धमान भगवान के चरणकमल का आश्रय लेकर ग्रहण किया अर्थात् प्रभु की दिव्यध्वनि को सुना।
इसीलिए भगवान महावीर ‘अर्थकर्ता’ कहलाये हैं।
‘पुणो तेणिंदभूदिणा भावसुदपज्जय—परिणदेण बारहंगाणं चोद्दसपुव्वाणं च गंथाणमेक्केण चेव मुहुत्तेण रयणा कदा।।
पुन: उन इन्द्रभूति गौतमस्वामी ने भावश्रुत पर्याय से परिणत होकर बारह अंग और चौदह पूर्वरूप ग्रंथों की रचना एक ही मुहूर्त में कर दी।
सारांश यह है कि आज से पच्चीस सौ सत्तर (२५७०)३ वर्ष पूर्व श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को राजगृही के विपुलाचल पर्वत पर भगवान महावीर की दिव्यध्वनि खिरी थी यही प्रथम देशना दिवस—‘वीरशासन जयंती’ के नाम से प्रसिद्ध है। उसी दिन श्री गौतमस्वामी ने गणधर पद प्राप्त करके द्वादशांग श्रुत की रचना की थी जो कि मौखिक मानी गई है उसे लिपिबद्ध नहीं किया जा सकता है।दिगम्बर जैन ग्रंथों के अनुसार आज कोई भी द्वादशांग या अंगबाह्य के गं्रंथ नहीं हैं क्योंकि इनको लिपिबद्ध नहीं किया जा सकता था। परम्परागत आचार्यों ने जो कुछ मौखिक श्रुतज्ञान गुरुवों से प्राप्त किया, कालांतर में श्रीधरसेनाचार्य के शिष्य पुष्पदंत—भूतबलि नाम के दो आचार्यों ने षट्खंडागम ग्रंथ को लिपिबद्ध करके रचना की है। ऐसा इन्द्रनंदि आचार्य आदि ने श्रुतावतार आदि ग्रंथों में लिखा है।
इसी प्रकार श्रीगौतमस्वामी के मुखकमल से विनिर्गत ये महान रचनायें आज वर्तमान में भी उपलब्ध हैं। चैत्यभक्ति, प्रतिक्रमणदण्डकसूत्रादि। ये ग्रंथ मौखिकरूप से आचार्यों को प्राप्त होते रहे हैं पुन: किन्हीं महान आचार्यों ने इन्हें लिपिबद्ध करके हमें और आप सभी भव्यात्माओं के लिये सुरक्षित रखा है।पाक्षिक प्रतिक्रमण में ‘‘णमो जिणाणं’’ आदि गणधरवलयमंत्र हैं एवं दैवसिक—पाक्षिक प्रतिक्रमण में ‘‘य: सर्वाणि चराचराणि’’ वीरभक्त्िा पाठ है। इन ‘णमो जिणाणं’ आदि गणधरवलय मंत्रों को श्रीभूतबलि आचार्यदेव ने षट्खंडागम के अंतर्गत तृतीय ‘वेदनाखंड’ के रचते समय मंगलाचरणरूप में लिया है। जिनकी विस्तृत टीका (पुस्तक नवमी में) टीकाकार श्री वीरसेनाचार्यदेव ने की है।
एवं श्री प्रभाचंद्राचार्य ने भी चैत्यभक्ति व प्रतिक्रमण दण्डकसूत्रों की संस्कृत टीका की है।