१. चैत्यभक्ति—यह श्रीगौतमस्वामी के मुखकमल से विनिर्गत है।
२. निषीधिका दण्डक—इस दैवसिक प्रतिक्रमण के अन्तर्गत प्रतिक्रमण भक्ति में ‘‘निषीधिका दण्डक’’ आता है। इसमें प्रथम पद जो ‘‘णमो णिसीहियाए’’ है, उसका अर्थ टीकाकार ने १७ प्रकार से किया है।
इस निषीधिका दण्डक में श्रीगौतमस्वामी ने अष्टापदपर्वत, सम्मेदशिखर, चम्पापुरी, पावापुरी आदि की भी वंदना की है।
जब चारज्ञानधारी सर्वऋद्धि समन्वित गौतम गणधर इन तीर्थ क्षेत्रों की वंदना करते हैं, तब आज जो अध्यात्म की नकल करने वाला कोई यह कहे कि ‘‘यदि साधु के तीर्थ वंदना का भाव हो जाये तो उसे प्रायश्चित लेना चाहिए। ऐसा कथन सर्वथा अनुचित है।
३. वीरभक्ति—सर्वज्ञ का लक्षण, धर्म का लक्षण आदि इसमें बहुत ही महत्वपूर्ण विषय हैं।
४.गणधरवलय मन्त्र—बड़ा प्रतिक्रमण जो कि पाक्षिक, चातुर्मासिक और वार्षिकरूप में किया जाता है। उसकी टीका के प्रारम्भ में टीकाकार कहते हैं—
‘‘वृहत्प्रतिक्रमणलक्षणमुपायं विदधानस्तदादौ मंगलार्थमिष्टदेवताविशेषं नमस्कुर्वन्नाह णमो जिणाणमित्यादि।।’’
‘श्रीगौतमस्वामी दैवसिकादिप्रतिक्रमणादिभिर्निराकर्तुमशक्यानां दोषानां निराकरणार्थं वृहत्प्रतिक्रमण—लक्षणमुपायं विदधानस्तदादौ मंगलाद्यर्थमिष्टदेवता-विशेषं नमस्कुर्वन्नाह णमो जिणाणमित्यादि’’।
ये ‘‘णमो जिणाणं, णमो ओहिजिणाणं’’ आदि ४८ मंत्र गणधरवलय मन्त्र कहे जाते हैं।। बृहत्प्रतिक्रमणपाठ में प्रतिक्रमणभक्ति में इनका प्रयोग है।
इन मंत्रों का मंगलाचरण धवला की नवमी पुस्तक में है—
एवं दव्वट्ठिय जणाणुग्गहट्ठं णमोक्कारं गोदमभडारओ महाकम्म—पयडिपाहुडस्स आदिम्हि काऊण पज्जवट्ठियाणुग्गहट्ठमुत्तर सुत्ताणि भणदि।
दूसरे सूत्र की उत्थानिका में विशेष स्पष्टीकरण हो रहा है।
इस प्रकार द्रव्यार्थिक नय से जनों के अनुग्रहार्थ गौतम भट्टारक महाकर्म प्रकृति प्राभृत के आदि में नमस्कार करके पर्यायार्थिक नय युक्त शिष्यों के अनुग्रहार्थ उत्तर सूत्रों को कहते हैं—
णमो ओहिजिणाणं।।२।।
ये मंत्र आदि श्रीगौतमस्वामी द्वारा रचित ही हैं। इसके लिये षट्खंडागम आदि के प्रमाण देखिये।
षट्खंडागम में ये मंत्र ४४ हैं और प्रतिक्रमण पाठ में ४८ हैं।
(४८) णमो वड्ढमाणबुद्धरिसिस्स।।४४।
वर्धमान बुद्ध ऋषि को नमस्कार हो।।४४।।
शंका—जबकि वर्धमान भगवान् को पूर्व में नस्मकार किया जा चुका है तो फिर यहाँ दुबारा नमस्कार किसलिये किया गया है ?
समाधान—
जस्संतियं धम्मपहं णिगच्छे, तस्संतियं वेणयियं पउंजे।
कायेण वाचा मणसा वि णिच्चं, सक्कारए तं सिरपंचमेण१।।
‘जिनके समीप धर्मपथ प्राप्त हो, उनके निकट विनय का व्यवहार करना चाहिये तथा उनका सिर झुकाकर पांच अंग—पंचांग एवं काय, वचन और मन से नित्य ही सत्कार—्नामस्कार करना चाहिये।’ इस आचार्य परंपरागत नियम को बतलाने के लिये पुन: नमस्कार किया गया है।
प्रतिक्रमणग्रंथत्रयी में यह मंत्र ऐसा है—
णमो भयवदो महदिमहावीर वड्ढमाणबुद्धरिसिणो चेदि।
जो भगवान सहज विशिष्ट मति, श्रुत, अवधि इन तीन ज्ञान के धारी और पूजा के अतिशय को प्राप्त हैं, महतिमहावीर और वर्धमान नाम के धारक अंतिम तीर्थंकर हैं, बुद्धर्षि—प्रत्यक्षवेदी—केवलज्ञान के धारी हैं। रुद्र के द्वारा किये गये उपसर्ग को जीतने से ‘महतिमहावीर’ यह नाम प्रसिद्ध हुआ है। इन अंतिम तीर्थंकर के वर्धमान, वीर, महावीर, सन्मति और महतिमहावीर ऐसे पांच नाम विख्यात हैं। ऐसे वर्धमान भगवान को नमस्कार होवे।
५. सुदं मे आउस्संतो!—इसमें मुनिधर्म एवं श्रावक धर्म का वर्णन है।
६. श्रावक प्रतिक्रमण—इसमें पाक्षिक श्रावक से लेकर उत्कृष्ट श्रावक क्षुल्लक, ऐलक तक की ग्यारह प्रतिमाओं का प्रतिक्रमण है।
७. दैवसिक प्रतिक्रमण—मुनि—आर्यिका आदि जिस प्रतिक्रमण को प्रतिदिन प्रात: और सायंकाल में करते हैं वह दैवसिक—रात्रिक प्रतिक्रमण है।
८. पाक्षिक प्रतिक्रमण—पन्द्रह दिन में होने वाला या चार महीना या वर्ष में होने वाला बड़ा प्रतिक्रमण है। अष्टमी क्रिया में होने वाली आलोचना—ये तीनों प्रतिक्रमण श्री गौतमस्वामी द्वारा रचित हैं। यह रचनायें साक्षात् उनके मुखकमल से विनिर्गत हैं।
पाक्षिक प्रतिक्रमण में एक स्थल पर स्वयं श्रीगौतमस्वामी ने अपने नाम को संबोधित किया है। यथा—
‘‘जो सारो सव्वसारेसु, सो सारो एस गोदम।
सारं झाणं त्ति णामेण, सव्वबुद्धेिंह देसिदं।।
श्री गौतम ! सर्वसारों में भी जो सार है वह सार ‘ध्यान’ इस नाम से कहा गया है ऐसा सभी सर्वज्ञ भगवंतों ने कहा है।
दैवसिक प्रतिक्रमण की टीका करते हुए श्री प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं—
‘‘श्री गौतमस्वामी—मुनीनां दुष्षमकाले दुष्परिणामादिभि: प्रतिदिन—मुपार्जितस्य कर्मणो विशुद्ध्यर्थं प्रतिक्रमणलक्षणमुपायं विदधानस्तदादौ मंगलार्थमिष्ट-देवताविशेषं नमस्करोति—
‘श्रीमते वर्धमानाय नमो’’ इत्यादि।
इस उद्धरण से भी ये रचनायें श्रीगौतमस्वामी के मुखकमल से विनिर्गत हैं। ऐसा स्पष्ट हो जाता है।
—जाप्य मंत्र—
१. ॐ ह्रीं श्रीमहावीरतीर्थंकराय नम:।
२. ॐ ह्रीं अर्हं दिव्यध्वनिस्वामिने श्रीमहावीरतीर्थंकराय नम:।
३. ॐ ह्रीं अर्हं श्रीगौतमस्वामिने नम:।
४. ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भूत—स्याद्वादनयगर्भितद्वादशांगश्रुतज्ञानेभ्यो नम:।