तवायारो बारसविहो अब्भंतरो छव्विहो बाहिरो छव्विहो तत्थ बाहिरो अणसणं आमोदरियं वित्तिपरिसंखा रसपरिच्चाओ सरीरपरिच्चाओ विवित्तसयणासणं चेदि। तत्थ अब्भंतरो, पायच्छित्तं विणओ वेज्जावच्चं सज्झाओ झाणं विउस्सग्गो चेदि। अब्भंतरं बाहिरं बारसविहं तवोकम्मं ण कदं णिसण्णेण, पडिक्कंतं, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं१।।३।।
(प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी से)
।।तत्थ।। तत्र तयोर्द्वयोर्मध्ये।। बाहिरो।। बाह्यस्तप—आचारः।। अणसणं।। अशनं भोजनं। तदभावोऽनशनमुपवासः।। आमोदरियं।। अवमोदर्यमर्धभुक्त्यादि।। वित्तिपरिसंखा।। वृत्तिपरिसंख्यानं गृहग्रासादिकं परिगण्य वृत्तिः।। रसपरिच्चाओ।। रसपरित्यागो घृतादिरसपरित्यागः।। सरीरपरिच्चाओ।। आतपनादिकायक्लेशः।। विवित्तसयणासणं च।। विविक्ते स्त्रीपशुषंढवर्जिते प्रदेशे शय्यासनमिति। एवमुक्तषट्प्रकारो बाह्यस्तप—आचारः।। अथ ‘अब्भंतर’ इत्याह-तत्थेत्यादि।। तत्र तयोर्द्वयोर्मध्येऽभ्यंतर-स्तप—आचारः-पायच्छित्तं।। आगमोक्तविधिना दोषनिर्हरणं प्रायश्चित्तं। तन्नवविधमालोचन-प्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपश्छेद-परिहारोपस्थापना—भेदात् ।। विणओ।। विनयो गुणाधिकेषु नीचैवृत्तिः स चतुर्विधो ज्ञानदर्शन-चारित्रोपचारभेदात्-वेज्जा-(आ) वच्चं।। वैयावृत्त्यं गुणवत्सु दु:खोपनिपाते निरवद्येन विधिना कायचेष्टया द्रव्यांतरेण वा तदपनयनं। तद्दशविधमाचार्यो—पाध्यायतपस्विशैक्षग्लान-गणकुलसंघसाधुमनोज्ञ—विषयभेदात्।। सज्झाओ।। शोभन आध्याय: पाठः स्वाध्याय:। स पंचविधो, वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नाय-धर्मोपदेशभेदात् ।। झाणं।। ध्यानं िंचतानिरोधलक्षणं। तच्चतुर्विधमार्तरौद्र-धर्म्यशुक्लभेदात्। तत्र धर्म्यशुक्लरूपं ध्यानमिह गृह्यते; नार्तरौद्ररूपं, तस्य दुर्गतिहेतुत्वेन तपोरूपतानुपपत्तेः।। विउस्सग्गो चेदि।। व्युत्सर्जनं। व्युत्सर्गश्च बाह्याभ्यंतरपरिग्रहत्याग इति। एवमुक्तप्रकारेणाभ्यंतर—बाह्यं समुदितं।। बारसविहं।। द्वादशप्रकारं।। तवोकम्मं।। तप—आचारः।। ण कदं।। न कृतं नानुष्ठितं। मया िंकविशिष्टेन? णिसण्णेण।। परीषहादिभिः पीडितेन। िंकतु।। पडिक्कंतं।। निषण्णेन मया प्रतिक्रांतं परित्यक्तं।। तस्स मिच्छा मे दुक्कडे।। तस्य द्वादशविधतप—आचारपरिहापनस्य संबंधिनि दुष्कृते मिथ्या विफलता मे भवतु।।
—(पद्यानुवाद)-
छह अभ्यंतर छः बाहिर से बारहविध तप आचार कहा।
उनमें से अनशन अमोदर्य वृतपरिसंख्या रसत्याग कहा।।
तनुपरित्याग-तनुक्लेश विविक्त शयनासन तप बाह्य कहे।
प्रायश्चित विनय सुवैयावृत स्वाध्याय ध्यान व्युत्सर्ग कहे।।
इन बारह तप को नहीं किया परिषह से पीड़ित छोड़ दिया।
तप किरिया में जो हानी की, वह दुष्कृत मेरा हो मिथ्या।।३।।
तप आचार बारह प्रकार का है-छह बाह्य तपाचार और छह आभ्यन्तर तपाचार। उनमें से बाह्य तपाचार के अनशन (उपवास), अवमौदर्य (अर्धोदर या अर्धभुक्ति आदि), वृत्तिपरिसंख्यान, घृतदुग्ध आदि रसों का त्याग, शरीरपरित्याग आतापनादि द्वारा कायक्लेश और विविक्त शय्यासन ये छह भेद हैं तथा आभ्यन्तर तपाचार के प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग छह भेद हैं। उक्त बारह प्रकार का तप कर्म परिषह आदिकों से पीड़ित होकर मैंने नहीं किया किन्तु परीषह आदि से पीड़ित होकर छोड़ दिया। उस बारह प्रकार के तपाचार के परिहापन सम्बन्धी मेरे दुष्कृत में विफलता होवे या मेरा दुष्कृत विफल होवे।।३।।
(षट्खण्डागम ग्रन्थ से)
जं तं तवोकम्मं णामे१।।२५।।
तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो—
तं सब्भंतरबाहिरं बारसविहं तं सव्वं तवोकम्मं णाम।।२६।।
तं तवोकम्मं बाहिरमब्भंतरेण सह बारसविहं। को तवो णाम ? तिण्णं रयणाण-माविब्भावट्ठ-मिच्छाणिरोहो। तत्थ चउत्थ-छट्ठट्ठम-दसम-दुवालस-पक्ख-मास-उडु-अयण-संवच्छरेसु एसणपरिच्चाओ अणेसणं णाम तवो। किमेसणं ? असण-पाण-खादिय-सादियं। किमट्ठमेसो कीरदे ? पािंणदियसंजमट्ठं, भुत्तीए उहयासंजमअवि-णाभावदंसणादो। ण च चउव्विहआहारपरिच्चागो चेव अणेसणं, रागादीहि सह तच्चागस्स अणेसणभावब्भुवगमादो। अत्र श्लोक:—
अप्रवृत्तस्य दोषेभ्यस्सहवासो गुणैः सह। उपवासस्स विज्ञेयो न शरीरविशोषणम् ।।६।।
अब तपःकर्म का अधिकार है।।२५।।
उसके अर्थ का खुलासा करते हैं—
वह आभ्यन्तर और बाह्य के भेद से बारह प्रकार का है। वह सब तपःकर्म है।।२६।।
वह तपःकर्म बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से बारह प्रकार का है।
शंका—तप किसे कहते हैं ?
समाधान—तीन रत्नों को प्रकट करने के लिए इच्छानिरोध को तप कहते हैं।
उसमें चौथे, छठे, आठवें, दसवें और बारहवें एषण का ग्रहण करना तथा एक पक्ष, एक मास, एक ऋतु, एक अयन अथवा एक वर्ष तक एषण का त्याग करना अनेषण नाम का तप है।
शंका—एषण किसे कहते हैं ?
समाधान—अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य, इनका नाम एषण है।
शंका—यह किसलिए किया जाता है ?
समाधान—यह प्राणिसंयम और इन्द्रियसंयम की सिद्धि के लिए किया जाता है क्योंकि भोजन के साथ दोनों प्रकार के असंयम का अविनाभाव देखा जाता है।
पर इसका यह अर्थ नहीं कि चारों प्रकार के आहार का त्याग ही अनेषण कहलाता है क्योंकि रागादिकों के त्याग के साथ ही उन चारों के त्याग को अनेषणरूप से स्वीकार किया है। इस विषय में एक श्लोक है—
उपवास में प्रवृत्ति नहीं करने वाले जीव को अनेक दोष प्राप्त होते हैं और उपवास करने वाले को अनेक गुण, ऐसा यहाँ जानना चाहिए। शरीर के शोषण करने को उपवास नहीं कहते ।।६।।
भावार्थ—इस षट्खण्डागम धवला टीका पु. १३ में पृ. ५४ से ८८ तक विस्तार से यही गौतमस्वामी प्रणीत क्रम को लिया है। जैसे कि—
(१) अनशन, (२) अवमौदर्य, (३) वृत्तपरिसंख्यान, (४) रसपरित्याग, (५) कायक्लेश और (६) विविक्तशयनासन ये ६ बाह्य तप हैं।
(१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान और (६) कायोत्सर्ग ये ६ अभ्यंतर तप हैं।
मूलाचार में भी बाह्य तप में विविक्तशयनासन को छठे तप में व अभ्यंतर तप में व्युत्सर्ग—कायोत्सर्ग को छठे तप में लिया है। यथा—
अणसण अवमोदरियं रसपरिचाओ य वुत्तिपरिसंखा।
कायस्स वि परितावो विवित्तसयणासणं छट्ठं१।।३४६।।
गाथार्थ—अनशन, अवमौदर्य, रसपरित्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, कायक्लेश और विविक्तशयनासन ये छः बाह्य तप हैं।।३४६।।
पायच्छित्तं विणयं वेज्जावच्चं तहेव सज्झायं।
झाणं च विउस्सग्गो अब्भंतरओ तवो एसो।।३६०।।
गाथार्थ—प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग, ये अभ्यन्तर तप हैं।।३६०।।
पुनश्च तत्त्वार्थसूत्र में क्रम बदला है।यथा—
अनशनावमोदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासन कायक्लेशा बाह्यं तपः।।१९।।
अर्थ—अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त— शय्यासन और कायक्लेश, ये छह बहिरंग तप हैं।।१९।।
प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्।।२०।।
अर्थ—प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान, ये उत्तर यानी अन्तरंग तप हैं।।२०।।