—अथ स्थापना-गीता छंद—
गणधर बिना तीर्थेश की, वाणी न खिर सकती कभी।
प्रभु पास में दीक्षा ग्रहें, गणधर भि बन सकते वही।।
तीर्थेश की ध्वनि श्रवणकर, उन बीज पद के अर्थ को।
जो ग्रथें द्वादश अंगमय, मैं जजूँ उन गणनाथ को।।१।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिचतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितसर्वतीर्थंकरगणधरदेवसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिचतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितसर्वतीर्थंकरगणधरदेवसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिचतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितसर्वतीर्थंकरगणधरदेवसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक—भुजंगप्रयात
पयोराशि का नीर निर्मल भराऊँ।
गुरू के चरण तीन धारा कराऊँ।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि१ को मैं।।१।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिचतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितसर्वतीर्थंकरगणधरदेवेभ्य: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
सुगंधीत चंदन लिये भर कटोरी।
जगत्तापहर चर्चहूँ हाथ जोरी।।जजूँ.।।२।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिचतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितसर्वतीर्थंकरगणधरदेवेभ्य: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
धुले श्वेत अक्षत लिये थाल भरके।
धरूँ पुंज तुम पास बहु आश धर के।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।३।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिचतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितसर्वतीर्थंकरगणधरदेवेभ्य: अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
जुही केतकी पुष्प की माल लाऊँ।
सभी व्याधि हर आप चरणों चढ़ाऊँ।।जजूँ.।।४।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिचतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितसर्वतीर्थंकरगणधरदेवेभ्य: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
सरस मिष्ट पक्वान्न अमृत सदृश ले।
परमतृप्ति हेतू चढ़ाऊँ तुम्हें मैं।।जजूँ.।।५।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिचतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितसर्वतीर्थंकरगणधरदेवेभ्य: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शिखा दीप की जगमगाती भली है।
जजत ही तुम्हें ज्ञानज्योती जली है।।जजूँ.।।६।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिचतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितसर्वतीर्थंकरगणधरदेवेभ्य: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगुरु धूप खेते उड़े धूम्र नभ में।
दुरित कर्म जलते गुरूभक्ति वशतें।।जजूँ.।।७।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिचतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितसर्वतीर्थंकरगणधरदेवेभ्य: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अनन्नास नींबू बिजौरा लिये हैं।
तुम्हें अर्पते सर्व वांछित लिये हैं।।जजूँ.।।८।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिचतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितसर्वतीर्थंकरगणधरदेवेभ्य: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
लिये थाल में अर्घ है भक्ति भारी।
गुरू अर्चना है सदा सौख्यकारी।।
जजूँ गणधरों के पदाम्भोज को मैं।
तरूँ शीघ्र संसार वाराशि को मैं।।९।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपसंबंधिचतुस्त्रिंशत्कर्मभूमिस्थितसर्वतीर्थंकरगणधरदेवेभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—दोहा—
गणधर पद धारा करूँ, चउसंघ शांती हेत।
शांतीधारा जगत में, आत्यंतिक सुख देत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
चंपक हरसिंगार बहु, पुष्प सुगंधित सार।
पुष्पांजलि से पूजते, होवे सौख्य अपार।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।