—सोरठा—
स्वानुभूति से आप, नित आतम अनुभव करेंं।
द्वादश गण के नाथ, पुष्पांजलि कर पूजहूँ।।१।।
अथ प्रथमवलये मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
(श्रीऋषभदेव के ८४ गणधर देवों के अर्घ्य)
—शंभु छंद—
श्रीऋषभदेव के तृतीय पुत्र, मां यशस्वती के नंदन हो।
तज पुरिमतालपुर नगर राज्य, मुनि बने जगत अभिनंदन हो।।
सब ऋद्धि समन्वित गणधर गुरु, हे ‘ऋषभसेन’ तुमको वंदन।
तुम प्रथम तीर्थकर के पहले, गणधर हम करते नित्य यजन।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीऋषभसेनगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीकुंभ’ गणीश्वर द्वादशगण, के प्रमुख नाथ के गुण गाते।
सब गुणरत्नों से भरित आप, नित आत्म सुधारस आस्वादें।।
सब विघ्न विनाशें भक्तों के, इसलिये भक्ति से हम पूजें।
गणधर गुरु से वंदित प्रभुवर, उन वंदत भवदुख से छूटें।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीकुंभगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्री दृढ़रथ’ गणधर ऋषभदेव, के समवसरण के षट्१पद हो।
भक्ती से निजपरमानंदामृत, पीते आप तृप्ति युत हो।।
सम्पूर्ण शास्त्र के ज्ञाता हो, फिर भी जिनवर के दास बने।
हम पूजें ऋषभदेव गणधर, पूरे हों वांछित कार्य घने।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीदृढ़रथगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्री शतधनु’ गणधर सप्त ऋद्धि—धारी श्रुत वारिधि पारंगत।
निज शुद्ध बुद्ध परमात्मतत्त्व, ध्याते फिर भी प्रभु गुण में रत।।
उन प्रभु आदीश्वर के गुण को, मैं भी गाऊं नित भक्ति करूँ।
जल आदिक अर्घ्य चढ़ा करके, निज सम्यग्दर्शन शुद्धि करूं।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीशतधनुगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीवृषभेश्वर के समवसरण, में कहे ‘देवशर्मा’ गणधर।
ये भक्त जनों के कष्ट हरें, इनको जो पूजें रुचि धरकर।।
इनसे वंदित चरणकमल जिन, उन प्रभु को अर्चूं श्रद्धा से।
श्रीऋषभदेव गणधर शरणा, जो पावें छूटें विपदा से।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीदेवशर्मागणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीदेवभाव’ गणधर स्वामी, मनपर्ययज्ञानी जगत्राता।
व्यवहार रतनत्रय के बल से, निश्चय रत्नत्रय को साधा।।
श्रीऋषभदेव सा गुरु पाया, निज ज्ञानज्योति से आलोकित।
उन गुरु के चरणकमल पूजूं, निज को पाऊं निज से शोभित।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीदेवभावगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीनन्दन’ गणधर गुरु को नित, वंदूं आनन्दित होकर के।
वे ज्ञानानन्द स्वभावी थे, प्रतिक्षण आत्मा को ध्याकर के।।
वे ऋषभदेव के शिष्य बने, उस भव से ही शिवधाम लिया।
मैं पूजूं अर्घ्य चढ़ाकर के, गणधर गुरु को शिर नमित किया।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीनन्दनगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीसोमदत्त’ गणधर गुणधर, संपूर्ण परिग्रह के त्यागी।
निज को निज में निज के द्वारा, नित ध्याते निजगुण अनुरागी।।
श्रीऋषभदेव के निकट रहें, अविरल जिनभक्ती में रत थे।
मैं पूजूं अर्घ्य चढ़ा करके, मेरे भव—भव के फंद कटें।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीसोमदत्तगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीसूरदत्त’ गणधर स्वामी, संयतमुनि नग्न दिगम्बर थे।
अट्ठाइस मूलगुणों से युत, बहुविध उत्तर गुणधारी थे।।
ये ऋषभदेव के चरणकमल में, नित नमते उनको वंदूं।
गणधर गुरु को मन वच तन से, पूजत ही पापअरी खंडूं।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीसूरदत्तगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीऋषभदेव के सन्निध में, गणधर गुरु ‘वायूशर्मा’ थे।
सब कर्म धूलि को उड़ा—उड़ा, अगणित गुणयुत शुचिधर्मा थे।।
संयमबल से त्रयविध अवधी, पाकर निरवधि गुण रत्नाकर।
उन गुरु के चरणों को पूजूं, पा जाऊं अनवधि सुखसागर।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीवायुशर्मागणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीयशोबाहु’ गणधर गुणधर, निजगुण के यश को पैâलाया।
जिसमें धर्मामृत भरा हुआ, इस अतुल तीर्थ में नहलाया।।
भाक्तिक जन इसमें नहा नहा, निज पाप मलों को धोते थे।
उन तीर्थंकर गणधर यजते, सब वाञ्छित पूरे होते थे।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य यशोबाहुगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘देवाग्नी’ गणधर ने तप बल, से सर्व ऋद्धियां पाई थीं।
ध्यानानल में सब कर्म जला, कर सर्वसिद्धियां पायी थीं।।
श्रीऋषभदेव के चरणकमल, के भ्रमर बने थे जग त्राता।
उन गुरु चरणों को वंदन कर, मैं पूजूं मिले सर्व साता।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीदेवाग्निगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-अडिल्ल छंद-
बुद्धि ऋद्धि में अवधि ज्ञान है ऋद्धि जो।
अणु से महास्कंध पर्यंते मूर्त को।।
जाने गणधर ‘अग्निदेव’ सब ऋद्धियुत।
उनश्री गुरु को भी मैं पूजूं सिद्धिकृत।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीअग्निदेवगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनुज लोक के भीतर चिंतित वस्तु को।
जाने मूर्तिक द्रव्य मन:पर्यय ज्ञान वो।।
इन ऋद्धीयुत ‘अमितगुप्त’ गणनाथ को।
उनश्री गुरु तीर्थंकर गणधर नित जजों।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य अमितगुप्तगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोकालोक प्रकाशे केवलज्ञान जो।
सब ऋद्धीयुत पाते जो इस ऋद्धि को।।
उन ‘मित्राग्नी’ गणधर को मैं नित जजूं।
श्रीऋषभदेव को पूजूं निज आतम भजूं।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमित्राग्निगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शब्द संख्यातों अर्थ अनंतों से युते।
अनंत िंलगों साथ बीजपद जानते।।
बीजऋद्धि युत भी ‘हलभृत’ गणनाथ हैं।
उनके गुरु तीर्थंकर त्रिभुवन नाथ हैं।।१६।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीहलभृतगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शब्दरूप बीजों को मति से जो धरें।
मिश्रण बिन बुद्धी कोठे में जो भरें।।
गणधरदेव ‘महीधर’ जिनवर भक्त थे।
गणधर गुरु तीर्थंकर प्रभु के हम जजें।।१७।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमहीधरगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरु उपदेश सुपाय एक पद को ग्रहें।
उसके ऊपर या पहले के पद लहें।।
उभय ग्रहें या त्रयविध पदानुसारिणी।
गुरु ‘महेन्द्र’ की जिनभक्ती भवहारिणी।।१८।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमहेन्द्रगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रोत्रेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाहिरे।
अक्षर अनक्षरात्मक वच सुन उत्तरें।।
गुरु ‘वसुदेव’ संभिन्नश्रोतृ ऋद्धि धरें।
गणधर गुरु तीर्थंकर के गुण उच्चरें।।१९।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीवसुदेवगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
रसनेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाह्य जो।
संख्यातों योजन नाना रस स्वाद को।।
जो जाने दूरास्वादन ऋद्धी धरें।
देव ‘वसुंधर’ जिनभक्ती से भव तरें।।२०।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीवसुंधरगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्पर्शेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाह्य भी।
संख्यातों योजन स्पर्श को जानहीं।।
‘अचलगुरु’ दूरस्पर्श ऋद्धि आदिक सहित।
गणधर गुरु ऋषभेश्वर के त्रिभुवन महित।।२१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीअचलगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घ्राणेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र के बाह्य भी।
संख्यातों योजन सुगंध को जानहीं।।
‘मेरू’ गणधर दूरघ्राण हम ऋद्धी धरें।
गणधर गुरु को पूजत हम समसुख भरें।।२२।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमेरुगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्णेन्द्रिय उत्कृष्ट विषय के बाहिरे।
संख्यातों योजन मनुष्य पशु अक्षरे।।
पृथक््â पृथक््â सुन लेय ‘मेरुधन’ गणधरा।
उन गुरुवर को जजूं सदा वे सुखकरा।।२३।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमेरुधनगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेत्रेन्द्रिय उत्कृष्ट क्षेत्र से बाह्य जो।
चक्रवर्ति के नेत्रविषय से अधिक वो।।
दूरदर्शिता ऋद्धि ‘मेरुभूती’ धरें।
तीर्थंकर के चरणकमल में नति करें।।२४।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमेरुभूतिगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—नरेन्द्र छंद—
रोहिणी प्रभृति महाविद्यायें, पांच शतक मानी हैं।
लघु विद्या अंगुष्ठप्रसेना, प्रभृति सप्तशत ही हैं।।
दशम पूर्व पढ़ने पर च्युत, नहिं दशपूर्वित्व कहाते।
गुरु ‘सर्वयश’ ऋषभेश्वर के, गुणयश को नित गाते।।२५।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीसर्वयशगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ग्यारह अंग चतुर्दश पूरब, पढ़कर श्रुतकेवलि हों।
ऋद्धि चतुर्दशपूर्वि धरें नित, ‘सर्वयज्ञ’ गणधर वो।।
ऋषभदेव के समवसरण में, धर्मध्यान के ध्यानी।
उनको नितप्रति वंदूं पूजूं, बनूं आत्म श्रद्धानी।।२६।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीसर्वयज्ञगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अभ्र भौम अंग स्वर व्यंजन, लक्षण चिन्ह स्वप्न हों।
आठ निमित्तों से सब के शुभ, अशुभ बताते मुनि जो।।
वे अष्टांगनिमित्त ऋद्धिधर, ‘सर्वगुप्त’ गणधर गुरु।
ऋषभदेव की भक्ती में रत, नमूं नमूं मैं रुचिधर।।२७।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीसर्वगुप्तगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
औत्पत्तिक पारिणामिक विनयिक, कही कर्मजा बुद्धी।
प्रज्ञाश्रमण ऋद्धि चउविधधर, गणधर गुरु बनते भी।।
नाम ‘सर्वप्रिय’ ऋषभदेव के, शिष्य सर्वजग त्राता।
जजूं तीर्थकर के गणधर को, पाऊं निजसुख साता।।२८।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीसर्वप्रियगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरु उपदेश बिना कर्मों के, उपशम से तप बल से।
जो प्रत्येक बुद्धि ऋद्धी है, ऋषियों के ही प्रगटे।।
‘सर्वदेव’ गणधर गुरुवर इस, ऋद्धि सहित सुखकारी।
उनको गुरु ऋषभेश्वर को, भी पूजूं भवदुखहारी।।२९।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीसर्वदेवगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब परमत को सुरपति को भी, जो कर सकें निरुत्तर।
इन वादित्वऋद्धियुत गणधर, को वंदूं अंजलिकर।।
‘सर्वविजय’ से वंदित जिनवर, चरणकमल शिर नाऊं।
गणधरगुरु को तीर्थंकर को, जजत आत्मसुख पाऊं।।३०।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीसर्वविजयगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अणू बराबर छिद्रों में भी, जो ऋषि घुस कर बैठें।
चक्रवर्ति का कटक बना दें अद्भुत विक्रिय करके।।
ऐसे अणिमा ऋद्धि विभूषित, ‘विजयगुप्त’ गणधर को।
नमूं इन्हों को गुरु तीर्थंकर, जजूं स्वात्मसुख झट हो।।३१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीविजयगुप्तगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेरु बराबर तनु कर सकते, महिमाऋद्धि धरें जो।
विक्रिय ऋद्धी के बल से, गुरु पर उपकार करें वो।।
‘विजयमित्र’ गणधर गुरु इन, सब ऋद्धि समन्वित माने।
उनको नितप्रति वंदत पूजत, कर्म कालिमा हाने।।३२।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीविजयमित्रगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लघिमा ऋद्धि सहित ऋषि वायू सम हल्का तनु कर सकते।
जन जन के उपकार हेतु ही, ऋद्धि प्रयोगें रुचि से।।
‘श्रीविजयिल’ गणधर गुरु ऐसे, उनके चरण नमूं मैं।
श्रीऋषभेश्वर को नित पूजूं, आतम सौख्य भरूं मैं।।३३।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीविजयिलगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अपराजित’ गणधर प्रभु जग में सदा विजयशाली थे।
अधिक भारयुत वङ्कासदृश तनु, तप बल से धर सकते।।
गरिमा ऋद्धि सहित को वंदूं, तपमहिमा की गरिमा।
वंदूं ऋषभदेव गणधर को, पाऊं तप की महिमा।।३४।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीअपराजितगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भूमी पर बैठे ही बैठे, सूर्य चंद्र छू सकते।
अंगुलि से ही मेरुशिखर, छूकर मस्तक से नमते।।
प्राप्तिनाम विक्रिया सहित, ‘वसुमित्र’ गणाधिप वंदूं।
तीर्थंकर श्रीआदिनाथ के, शिष्यों को अभिनंदूं।।३५।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीवसुमित्रगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भू पर भी जलसम अवगाहे, जल में भू सम चलते।
इस प्राकाम्यविक्रिया बल से अद्भुत महिमा धरते।।
‘विश्वसेन’ गणधर को वंदूं, नाना ऋद्धि सहित जो।
आदिनाथ के चरणकमल के, भ्रमर भक्ति तत्पर वो।।३६।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीविश्वसेनगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—रोला छंद—
जग में प्रभुता वृद्धि, यह ईशित्व कहावे।
‘साधुषेण’ के सिद्ध, सब जन से यश पावें।।
उन गणधर से पूज्य, ऋषभदेव तीर्थंकर।
जजूं भक्ति से नित्य, पाऊं सौख्य निरंतर।।३७।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीसाधुषेणगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब जन वश में होय, ऋद्धि वशित्व कहावे।
‘सत्यदेव’ गणदेव, नाना ऋद्धि धरावें।।
इनसे पूजित पाद, ऋषभदेव भगवंता।
करूं निरंतर जाप, पाऊं सौख्य अनंता।।३८।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीसत्यदेवगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिसके बल से शैल, शिला आदि के मधि से।
वृक्ष आदि में छेद, किये बिना ही चलते।।
विक्रिय अप्रतिघात, ‘देवसत्य’ गुण धरते।
ऋषभदेव के पास, रहें द्विदश गण धरते।।३९।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीदेवसत्यगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस ऋद्धी से साधु, हों अदृश्य नहिं दिखते।
विक्रिय अंतर्धान, तप बल से उपजे।।
‘सत्यगुप्त’ गणनाथ, बहुविध ऋद्धी धारी।
उन गुरु आदिनाथ, जजूं सर्वहितकारी।।४०।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीसत्यगुप्तगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकहि साथ अनेक, रूप बना सकते जो।
कामरूप यह ऋद्धि, तप बल से प्रगटे जो।।
‘सत्यमित्र’ गणनाथ ऋषभदेव गुण गाते।
नमूं नमाकर माथ, तीर्थंकर गुण गाके।।४१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीसत्यमित्रगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस ऋद्धी से साधु, गगन गमन कर सकते।
धरें गगनगामित्व, ‘निर्मल’ मुनि तपबल से।।
इनके गुरु वृषभेश, उनको नित्य जजूं मैं।
रोग, शोक, संक्लेश, सब दुख दूर करुं मैं।।४२।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीनिर्मलगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जल में चलते जंतु—घात वहां नहिं होवे।
जलचारण यह ऋद्धि, तपश्चरण से होवे।।
‘श्रीविनीत’ गणधार, नमूं नमूं चित लाके।
ऋषभदेव को माथ, नाऊं अर्घ्य चढ़ाके।।४३।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीविनीतगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चउ अंगुल भू उपरि, चलते अधर गगन में।
जंघाचारण ऋद्धि, धरते समवसरण में।।
‘संवर’ गणधर देव, उनके गुरु आदीश्वर।
जजत करूं दुखछेव, पाऊं सुख क्षेमंकर।।४४।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीसंवरगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
फल पत्ते अरु फूल, उन पर चरण धरें भी।
चारणकिरिया ऋद्धि, जीवघात नहिं हो भी।।
‘मुनीगुप्त’ गणनाथ, वंदूं व्याधि नशाऊं।
नमूं नमाकर माथ, ऋषभदेव गुण गाऊं।।४५।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमुनिगुप्तगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अग्नि शिखा पर चलें, बाधा रंच न होवे।
धूयें पर भी चले, पग स्खलित न होवें।।
‘मुनीदत्त’ गणनाथ, अग्निधूम चारण युत।
आदीश्वर के शिष्य, नमूं नमूं मैं शिरनत।।४६।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमुनिदत्तगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अप्कायिक बध टाल, मेघों पर चल सकते।
जलधारा पर चलें, चारणऋषि बन करके।।
‘मुनीयज्ञ’ गणदेव, ऋषभदेव को नमते।
हम पूजें कर सेव, नाम मंत्र जप जपके।।४७।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमुनियज्ञगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो मकड़ी के तंतु, पर हल्के पग धरते।
बाधा करें न रंच, चारण ऋद्धी धरते।।
‘मुनीदेव’ गणनाथ, नमूं नमूं नित शिरनत।
जजूं तीर्थकर शिष्य, पाऊं जिनगुणसंपत्।।४८।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमुनिदेवगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—शंभु छंद—
जो सूर्य चन्द्र ग्रह नखत तारका, किरणों का अवलंबन लें।
बहुतेक योजनों गमन करें, ज्योतिश्चारण क्रिय ऋद्धी लें।।
गुरु ‘गुप्तियज्ञ’ गणधर बनकर, संपूर्ण ऋद्धि के स्वामी थे।
श्री आदिनाथ के चरण नमें, जो त्रिभुवन अंतर्यामी थे।।४९।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीगुप्तियज्ञगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस ऋद्धी से मुनि वायु पंक्ति, के आश्रय से नभ में चलते।
स्खलन रहित पग धर धरके, बहुते कोशों तक चल सकते।।
यह वायुचारणा क्रिया ऋद्धि, ‘श्रीमित्रयज्ञ’ गणधर धरते।
उनके गुरु ऋषभदेव को भी, पूजत ही रोग शोक नशते।।५०।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमित्रयज्ञगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप ऋद्धी के हैं सात भेद, उनमें हि उग्र तप पहला है।
एकेक उपवास अधिक जीवन, भर बढ़ता रहता है।।
गणदेव ‘स्वयंभू’ ने बहुविध, ऋद्धी से आत्मविकास किया।
श्रीऋषभदेव को ध्या ध्याकर, निज केवलज्ञान प्रकाश लिया।।५१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीस्वयंभूगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला आदिक उपवास करें, जब ऋद्धि दीप्ततप हो जाती।
आहार न हो बल तेज बढ़े, नहिं होती उन्हें भूख व्याधी।।
यह इस ऋद्धी का ही प्रभाव, तनु में बल मांस रुधिर वृद्धी।
‘भगदेव’ गणीश्वर वृषभेश्वर , के पूजत मिलती सब सिद्धी।।५२।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीभगदेवगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस ऋद्धी से आहार ग्रहें, वह तपे लोह पर जल सदृश।
नीहार न हो मल मूत्र शुक्र, आदिक धातु नहिं बने विविध।।
बस शक्ति बढ़े तप बढ़े सदा ‘‘भगदत्त’’ गणीश्वर को प्रणमूं।
श्रीऋषभदेव को नित्य जजूं, भव भव के कर्म कलंक वमूं।।५३।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीभगदत्तगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अणिमादिक चारण आदिक, न्ााना ऋद्धी से युक्त रहें।
मंदरपंक्ती सिंहनिष्क्रीड़ित, आदिक उत्तम उपवास गहें।।
वो चार ज्ञानधारी ऋषिवर, ही महातपो ऋद्धी धारें।
‘भगफल्गू’ गणधर के गुरुवर, श्रीऋषभदेव भव से तारें।।५४।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीभगफल्गुगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनशन आदिक बारह विध के, तप उग्र उग्र जो करते हैं।
ज्वर आदिक से पीड़ित हो भी, आतापनादि तप धरते हैं।।
‘श्रीगुप्तफल्गु’ तप ऋद्धिसहित, गणधर गुरु विघ्न विनायक हैं।।
उनके गुरु ऋषभदेव जिनवर, पूजत सुख संपति दायक हैं।।५५।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीगुप्तफल्गुगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि घोर पराक्रम ऋद्धी से, अतिशायी शक्ती पाते हैं।
त्रिभुवन संहार करण जलधी, शोषण में समरथ होते हैं।।
यद्यपि ये कार्य नहीं करते, जगबन्धू ‘मित्रफल्गू’ गणधर।
उनके गुरु ऋषभदेव जिनवर, मैं पूजूं भवभय पातकहर।।५६।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमित्रफल्गुगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो अघोर यानी पूर्णशांत, महव्रत समिती गुप्ती पालें।
वे व्रतमय ब्रह्मा में चरते, अघोर ब्रह्मचर्या पालें।।
इन ऋद्धिसहित ‘श्रीप्रजापति’ गणधर की भक्ती करने से।
वध रोग कलह दुर्भिक्ष वैर, नशते भगवन् की भक्ती से।।५७।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीप्रजापतिगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब द्वादशांग अंतर्मुहूर्त, में िंचतन करने में समरथ।
जो मनोबली ऋद्धी धारें, वे शुक्ल ध्यान में हों समरथ।।
‘श्रीसर्वसंग’ गणधर गुरुवर, इन ऋद्धि सहित भवि सुखदाता।
उनके गुरु श्री ऋषभदेव जिनवर, को पूजत मिले सर्व साता।।५८।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीसर्वसंगगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रुत द्वादशांग उच्चारण कर, पढ़ते नहिं कंठ थके उनका।
यह वचनबली ऋद्धी प्रगटे, वे मेटें जग की सर्व व्यथा।।
‘श्रीवरुण’ गणी को नित प्रणमूं, उनके गुरु ऋषभदेव वंदूं।
श्रुतज्ञान पूर्ण करने हेतू, गणधर जिनवर को नित्य जजूं।।५९।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीवरुणगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
त्रिभुवन को भी अंगुलि ऊपर, जो उठा सकें वो कायबली।
नाना विध आसन कायक्लेश, करने से हो यह ऋद्धि भली।।
‘धनपालक’ गणधर को प्रणमूं, सब ऋद्धि सिद्धि सुख के दाता।
उनके गुरु ऋषभदेव को नित, मैं पूजूं मिले सौख्य साता।।६०।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीधनपालकगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पद्धड़ी छंद—
औषधि ऋद्धी के आठ भेद, आमर्शौषधि यह ऋद्धि एक।
‘मघवान’ गणी यह ऋद्धि धरें, इन गुरु को वंदत पाप हरें।।६१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमघवानगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो क्ष्वेलौषधि ऋद्धी धरते, वे सर्वरोग संकट हरते।
गुरु ‘तेजोराशी’ गणधर थे, उन गुरु ऋषभेश्वर को जजते।।६२।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीतेजोराशिगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गुरु जल्लौषधि ऋद्धी धरंत, ‘महावीर’ नाम गणधर महंत।
उनके गुरु पूजूँ आदिनाथ, भवदधि डूबत को देयं हाथ।।६३।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमहावीरगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो मल्लौषधी धरते महान्, गणईश ‘महारथ’ भाग्यवान्।
श्रीऋषभदेव के शिष्य मान्य, पूजत ही पावें स्वात्म साम्य।।६४।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमहारथगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ऋषि विप्रुष औषधि ऋद्धि धार, सब के दुख दारिद करें छार।
उनके गुरु ऋषभेश्वर महान्, जो ‘विशालाक्ष’ गणधर प्रधान।।६५।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीविशालाक्षगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनसे स्पर्शित नीर वायु, सब रोग हरे करते चिरायु।
सर्वौषधि धरते ‘महाबाल’, उनके गुरु पूजूं जगत्पाल।।६६।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमहाबालगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिससे कटु या विष व्याप्त अन्न, बस वचन मात्र से निर्विषान्न।
मुखनिर्विष युत ‘शुचिसाल’ साधु, उनके गुरु को पूजूं अबाध।।६७।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीशुचिसालगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो रोग विषादि समेत जीव, अवलोकन से हों स्वस्थ जीव।
दृष्टीनिर्विषयुत ‘श्रीवङ्का’ साधु, उन गुरु को जजते स्वात्मस्वाद।।६८।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीवङ्कागणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आशीविष ऋद्धी जो धरंत, दुरआशिष से मरते तुरंत।
श्री ‘वङ्कासार’ न करें प्रयोग, उन गुरु के नमते मिटे शोक।।६९।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीवङ्कासारगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दृष्टीविषयुत गणि ‘चन्द्रचूल’ करुणासागर जग के नुकूल।
उनके गुरु ऋषभेश्वर जिनिंद, मैं जजूं बनूं अतिशय अिंनद्य।।७०।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीचंद्रचूलगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर में आया रूखा अहार, पयवत् परिणमता स्वाद धार।
श्री ‘जयकुमार’ गणधर नमंत, उन गुरु को पूजत सुख अनंत।।७१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीजयकुमारगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर में आया रुक्षादि अन्न, तप से बन जाता मधुर अन्न।
‘महारस’ गणधर के गुरु जिनेश, मैं पूजूं पाऊं सुख हमेश।।७२।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमहारसगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—स्रग्विणी छंद—
अमृतास्रावि विष वस्तु अमृत करें।
उन वचन दु:खहर कर्ण अमृत भरें।।
‘कच्छ’ गणधर उन्हीं के नमूं पाद को।
शिष्य जिनके उन्हें भी जजूं भाव सों।।७३।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीकच्छगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हस्ततल में रखा रुक्ष अन्नादि भी।
दिव्य वच भी अमृतसम करें तृष्टि ही।।
जो ‘महाकच्छ’ गणधर उन्हों के प्रभू।
मैं जजूं भक्ति से पाऊं आनंद भू।।७४।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमहाकच्छगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नमि’ महासाधु गणधर बने नाथ के।
ऋद्धि अक्षीण भोजन मिली त्याग से।।
चक्रवर्ती कटक जीम लेवे भले।
ना घटे पाद अर्चूं सदा अर्घ्य ले।।७५।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीनमिगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भू चतुष्कोण हो चार ही धनुष भी।
देव नर भी असंख्ये वहां तिष्ठहीं।।
नाम अक्षीण आलय महाऋद्धि से।
नाथ के शिष्य ‘विनमी’ जजूं भक्ति से।।७६।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीविनमिगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—गीताछंद—
‘श्रीबल’ गणी ऋषभेश के, सब ऋद्धियों के नाथ हैं।
संपूर्ण गुण रत्नों भरें, फिर भी न कुछ उन पास है।।
जिनदेव के चरणाब्ज षट्पद, आत्मसुख में मग्न हैं।
उनको उन्हों के नाथ को, पूजत मिले सुख कंद है।।७७।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीबलगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अतिबल’ गणी ऋषभेश जिन के, समवसृति में शोभते।
अठरह सहस शीलों, गुणों से, आत्मसुख को पोषते।।
प्रभु भक्ति में लवलीन हो, निज आत्म का िंचतन करें।
गणधर गणों से वंद्य जिनवर, जजत भव भंजन करें।।७८।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीअतिबलगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीभद्रबल’ चउज्ञानधारी, ऋद्धियों से पूर्ण हैं।
उत्तर गुणों से राजते, यमदु:ख करते चूर्ण हैं।।
ऋषभेष के पदपंकजों की, नित्य करते वंदना।
गणधर गुरु को आदिप्रभु को, पूजते दुख रंच ना।।७९।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीभद्रबलगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘नंदी’ गणाधिप नाथ की, दिव्यध्वनि सुन मोदते।
द्वादश गणों को द्वादशांगी, में सतत संबोधते।।
निज शुद्ध परमानंदमय, ज्ञानाब्धि में अवगाहते।
फिर भी जिनेश्वर चरण वंदे, हम उन्हें शिर नावते।।८०।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीनंदिगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
गणधर ‘महाभागी’ जिनेश्वर, पादपंकज ध्यावते।
बहु पुण्य संपादन करें, फिर पाप पुण्य नशावते।।
निज में सुपरमाल्हाद अमृत, पान कर शिव पावते।
उनके गुरु वृषभेष को, हम पूजते अति चाव से।।८१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीमहाभागिगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीनंदिमित्र’ गणेश नित, आदीश का वंदन करें।
चौरासी लक्षोत्तर गुणों से, पूर्ण भव खंडन करें।।
संपूर्ण ऋद्धि समेत फिर भी, नग्नमुद्रा धारते।
उनको जजूं जिन को नमूं, फिर तिरूं भक्तीभाव से।।८२।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीनंदिमित्रगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘श्रीकामदेव’ गणीश नित, तीर्थेश की भक्ती करें।
निज भक्त को तारें भवोदधि, से स्वयं गुण से तिरें।।
उनके चरण को वंद कर, वृषभेश की पूजन करुँ।
निज साम्य अमृत को पिऊं, यमपाश का छेदन करुँ।।८३।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीकामदेवगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनुपम’ गणीश्वर सर्व उपमा—रहित अनुपम गुण धरें।
संपूर्ण लोक अलोक में निज, कीर्ति बल्ली विस्तरें।।
सब ऋद्धि सिद्धि समेत फिर भी, आदिजिन के भक्त थे।
हम भी जजें गणधरगुरु, जिनराज को अति भक्ति से।।८४।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य श्रीअनुपमगणधरदेवाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णार्घ्य—गीता छंद—
श्री ऋषभदेव जिनेन्द्र के, चौरासि गणधर मान्य हैं।
गुरु ‘ऋषभसेन’ प्रधान इनमें, सर्व रिद्धि निधान हैं।।
द्वादश गणों के नाथ द्वादश, अंग के कर्ता तुम्हीं।
मैं पूजहूँ नित भक्ति से, गुरुभक्ति भवदधि तारहीं।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवतीर्थंकरस्य ऋषभसेनप्रमुखचतुरशीतिगणधरचरणेभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शान्तिधारा। दिव्य पुष्पांजलि: