श्रुतजलधिपारगेभ्यः स्वपरमतविभावनापटुमतिभ्यः।
सुचरिततपोनिधिभ्यो नमो गुरुभ्यो गुणगुरुभ्यः।।१।
छत्तीसगुणसमग्गे पंचविहाचारकरणसंदरिसे।
सिस्साणुग्गहकुसले धम्माइरिये सदा वंदे।।२।।
गुरुभत्तिसंजमेण य तरंति संसारसायरं घोरं।
छिण्णंति अट्ठकम्मं, जम्मणमरणं ण पावेंति।।३।।
ये नित्यं व्रतमंत्रहोमनिरता, ध्यानाग्निहोत्राकुलाः।
षट्कर्माभिरतास्तपोधनधनाः साधुक्रियाः साधवः।।
शीलप्रावरणा गुणप्रहरणाश्चंद्रार्क-तेजोऽधिकाः।
मोक्षद्वारकपाटपाटनभटाः प्रीणंतु मां साधवः।।४।।
गुरवः पांतु नो नित्यं, ज्ञानदर्शननायकाः।
चारित्रार्णवगंभीरा, मोक्षमार्गोपदेशकाः।।५।।
अंचलिका-इच्छामि भंत्ते! आइरियभत्तिकाओसग्गो कओ तस्सालोचेउं सम्मणाण-सम्मदंसण-सम्मचारित्तजुत्ताणं पंचविहाचाराणं आइरियाणं, आयारादि-सुदणाणोवदेसयाणं उवज्झायाणं, तिरयणगुणपालणरयाणं सव्वसाहूणं णिच्चकालं अंचेमि पूजेमि वंदामि णमंसामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं।
श्रुतसमुद्रपारंगत स्वमत व, परमत ज्ञाता कुशलमती।
सच्चरित्र तपनिधियुत गुणगुरु, हे गुरु! तुमको करूँ नती।।१।।
छत्तिस गुण से पूर्ण पाँच, आचार क्रिया के धारी हो।
शिष्य अनुग्रह निपुण धर्म-आचार्य सदा वंदूँ तुमको।।२।।
गुरुभक्ति संयम से तिरते, भव्य भयंकर भव वारिधि।
अष्टकर्म छेदें वे फिर नहिं, पाते जन्म मरण व्याधी।।३।।
व्रत अरु मंत्र होम में तत्पर, ध्यान अग्नि में हवन करें।
तपोधनी षट् आवश्यकरत, साधू उत्तम क्रिया धरें।।
शीलवस्त्रधर गुण आयुधयुत, सूर्यचंद्र से तेज अधिक।
मोक्षद्वार उद्घाटन योद्धा, साधु हों प्रसन्न मुझ प्रति।।४।।
ज्ञानदर्श के नायक गुरुवर, नित मेरी रक्षा करिये।
चरितजलधिगंभीर मोक्षपथ, उपदेशक पथ में धरिये।।५।।
अंचलिका
हे भगवन् ! आचार्य भक्ति का, कायोत्सर्ग किया रुचि से।
उसके आलोचन करने की, इच्छा करता हूँ मुद से।।
सम्यग्ज्ञान दरश चारित युत, पंचाचार सहित आचार्य।
आचारांग आदि श्रुतज्ञानी, उपाध्याय उपदेशक वर्य।।
रत्नत्रय गुण पालन में रत, सर्वसाधु का मैं हर्षित।
अर्चन पूजन वंदन करता, नमस्कार करता हूँ नित।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुणसंपति होवे।।