प्रतिग्रहप्रणामाभ्यां स्थापितो योग्यदातृभिः।
तर्णकैलकवालादीननुल्लंघ्य विशेद्गृहम्१।।११६।।
जिस घर के योग्य दाता ने प्रतिग्रह और प्रणाम करके स्थापना किया है—ठहराया है उसके घर में भैंस के छोटे बच्चे वा किसी भेड़, बकरी के छोटे बच्चे को उल्लंघन न करते हुए प्रवेश करना चाहिए।।११६।।
प्रकाशजनसंचारवत्यशुच्यङ्गिवर्जते ।
विस्तीर्णे संवृते शस्ते सम्मते तत्र संवृतः।।११७।।
आत्मोचिताऽऽसनाऽऽसीनो दातृप्रक्षालितक्रमः।
ऊर्द्ध्वाधः पार्श्वदिक्कोणनिक्षेपाद्यनिरीक्षणः।।११८।।
वर्णी पूर्णप्रतिज्ञोऽथ सिद्धभक्तिं विधाय तत्।
प्रत्याख्यानं विनिष्ठाप्य प्रेरितो भक्तदातृभिः।।११९।।
समांगुलचतुष्कांतरांघ्रिः स्थित्वा समुद्धते।
पात्रािंत्पडे करद्वन्द्वमानाभेर्धौतमुत्क्षिपेत् ।।१२०।।
जिस घर में प्रकाश हो, जिस घर में लोगों का जाना आना होता रहता हो अर्थात् जिसमें किसी प्रकार की रुकावट न हो, जिसमें कोई अपवित्र प्राणी न हो, जो विस्तीर्ण हो, ऊपर से ढका हो—उघड़ा हुआ न हो, जो प्रशंसनीय हो और जो सबको सम्मत वा मनोवाञ्छित हो ऐसे मकान में अपने शरीर वा इंद्रियों को समेट कर आहार के लिए जाना चाहिए। वहाँ जाकर अपने योग्य आसन पर बैठ जाना चाहिए। बैठ जाने पर आहार देने वाले दाता को उचित है कि वह उन मुनिराज के चरणकमलों का प्रक्षालन करे। उस समय मुनिराज को भी ऊपर की ओर, नीचे की ओर, अगल बगल वा दिशाओं के कोणों में रक्खे रहने वाले पदार्थों पर अपनी दृष्टि नहीं डालनी चाहिए अर्थात् किसी भी ओर देखना नहीं चाहिए। तदनंतर भक्ति करने वाले उस गृहस्थ दाता के द्वारा आहार ग्रहण करने की प्रार्थना करने पर जिनकी प्रतिज्ञा पूर्ण हो चुकी है ऐसे उन मुनि को सिद्धभक्ति करनी चाहिए और फिर अपना प्रत्याख्यान वा पहले ग्रहण किया हुआ त्याग पूर्ण करना चाहिए। फिर उन मुनिराज को चार अंगुल के अंतर से दोनों पैरों को समान रखकर खड़ा होना चाहिए। तथा जब दाता अपने पात्र में से देने के लिए भोजन का ग्रास उठावे, तब उन मुनिराज को अपने धोए हुए दोनों हाथ नाभि से ऊपर रखते हुए क्षेपण करना चाहिए।।११७-१२०।।
पुटं पाण्योरभित्वाऽन्यक्षिप्तं भुंजीत तं मतं।
विना विकारवेगार्त्तिमांद्याऽऽसक्तिस्वनादिभिः।।१२१।।
उन मुनिराज को आहार करते समय अपने दोनों हाथों का बंधन छोड़ना नहीं चाहिए तथा बिना किसी विकार के, बिना किसी प्रकार की शीघ्रता के, बिना किसी प्रकार की पीड़ा के, बिना किसी मंदता के, बिना किसी असमर्थता के और बिना किसी शब्द के वा बिना किसी ऐसे ही अन्य कारणों के शास्त्रों में लिखी हुई विधि के अनुसार हाथों में रक्खे हुए आहार को ग्रहण करना चाहिए।।१२१।।
यावदस्ति बलं स्थातुं मिलत्येतत्करद्वयम्।
तावद्भुंजे त्यजाम्यन्यथेति संधा यतेर्यतः।।१२२।।
मुनिराज जो खड़े होकर तथा हाथ मिलाकर आहार करते हैं उसका कारण यह है कि मुनिराज के ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि ‘‘जब तक मुझमें खड़े होने की शक्ति है और जब तक मेरे से दोनों हाथ मिल सकते हैं तब तक ही मैं भोजन करूँगा। जब मुझमें खड़े होने की शक्ति नहीं रहेगी तथा हाथों में मिलने की शक्ति नहीं रहेगी तब मैं आहार का सर्वथा त्याग कर दूँगा, ऐसी मुनियों के प्रतिज्ञा होती है।।१२२।।
इन श्लोक कथित अर्थ से स्पष्ट है ‘‘वर्णी पूर्णप्रतिज्ञोऽथ’’ वाक्य में बहुत ही स्पष्ट है। कि वर्णी-मुनि नवधाभक्ति पूर्ण हो जाने पर पूर्व दिन के प्रत्याख्यान या उपवास का समापन लघु सिद्धभक्ति पढ़कर करें। अर्थात्-
अथ प्रत्याख्याननिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेणसकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
ऐसा मन में बोलकर ९ बार णमोकार मंत्र का जाप्य करके लघु सिद्धभक्ति पढ़कर खड़े होकर आहार ग्रहण करें। पुन: आहारानंतर तत्क्षण ही लघु सिद्धभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान ग्रहण कर लेवें।
अथ प्रत्याख्यानप्रतिष्ठापनक्रियायां…………सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(९ जाप्य व पूर्ववत् लघु सिद्धभक्ति पढ़कर मन में नियम करें कि अगले दिन आहार होने तक मेरे चतुर्विध आहार का त्याग है पुन: आकर गुरु के पास दो भक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान ग्रहण करें व गुरुवंदना करें। यही सर्व विधि अनगारधर्मामृत ग्रंथ में भी है।