अप्रतिपन्नोपवासस्य भिक्षोर्मध्याह्नकृत्यमाह—
प्राणयात्राचिकीर्षायां प्रत्याख्यानमुपोषितम्।
न वा निष्ठाप्य विधिवद्भुक्त्वा भूयः प्रतिष्ठयेत्१।।३६।।
प्रतिष्ठयेत् प्रत्याख्यानमुपोषितं वा यथासामर्थ्यमात्मनि स्थापयेत्साधुः। कथम्? भूयः पुनः।किं कृत्त्वा ? भुक्त्वा भोजनं कृत्वा। किंवत ? विधिवत् शास्त्रोक्तविधानेन। किं कृत्वा ? निष्ठाप्य पूर्वदिने प्रतिपन्नं क्षमयित्वा विधिवदेव।किं तत् ? प्रत्याख्यानम्। न केवलम्, उपोषितं न वा उपवासं वा। कस्यां सत्याम्? प्राणयात्राचिकीर्षायां भोजन-करणेच्छायां जातायाम्।।
उपवास न करने वाले साधु को इस मध्याह्न के अस्वाध्याय काल में क्या करना चाहिए सो बताते हैं२—
यदि भोजन करने की इच्छा हो तो पूर्व दिन जो प्रत्याख्यान अथवा उपवास ग्रहण किया था उसकी विधिपूर्वक क्षमापणा करनी चाहिए और उस निष्ठापन के अनंतर शास्त्रोक्त विधि के अनुसार भोजन करके अपनी शक्ति के अनुसार फिर प्रत्याख्यान अथवा उपवास की प्रतिष्ठापना करनी चाहिए।
प्रत्याख्यानादिनिष्ठापनप्रतिष्ठापनयोस्तत्प्रतिष्ठापनानन्तरमाचार्यवन्दनायाश्च प्रयोगविधिमाह—
हेयं लघ्व्या सिद्धभक्त्याशनादौ,
प्रत्याख्यानाद्याशु चादेयमन्ते।
सूरौ तादृग्योगिभक्त्यग्रया तद्,
ग्राह्यं वन्द्यः सूरिभक्त्या स लघ्व्या।।३७।।
हेयं त्याज्यं साधुना। निष्ठाप्यमित्यर्थः िंक तत् ? प्रत्याख्यानादि प्रत्याख्यान-मुपोषितं वा। क्व ? अशनादौ भोजनारम्भे। कया ? सिद्धभक्त्या। िंकविशिष्टया? लघ्व्या। न केवलम्, आदेयं च लघ्व्या सिद्धभक्त्या प्रतिष्ठाप्यं साधुना। िंक तत् ? प्रत्याख्यानादि। क्व ? अन्ते प्रक्रमाद्भोजनस्यैव प्रान्ते। कथम् ? आशु शीघ्रं भोजनान्तरमेव। आचार्यासन्निधावेतद्विधेयं सूरौ आचार्यसमीपे पुनर्गाह्यं प्रतिष्ठाप्यं साधुना। िंक तत् ? तत् प्रत्याख्यानादि। कया ? लघ्व्या सिद्धभक्त्या। िंकविशिष्टया ? तादृग्योगिभक्त्यग्रया लघुयोगिभक्त्यधिकया। तादृग्लघ्वी योगिभक्तिस्तादृग्योगिभक्तिः। तयाग्रा अधिका तादृग्योगिभक्त्यग्रा, तया। तथा वन्द्यः साधुना। कोसौ ? स सूरिः। कया ? सूरिभक्त्या। िंक विशिष्टया ? लघ्व्या। उक्तं च—
सिद्धभक्त्योपवासश्च प्रत्याख्यानं च मुच्यते।
लघ्व्यैव भोजनस्यादौ भोजनान्ते च गृह्यते।।
सिद्धयोगिलघुभक्त्या प्रत्याख्यानादि गृह्यते।
लघ्व्या तु सूरिभक्त्यैव सूरिर्वन्द्योथ साधुना।।
प्रत्याख्यान या उपवास की निष्ठापना—समाप्ति और आगे के लिए प्रतिष्ठापन—प्रारम्भ करने की और प्रतिष्ठापन करने के अनंतर आचार्य परमेष्ठी की वंदना करनी चाहिए, अत एव उसके भी करने की विधि बताते हैं—
पहले दिन जो प्रत्याख्यान या उपवास ग्रहण किया था उसकी निष्ठापना साधुओं को भोजन के पहले लघु सिद्धभक्ति बोलकर करनी चाहिए। यहाँ ‘‘अशनादौ भोजनारंभे’’ वाक्य पर ध्यान देना चाहिये तथा भोजन क्रिया समाप्त होते ही तत्काल पुनः सिद्धभक्ति बोलकर नवीन प्रत्याख्यान या उपवास का प्रतिष्ठापन करना चाहिए। इस प्रकार से स्वयं प्रत्याख्यानादि का प्रतिष्ठापन आचार्य परमेष्ठी के अनिकट-वहीं करना चाहिए। पुनः आचार्य के पास में आकर साधुओं को भोजन के अनंतर पुनः लघु सिद्धभक्ति और योगिभक्ति बोलकर प्रत्याख्यानादि का प्रतिष्ठापन करना चाहिये और लघु आचार्यभक्ति बोलकर उनकी वंदना करनी चाहिए। जैसा कि कहा भी है कि-
भोजन की आदि में (नवधाभक्ति के बाद) उपवास या प्रत्याख्यान का त्याग और भोजन के अन्त में उसका ग्रहण लघु सिद्धभक्ति बोलकर ही करना चाहिए। पुन: साधुओं को गुरु के पास आकर लघु सिद्धभक्ति और लघु योगिभक्ति बोलकर प्रत्याख्यानादि का ग्रहण करना चाहिए और लघु आचार्य भक्ति बोलकर उनकी वंदना करनी चाहिए।
सद्यः प्रत्याख्यानाग्रहणे दोषमल्पकालमपि तद्ग्रहणे च गुणं दर्शयति—
प्रत्याख्यानं बिना दैवात् क्षीणायुः स्याद्विराधकः।
तदल्पकालमप्यल्पमप्यर्थपृथु चण्डवत्।।३८।।
स्यात्साधुः। िंक विशिष्ट ? विराधको रत्नत्रयाराधको न भवेदित्यर्थः। िंकविशिष्टः सन् ? क्षीणायुस्त्रुटितजीवितः। कस्मात् ? दैवात् प्राग्बद्धायुःकर्मवशात्। कथम् ? विना। िंक तत् ? प्रत्याख्यानम्। तत्प्रत्याख्यानं पुनरर्थपृथु फलेन बहु स्यात्। िंकविशिष्टमपि? अल्पकालमपि। अल्पः कालो यस्य तत्। तथाऽल्पमपि स्तोकमपि। िंक पुनश्चिरकालं प्रभूतं चेत्यपिशब्दार्थः। िंकवत् ? चण्डवत्। चण्डनाम्नो मातङ्गस्य चर्मवरत्रानिर्मातुः क्षणं मांसमात्रनिवृत्तस्य यथा। उक्तं च—
चण्डोऽवन्तिषु मातङ्ग किल मांसनिवृत्तितः।
अप्यल्पकालभाविन्याः प्रपेदे यक्षमुख्यताम्।।
भोजन के अनंतर तत्काल ही (चौके में ही) प्रत्याख्यानादि ग्रहण करने के लिए जो कहा है उसका अभिप्राय स्पष्ट करने के लिए तत्काल प्रत्याख्यानादि ग्रहण न करने में दोष और थोड़ी देर के लिए उसके ग्रहण करने में महान् लाभ है ; इस बात को बताते हैं—
प्रत्याख्यानादि के ग्रहण किए बिना यदि कदाचित—पूर्वबद्ध आयुकर्म के वश से वर्तमान आयु क्षीण हो जाय तो वह साधु विराधक समझना चाहिए। अर्थात् कारणवश यदि उसकी अकस्मात् मृत्यु हो जाय तो वह साधु प्रत्याख्यान से रहित होने के कारण रत्नत्रय का आराधक नहीं हो सकता। किन्तु इसके विपरीत प्रत्याख्यान सहित तत्काल मरण होने पर थोड़ी देर के लिए और थोड़ा सा ही ग्रहण किया हुआ वह प्रत्याख्यान चण्ड नामक चाण्डाल की तरह महान् फल का देने वाला हो जाता है। जैसा कि कहा भी है—
उज्जयनी नगरी में एक चण्ड नामका मातङ्ग रहता था। एक दिन वह चाम की रस्सी बट रहा था, जबकि उसकी आयु पूर्ण होने में थोड़ा सा ही समय बाकी रहा था। यह बात एक ऋषिराज को मालुम हुई तब उन्होंने उसको मांस त्याग का व्रत दिया। उस मातङ्ग ने ‘‘ये मेरी चाम की रस्सी का बटना जब तक पूर्ण नहीं होता तब तक के लिए मेरे मांस का त्याग है’’ ऐसा व्रत लिया। भवितव्यतानुसार रस्सी बटना पूर्ण होने के पहले ही उसका मरण हो गया। अत एव उस व्रत के प्रसाद से वह मरकर यक्षेन्द्र हुआ।
प्रत्याख्यानादिग्रहणानन्तरकरणीयं गोचारप्रतिक्रमणादिविधिमाह—
प्रतिक्रम्याथ गोचारदोषं नाडीद्वयाधिके।
मध्यान्हे प्राण्हवद्वृत्ते स्वाध्यायं विधिवद्भजेत् ।।३९।।
अथ प्रत्याख्यानादिग्रहणानन्तरं साधुः प्रतिक्रम्य विशोध्य। कम् ? गोचारदोषं गोवद्भोजनस्यातिचारं स्वाध्यायं विधिवद्भजेत्। क्व सति ? मध्यान्हे। िंकविशिष्टे नाडीद्वयाधिके। पुनः िंकविशिष्टे ? वृत्तेऽतिक्रान्ते सति। िंकवत् ? प्राण्हवत् पूर्वाण्हे यथा।
प्रत्याख्यानादि ग्रहण करने के अनंतर गोचार प्रतिक्रमण—भोजनसम्बन्धी दोषों का संशोधन करना चाहिए। अतएव उसकी विधि बताते हैं—
प्रत्याख्यान अथवा स्वाध्याय को अपने में स्थापित करने के बाद साधुओं को गोचारसम्बन्धी दोषों—अतीचारों का प्रतिक्रमण करना चाहिए और उसके बाद पूर्वाह्न की तरह अपराह्ण काल में भी मध्यान्ह से दो घड़ी अधिक समय व्यतीत होने पर विधिपूर्वक स्वाध्याय का प्रारम्भ करना चाहिए।
आचारसार ग्रंथ में प्रत्याख्यान के प्रतिष्ठापन में भक्ति-
स्त: सिद्धयोगभक्ती द्वे प्रत्याख्यानेतदन्तगा।
सूरिभक्तिर्भवेत्सिद्धभक्तिर्निष्ठापनेऽस्य तु१।।७१।।
अन्वयार्थ-(प्रत्याख्याने) प्रत्याख्यान के प्रतिष्ठापन में (सिद्धयोगभक्ती) सिद्ध, योगभक्ति (द्वे) वह दो (स्त:) होती है और (तदन्तगा) उसके अन्त में (सूरिभक्ति:) आचार्यभक्ति (भवेत्) होती है (तु) और (अस्य) इस प्रत्याख्यान के (निष्ठापने) निष्ठापन में (सिद्धभक्ति:) सिद्धभक्ति होती है।
भावार्थ–प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापन क्रिया में सिद्धभक्ति, योगभक्ति और आचार्यभक्ति करना चाहिए और इसके निष्ठापन में सिद्धभक्ति करना चाहिए।।७१।।
मूलाचार प्रदीप में प्रत्याख्यान प्रतिष्ठापन की विधि-
श्री सिद्धयोगभक्ती कृत्वा प्रत्याख्यानमूर्जितम्।
गृहीत्वाचार्यभक्तिश्च कर्तव्या पारणाहनि।।२३।।
सिद्धभक्तिं विधायोच्चै: प्रत्याख्यानं विमोचयेत्।
मध्यान्हे संयमीदातृगेहेऽङ्गस्थितये चिदे।।२४।।
अर्थ-सिद्धभक्ति और योगभक्ति पढ़कर उत्तम प्रत्याख्यान ग्रहण करना चाहिए और पारणा के दिन आचार्यभक्ति पढ़नी चाहिए।।२३।। फिर संयमियों को आत्म कल्याणार्थ शरीर की स्थिति के लिए दाता के घर मध्यान्ह के समय सिद्धभक्ति पढ़कर प्रत्याख्यान का त्याग करना चाहिए।।२४।।