‘‘गोचार, अक्षम्रक्षण, उदराग्निप्रशमन, भ्रमणाहार, भ्रामरीवृत्ति और श्वभ्रपूरण, इन पाँच प्रकार की वृत्ति रखकर मुनि आहार ग्रहण करते हैं।’’
जैसे गाय को घास देने वाली स्त्री चाहे सुन्दर हो या असुन्दर, वह गाय स्त्री की सुन्दरता अथवा वस्त्राभूषणों को न देखकर मात्र अपनी घास पर दृष्टि रखती है। वैसे ही मुनि भी अन्न, रस, स्वादिष्ट व्यंजन आदि की इच्छा न रखते हुए दाता के द्वारा प्रदत्त प्रासुुक आहार ग्रहण कर लेते हैं यह गौ के आचरणवत् गोचर या गोचरी वृत्ति कहलाती है।जैसे कोई वैश्य रत्नों से भरी गाड़ी के पहियों की धुरी में थोड़ी सी चिकनाई (ओंगन) लगाकर अपने इष्ट देश में ले जाता है। वैसे ही मुनिराज भी गुणरत्नों से भरी हुई शरीररूपी गाड़ी को ओंगन के समान थोड़ा सा आहार देकर आत्मा को मोक्षनगर तक पहुँचा देते हैं। इनको अक्षम्रक्षणवृत्ति कहते हैं।जैसे कोई वैश्य रत्नादि से भरे भांडागार में अग्नि के लग जाने पर शीघ्र ही किसी भी जल से उसे बुझा देता है। वैसे ही साधु भी सम्यग्दर्शन आदि रत्नों की रक्षा हेतु उदर में बढ़ी हुई क्षुधारूपी अग्नि के प्रशमन हेतु सरस वा नीरस वैâसा भी आहार ग्रहण कर लेते हैं। इसे उदराग्निप्रशमन वृत्ति कहते हैं।
जैसे भ्रमर अपनी नासिका द्वारा कमलगंध को ग्रहण करते समय कमल को किंचिन्मात्र भी बाधा नहीं पहुँचाता है। वैसे ही मुनिराज भी दाता के द्वारा दिये गये आहार को ग्रहण करते समय उन्हें किंचित् भी पीड़ित नहीं करते हैं। इसको भ्रामरीवृत्ति कहते हैं।इस प्रकार से आहार ग्रहण करते हुए यदि बत्तीस अंतरायों में से कोई भी अन्तराय आ जाये, तो वे आहार छोड़ देते हैं। जो दाता और पात्र दानों के मध्य में विघ्न आता है, वह अन्तराय कहलाता है।