भगवन्! सब जन तव पद युग की शरण प्रेम से नहि आते।
उसमें हेतु विविधदु:खों से भरति घोर भववारिधि है।।
अतिस्फुरित उग्र किरणों से व्याप्त किया भूमंडल है।
ग्रीषम ऋतु रवि राग कराता इंदुकिरण, छाया, जल में।।१।।
क्रुद्धसर्प आशीविष डसने से विषाग्नियुत मानव जो।
विद्या औषध मंत्रित जल हवनादिक से विष शांती हो।।
वैसे तव चरणाम्बुज युग स्तोत्र पढ़े जो मनुज अहो।
तनु नाशक सब विघ्न शीघ्र अति शांत हुये आश्चर्य अहो।।२।।
तपे श्रेष्ठ कनकाचल की शोभा से अधिक कांतियुत देव।
तव पद प्रमणन करते जो पीड़ा उनकी क्षय हो स्वयमेव।।
उदित रवी की स्फुट किरणों से ताड़ित हो झट निकल भगे।
जैसे नाना प्राणी लोचन द्युतिहर रात्री शीघ्र भगे।।३।।
त्रिभुवन जन सब जीत विजयि बन अतिरौद्रात्मक मृत्युराज।
भव भव में संसारी जन के सन्मुख धावे अति विकराल।।
किस विध कौन बचे जन इससे काल उग्र दावानल से।
यदि तव पाद कमल की स्तुति नदी बुझावे नहीं उसे।।४।।
लोकालोक निरन्तर व्यापी ज्ञानमूर्तिमय शांति विभो।
नानारत्न जटित दण्डेयुत रुचिर श्वेत छत्रत्रय हैं।।
तव चरणाम्बुज पूतगीत रव से झट रोग पलायित हैं।
जैसे सिंह भयंकर गर्जन सुन वन हस्ती भगते हैं।।५।।
दिव्यस्त्रीदृगसुंदर विपुला श्रीमेरू के चूड़ामणि।
तव भामंडल बाल दिवाकर द्युतिहर सबको इष्टअति।।
अव्याबाध अचिंत्य अतुल अनुपम शाश्वत जो सौख्य महान।
तव चरणारविंदयुगलस्तुति से ही हो वह प्राप्त निधान।।६।।
किरण प्रभायुत भास्कर भासित करता उदित न हो जब तक।
पंकजवन नहिं खिलते निद्राभार धारते हैं तब तक।।
भगवन्! तव चरणद्वय का हो नहीं प्रसादोदय जब तक।
सभी जीवगण प्राय: करके महत् पाप धारें तब तक।।७।।
शांति जिनेश्वर शांतिचित्त से शांत्यर्थी बहु प्राणीगण।
तव पादाम्बुज का आश्रय ले शांत हुये हैं पृथिवी पर।।
तव पदयुत की शांत्यष्टकयुत स्तुति करते भक्ती से।
मुझ भाक्तिक पर दृष्टि प्रसन्न करो भगवन्! करुणा करके।।८।।
शशि सम निर्मल वक्त्र शांतिजिन शीलगुण व्रत संयम पात्र।
नमूँ जिनोत्तम अंबुजदृग को अष्टशतार्चित लक्षण गात्र।।९।।
चक्रधरों में पंचमचक्री इंद्र नरेन्द्र वृंद पूजित।
गण की शांति चहूँ षोडश तीर्थंकर नमूँ शांतिकर नित।।१०।।
तरुअशोक सुरपुष्पवृष्टि दुंदुभि दिव्यध्वनि सिंहासन।
चमर छत्र भामंडल ये अठ प्रातिहार्य प्रभु के मनहर।।११।।
उन भुवनार्चित शांतिकरं शिर से प्रणमूं शांति प्रभु को।
शांति करो सब गण को, मुझको पढ़ने वालों को भी हो।।१२।।
मुकुटहारकुंडल रत्नों युत इन्द्रगणों से जो अर्चित।
इन्द्रादिक से सुरगण से भी पादपद्म जिनके संस्तुत।।
प्रवरवंश में जन्में जग के दीपक वे तीर्थंकर।
मुझको सतत शांतिकर होवें वे तीर्थेश्वर शांतीकर।।१३।।
संपूजक प्रतिपालक जन यतिवर सामान्य तपोधन को।
देशराष्ट्र पुर नृप के हेतू हे भगवन्! तुम शांति करो।।१४।।
सभी प्रजा में क्षेम नृपति धार्मिक बलवान् जगत में हो।
समय समय पर मेघवृष्टि हो आधि व्याधि का भी क्षय हो।।
चौर मारि दुर्भिक्ष न क्षण भी जग में जन पीड़ा कर हो।
नित ही सर्व सौख्यप्रद जिनवर धर्मचक्र जयशील रहो।।१५।।
वे शुभद्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव वर्तें नित वृद्धि करें।
जिनके अनुग्रह सहित मुमुक्षु रत्नत्रय को पूर्ण करें।।१६।।
घातिकर्म विध्वंसक जिनवर केवलज्ञानमयी भास्कर।
करें जगत में शांति सदा वृषभादि जिनेश्वर तीर्थंकर।।१७।।
हे भगवन्! शांतिभक्ति का, कार्यात्सर्ग किया उसके।
आलोचन करने की इच्छा, करना चाहूँ मैं रुचि से।।
अष्टमहाप्रातिहार्य सहित जो, पंचमहाकल्याणक युत।
चौंतिस अतिशय विशेष युत, बत्तिस देवेन्द्र मुकुट चर्चित।।
हलधर वासुदेव प्रतिचक्री, ऋषि मुनि यति अनगार सहित।
लाखों स्तुति के निलय वृषभ से, वीर प्रभू तक महापुरुष।
मंगल महापुरुष तीर्थंकर, उन सबको शुभ भक्ति से।
नित्यकाल मैं अर्चूं, पूजूं, वंदूं नमूँ महामुद से।।
दु:खों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधिलाभ होवे।
सुगति गमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपत्ति होवे।।