गणिनी आर्यिका ज्ञानमती
भगवान महावीर स्वामी के समवसरण में बैठकर श्रीगौतमस्वामी ने ‘‘मम मंगलं अरहंता य….. चेद्दियरुक्खा य चेदियाणि’’ स्तुति की है। टीकाकार श्री प्रभाचंद्राचार्य ने कहा है—
‘‘चेदियरुक्खा य चैत्यवृक्षाश्च। चैत्यानि हि जिनादिप्रतिबिम्बानि। तेषायाधारभूता वृक्षाश्चैत्यवृक्षा:। चेदियाणि। कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यानि। य अर्हंत इत्यादयश्चैत्यवृक्षपर्यन्ता व्याख्यातास्ते सर्वे मम मंगलं भवन्त्विति सम्बन्ध:।
चैत्यवृक्ष—चैत्य अर्थात् जिन आदि के प्रतिबिंब, उनके आधारभूत जो वृक्ष हैं वे चैत्यवृक्ष कहलाते हैं और जो चैत्य—कृत्रिम—अकृत्रिम जिनप्रतिमायें हैं। ये अर्हंत इत्यादि से लेकर चैत्यवृक्ष पर्यंत जो कहे गये हैं वे सब मेरे लिये मंगल करने वाले होवे ऐसा संबंध लगाना।
यहाँ मंगलाचरण में अर्हंत से लेकर पूरा मंगलाचण लिया है।
तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रंथों में चैत्यवृक्षों में मूल में—
तृतीय कटनी पर चारों दिशाओं में जिनप्रतिमायें मानी हैं, ये चैत्यवृक्ष कहाँ कहाँ हैं ? इस ग्रंथ में उनका संक्षिप्त संकलन किया गया है। मूलभाग में प्रतिमाये हैं—इसमें मूलभाग से तृतीय कटनी लेना ऐसा आदिपुराण में स्पष्ट है। सर्वप्रथम चैत्यवृक्ष के दो भेद हैं—अकृत्रिम और कृत्रिम।
जो अनादिनिधन देवविमान, जिनमंदिर जंबूद्वीप आदि के परकोटे में इंद्रों के यहाँ और जिनमंदिरों में ‘चैत्यवृक्ष’ हैं ये अकृत्रिम—अनादिनिधन हैं।
जो समवसरण में कुबेर द्वारा निर्मित चतुर्थभूमि व छठी भूमि में चैत्यवृक्ष और सिद्धार्थवृक्ष हैं। ये कृत्रिम माने गये हैं।
पुनश्च—
अकृत्रिम चैत्यवृक्ष भी तीन प्रकार के हैं—
जो देवविमान, जंबूद्वीप के परकोटे, जिनमंदिर के परकोटे में हैं, नंदीश्वरद्वीप में बावड़ी के चारों तरफ उद्यानों में हैं।
वे चारों दिशाओं में वनों में—उद्यानों में अशोक, सप्तच्छद, चंपक व आम्रवृक्ष के हैं।
२. जो अकृत्रिम मंदिरों में विशाल स्थल में हैं जिनके परिवार वृक्ष एक लाख, चालीस हजार उन्नीस हैं।
३. जो भवनवासी व्यंतर और वैमानिक देवों के इंद्रों के महल में ओलगशाला के आगे भिन्न—भिन्न नामों के हैं। वे तृतीय प्रकार के हैं।
इन चैत्यवृक्ष की प्रतिमाओं के आगे मानस्तंभ भी होते हैं।
इन सभी चैत्यवृक्षों में मूलभाग में ही जिनप्रतिमायें हैं। यथा—
‘‘चेत्ततरूणं मूले पत्तेक्कं चउदिसासु पंचेव।
चेट्ठंत्ति जिणप्पडिमा पलियंकठिया सुरेिंह महणिज्जा१।।३८।।
चैत्यवृक्षों में मूल में प्रत्येक चारों दिशाओं में पाँच—पाँच जिनप्रतिमायें पर्यंकासन से विराजमान हैं, ये देवों द्वारा पूज्य हैं। यह भवनवासी देवों के भवनों का प्रकरण है। आगे अन्यत्र एक—एक दिशा में एक—एक जिनप्रतिमायें मानी हैं। यथा स्थान इस ग्रंथ में स्पष्टीकरण है।
अब देखिये कृत्रिम चैत्यवृक्षों के दो भेद—
१. समवसरण में चतुर्थ उवपन भूमि में चारों दिशा में अशोक, सप्तच्छद, चंपक व आम्रवृक्ष के वनों में क्रम से इन्हीं नाम के चैत्यवृक्ष हैं। इनमें अर्हंतों की प्रतिमायें हैं।
२. समवसरण में छठी कल्पवृक्षभूमि में नमेरु, मंदार, संतानक व पारिजात नाम के सिद्धार्थ वृक्ष हैं इनमें चारों दिशाओं में सिद्धों की प्रतिमायें हैं।
जो तृतीय प्रकार के चैत्यवृक्ष हैं, वे भवनवासी, व्यंतर व वैमानिक देवों के महलों में ओलगशाला के आगे माने गये हैं। इसमें ज्योतिर्वासी देवों के विमानों का उल्लेख कहीं नहीं मिला है फिर भी अनुमान से एवं चर्चा से ऐसा प्रतीत होता है कि इन विमानों में अकृत्रिम जिनमंदिरों के परकोटे में उपवन भूमि में ये ‘चैत्यवृक्ष’ संभावित हैं। यदि हैं तो ये असंख्यातों ज्योतिर्विमानों में असंख्यातों ‘चैत्यवृक्ष हो जावेंगे।
इस ग्रंथ में ३४ पृ. पर द्वितीय जंबूद्वीप आया है।
इसका स्पष्टीकरण—
जंबूद्वीप लवण समुद्र को आदि लेकर असंख्यातों द्वीप, समुद्र माने गये हैं। शब्द—संख्यात ही हैं अत: संख्यात द्वीप—समुद्रों के बाद पुन:—पुन: वे ही नाम आ जायेंगे ऐसा ग्रंथों में स्पष्टीकरण है।फिर भी यह ध्यान रखना है कि द्वितीय जंबूद्वीप में इस प्रथम जंबूद्वीप जैसी रचना सुमेरु पर्वत कुलाचल आदि एवं भरतक्षेत्र, विदेहक्षेत्र आदि नहीं हैं न वहां कर्मभूमि ही है।कर्मभूमि की व्यवस्था ढाईद्वीपों तक ही है। आगे अंतिम स्वयंभूरमण द्वीप में उधर के आधे स्वयंभूरण द्वीप व अंतिम स्वंयभूरमण समुद्र में कर्मभूमि है फिर भी मात्र वहां तिर्यंच ही हैं मनुष्य नहीं हैं। मनुष्यों का अस्तित्व मात्र ढाईद्वीप तक ही है।ढाईद्वीप से परे मध्य के असंख्यातों द्वीपों में जघन्यभोगभूमि की व्यवस्था है वहां मात्र पंचेन्द्रिय तिर्यंच युगलिया ही माने गये हैं, ये असंख्यातों भोगभूमियाँ तिर्यंच हैं।
इस प्रकार उपलब्ध चैत्यवृक्षों का वर्णन इस ग्रंथ में उद्धृत किया गया है—
अकृत्रिम मंदिर के चारों ओर तीन परकोटे माने हैं। प्रथम परकोटे के अंतराल में उपवन भूमि है। उसमें चारों दिशाओं में अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम्रवन—उद्यान हैं। इनमें उन्हीं—उन्हीं नाम के चैत्यवृक्ष हैं। जिनमें मूलभाग में—तृतीय कटनी पर चारों दिशाओं में एक—एक जिनप्रतिमायें हैं। पृ. ४५-४६ पर त्रिलोकसार ग्रंथ की गाथा ५०२-५०३, उद्धृत हैं।समवसरण में भी चतुर्थ उपवन भूमि में अशोक आदि उपर्युक्त नाम के चार दिशा के चार उद्यानों में एक—एक चैत्यवृक्ष है। उनमें प्रत्येक चैत्यवृक्ष में चार—चार अर्थात् एक—एक दिशा में एक—एक जिनप्रतिमायें हैं। देखें पृ. ५३ पर। तिलोयपण्णत्ति पृ. २४८ से उद्धृत प्रकरण है।द्वितीय भेद में जो चैत्यवृक्ष वर्णित हैं। उनके १,४०, ११९ परिवार वृक्ष हैं। उनमें प्रत्येक में चारों दिशाओं में एक—एक जिनप्रतिमायें होने से ये प्रतिमायें (१४०१२० ² ४ · ५६०४८०) पांच लाख, साठ हजार चार सौ अस्सी हो जाती हैं। एक चैत्यवृक्ष के परिवारवृक्ष समेत ये प्रतिमायें हैं। देखें–पांडुकवन के जिनमंदिर में चैत्यवृक्षों का प्रमाण यहाँ पृ. २१ पर। तिलोयपण्णत्ति से उद्धृत गाथा १९०५ से १९०९ तक है।चैत्यवृक्षों के मूलभाग में जो प्रतिमायें हैं, ये तृतीय कटनी पर हैं। देखें प्रमाण—इस ग्रंथ में उद्धृत आदिपुराण के प्रमाण पृ० ५७-५८ मूलग्रंथ आदिपुराण पर्व २२ में यह प्रकरण है—
अशोकवन के मध्यभाग में एक बड़ा भारी आशोकवृक्ष था जो कि सुवर्ण की बनी हुई तीन कटनीदार ऊँची पीठिका पर स्थित था। पर्व २२, श्लोक १८४ है।इस ग्रंथ का स्वाध्याय करके आप परोक्ष से ही चैत्यवृक्षों की प्रतिमाओं की वंदना करके पुण्यसंचय करते रहें, यही इस ग्रंथ के संकलन का अभिप्राय है।विशेष—वर्तमान में कोई—कोई विद्वान् चैत्यवृक्षों की चारों दिशाओं की चार महाशाखाओं पर जिनप्रतिमा मानते हैं सो नितांत अनुचित है। आप सभी विद्वान् इस ग्रंथ का अवलोकन करें तथा तिलोयपण्णत्ती आदि ग्रंथों का भी स्वाध्याय अवश्य करें।किन्हीं ने तो चैत्यवृक्ष में पत्ते—पत्ते पर अनेक प्रतिमायें मान ली हैं जो कि हास्यास्पद ही है।
पुनश्च—
इस ग्रंथ में वर्णित असंख्यातों चैत्यवृक्षों में विराजमान, असंख्यातों जिनप्रतिमाओं को मेरा कोटि—कोटि नमन है।