(तिलोयपण्णत्ती से)
चोत्तीसादिसएहिं विम्हयजणणं सुरिंदपहुदीणं।
णमिऊण सीदलजिणं वेंतरलोयं णिरूवेमा१।।१।।
रज्जुकदी गुणिदव्वा णवणउदिसहरसअधियलक्खेणं।
तम्मज्झे तिवियप्पा वेंतरदेवाण होंति पुरा।।५।।
४९। १,९९०००।
भवणं भवणपुराणिं आवासा इय भवंति तिवियप्पा।
जिणमुहकमलविणिग्गदवेंतरपण्णत्तिणामाए।।६।।
रयणप्पहपुढवीए भवणाणिं दीवउवहिउवरिम्मि।
भवणपुराणिं दहगिरिपहुदीणं उवरि आवासा।।७।।
बारससहस्सजोयणपरिमाणं होदि जेट्ठभवणाणं।
पत्ते×ां¹ विक्खंभा तिण्णि सयाणं च बहलत्तं।।८।।
१२०००।३००।।
पणुवीस जोयणाणिं रुंदपमाणं जहण्णभवणाणं।
पत्ते×ां¹ बहलत्तं तिचउब्भागप्पमाणं च।।९।।
अहवा रुंदपमाणं पुह पुह कोसो जहण्णभवणाणं।
तव्वेदीउच्छेहो कोदंडाणिं पि पणुवीसं।।१०।।
को १। दं २५।। पाठान्तरम्।
बहलतिभागपमाणा कूडा भवणाण होंति बहुमज्झे।
वेदी चउवणतोरणदुवारपहुदीहिं रमणिज्जा।।११।।
कूडाण उवरि भागे चेट्ठंते जिणवरिंदपासादा।
कणयमया रजदमया रयणमया विविहविण्णासा।।१२।।
व्यन्तरा: किन्नरकिम्पुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षस-भूतपिशाचा:।।११।।
(तिलोयपण्णत्ती से)
चौंतीस अतिशयों से देवेंद्र आदि जनों को आश्चर्य उत्पन्न करने वाले शीतल जिनेन्द्र को नमस्कार करके व्यंतरलोक का निरूपण करते हैं।।१।। राजू के वर्ग को एक लाख निन्यानवे हजार से गुणा करने पर जो प्राप्त हो उसके मध्य में व्यंतर देवों के तीन प्रकार के पुर होते हैं।।५।। जिन भगवान् के मुखरूप कमल से निकले हुए व्यंतरप्रज्ञप्ति नामक अधिकार में भवन, भवनपुर और आवास इस प्रकार के भवन कहे गये हैं।।६।। इनमें से रत्नप्रभा पृथ्वी में भवन, द्वीप-समुद्रों के ऊपर भवनपुर और द्रह एवं पर्वतादिकों के ऊपर आवास होते हैं ।।७।। उत्कृष्ट भवनों में से प्रत्येक का विस्तार बारह हजार योजन और बाहल्य तीन सौ योजन प्रमाण है।।८।।१२०००।३००।। जघन्य भवनों में से प्रत्येक के विस्तार का प्रमाण पच्चीस योजन और बाहल्य एक योजन के चार भागों में से तीन भाग मात्र है।।९।।
अथवा जघन्य भवनों के विस्तार का प्रमाण पृथव्â-पृथव्â एक कोश और उनकी वेदी की ऊँचाई पच्चीस धनुष है।।१०।। को.१।दं.२५।। पाठान्तर। भवनों के बहुमध्य भाग में वेदी, चार वन और तोरण द्वारादिकों से रमणीय ऐसे बाहल्य के तीसरे भागप्रमाण कूट होते हैं।।११।। इन कूटों के उपरिम भाग पर विविध प्रकार के विन्यास से संयुक्त सुवर्ण, चांदी और रत्नमय जिनेन्द्रप्रासाद अर्थात् जिनमंदिर हैं।।१२।।
व्यन्तर देव आठ प्रकार के हैं- किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, राक्षस, भूत, और पिशाच।।११।।
जिनका नाना प्रकार के देशों में निवास है वे व्यन्तर देव कहलाते हैं। यह सामान्य संज्ञा सार्थक है।
प्रश्न-कौन-कौन से देश में उनका निवास है ?
उत्तर-इस जम्बूद्वीप के असंख्यात द्वीपों और समुद्रों को लाँघकर प्रथम भूमि के खर पृथिवी भाग में किन्नर, किम्पुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, भूत और पिशाच ये सात प्रकार के व्यन्तर रहते हैं तथा खर भाग के समान ही पज्र्बहुल भाग में राक्षसों का निवास है । इन किन्नर आदि शब्दों में द्वन्द्व समास है। यह किन्नर आदि आठ प्रकार के व्यन्तरों की विशेष संज्ञा जाननी चाहिये । यह संज्ञा देवगति नामकर्म के उदय से होती है ।