सयलिंदमंदिराणं पुरदो णग्गोहपायवा होंति।
एकेंक पुढविमया पुव्वोदिदजंबुदुमसरिसा।।४०५।।
तम्मूले एकेंक जिणिंदपडिमा य पडिदिसं होदि।
सक्कादिणमिदचलणा सुमरणमेत्ते वि दुरिदहरा।।४०६।।
स×ा¹स्स मंदिरादो ईसाणदिसे सुधम्मणामसभा।
तिसहस्सकोसउदया चउसयदीहा तदद्धवित्थारा।।४०७।।
३०००।४००।२००।।
तीए दुवारछेहो कोसा चउसट्ठि तद्दलं रुंदो।
सेसाओ वण्णणाओ सक्कप्पासाददसरिसाओ।।४०८।।
६४।३२।
रम्माए सुधम्मााए विविहविणोदेहि कीडदे सक्को।
बहुविहपरिवारजुदो भुंजंतो विविहसोक्खाणिं।।४०९।।
तत्थेसाणदिसाए उववादसभा हुवेदि पुव्वसमा।
दिप्पंतरयणसेज्जा विण्णासविसेससोहिल्ला।।४१०।।
तीए दिसाए चेट्ठदि वररयणमओ जिणिंदपासादो।
पुव्वसरिच्छो अहवा पंडुगजिणभवणसारिच्छो।।४११।।
समस्त इन्द्रमन्दिरों-इन्द्र भवनों के आगे न्यग्रोध वृक्ष होते हैं । इनमें एक-एक वृक्ष पृथिवीस्वरूप और पूर्वोक्त जंबूवृक्ष के सदृश होते हैं ।।४०५।।
इनके मूल में प्रत्येक दिशा में एक-एक जिनेन्द्र प्रतिमा होती है जिसके चरणों में शक्रादिक प्रणाम करते हैं तथा जो स्मरण मात्र में ही पाप को हरने वाली है ।।४०६।। सौधर्म इन्द्र के मन्दिर से ईशान दिशा में तीन हजार (तीन सौ) कोश ऊँची, चार सौ कोश लंबी और इससे आधे विस्तार वाली सुधर्मा नामक सभा है।।४०७।। उ. ३०००, दी. ४००, वि.२०० कोस।
सुधर्मा सभा के द्वारों की ऊँचाई चौसठ कोश और विस्तार इससे आधा है। शेष वर्णन सौधर्म इन्द्र के प्रासाद के सदृश है ।।४०८।।
उत्सेध ६४, विस्तार ३२ कोश। इस रमणीय सुधर्मा सभा में बहुत प्रकार के परिवार से युक्त सौधर्म इन्द्र विविध सुखों को भोगता हुआ अनेक विनोदों से क्रीड़ा करता है।।४०९।।
वहाँ ईशान दिशा में पूर्व के समान उपपाद सभा है। यह सभा देदीप्यमान रत्नशय्याओं से सहित और विन्यासविशेष से शोभायमान है।।४१०।।
उसी दिशा में पूर्व के समान अथवा पाण्डुकवन सम्बन्धी जिनभवन के सदृश उत्तम रत्नमय जिनेन्द्रप्रासाद है ।।४११।।