तत इन्द्रपुराद्बाह्ये चतुर्दिक्षु विमुच्य च।
लक्षार्धं योजनानां स्युश्चत्वािंरशद्वनान्यपि२।।१४९।।
अशोकं सप्तपर्णाख्यं चम्पकाह्वयमाम्रकम्।
इति नामाज्र्तिान्येव शाश्वतानि वनान्यपि।।१५०।।
योजनानां सहस्रेणायतानि विस्तृतानि च।
सहस्रार्धेन रम्याणि भवन्ति सफलानि वै।।१५१।।
अमीषां मध्यभागेषु चत्वारश्चैत्यपादपाः।
जम्बूद्रुमसमानाः स्युरशोकाद्या मनोहराः।।१५२।।
एषां मूले चतुर्दिक्षु जिनेन्द्रप्रतिमाः शुभाः।
देवार्च्या बद्धपर्यज्रः सन्ति भास्वरमूर्तयः।।१५३।।
अर्थ—इन्द्रों के नगरों से बाहर पूर्वादि चारों दिशाओं में पचास-पचास हजार योजन छोड़कर अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र नाम के शाश्वत चार वन हैं।।१४९-१५०।।
उत्तम फलों से युक्त इन प्रत्येक रमणीक वनों की लम्बाई एक हजार योजन और चौड़ाई पाँच सौ योजन प्रमाण है।।१५१।।
इन चारों वनों के मध्य भाग में जम्बूवृक्ष सदृश प्रमाण वाले, अत्यन्त मनोहर अशोक आदि चार चैत्यवृक्ष हैं।।१५२।।
इन चारों वृक्षों में से प्रत्येक वृक्ष के मूल में चारों दिशाओं में, देव समूहों से पूज्य, पद्मासन एवं देदीप्यमान शरीर की कान्ति से युक्त जिनेन्द्र भगवान् की एक-एक प्रतिमाएँ हैं।।१५३।।