सौधर्मे व सभैशाने शेषेन्द्राणां सभास्तथा।
उपपातसभाश्चैव अर्हदायतनानि च१।।२६३।।
शतार्धायामविस्तीर्णाः पुरस्तान्मुखमण्डपाः।
वेदिकाभिः परिक्षिप्ता नानारत्नशतोज्ज्वलाः।।२६४।।
।१००। ५०।
सामानिकादिभिः सार्धम् इन्द्राः पर्वसु सादराः।
पूजयन्त्यर्हतां तेषु कथाभिरपि चासते।।२६५।।
कल्पेषु परतश्चापि सिद्धायतनवर्णना।
आयागाः खलु कल्पेषु सभा ग्रैवेयतः स्मृताः।।२६६।।
योजनाष्टकमुद्विद्धा तावदेव च विस्तृता।
उपपातसभेन्द्राणां त्रायिंस्त्रशवतां स्मृता।।२६७।।
अशोकं सप्तपर्णं च चम्पकं चूतमेव च।
पूर्वाद्यानि वनान्याहुर्देवराजबहिःपुरात्।।२६८।।
आयतानि सहस्रं च तदर्धं विस्तृतान्यपि।
प्राकारः परितस्तेषां मध्ये चैत्यद्रुमा अपि।।२६९।।
। १००० । ५००।
अर्हतां प्रतिबिम्बानि जाम्बूनदमयानि च।
तेषां चतुर्षु पार्श्वेषु निषण्णानि चकासते।।२७०।।
वालुकं पुष्पकं चैव सौमनस्यं ततः परम्।
श्रीवृक्षं सर्वतोभद्रं प्रीतिकृद्रम्यकं तथा।।२७१।।
मनोहरविमानं च अर्चिमाली च नामतः।
विमलं च विमानानि यानकानीति लक्षयेत्।।२७२।।
नियुतव्यासदीर्घाणि वैक्रियाणीतराणि च।
वैक्रियाणि विनाशीनि स्वभावानि ध्रुवाणि च।।२७३।।
सौधर्मादिचतुष्के च ब्रह्मादिषु तथा क्रमात्।
आनतारणयोश्चैव उक्तान्येतानि योजयेत्।।२७४।।
सौधर्म कल्प के समान ऐशान कल्प में भी सभागृह है। उसी प्रकार शेष इन्द्रों के भी सभागृह, उपपातसभा और जिनायतन होते हैं।।२६३।। उनके आगे सौ (१००) योजन दीर्घ, इससे आधे (५० यो.) विस्तीर्ण, वेदिकाओं से वेष्टित और सैकड़ों नाना प्रकार के रत्नों से उज्ज्वल मुखमण्डप होते हैं।।२६४।। उनमें इन्द्र पर्व के दिनों में सामानिक आदि देवों के साथ भक्ति से जिन भगवान् की पूजा करते हैं तथा कथाओं के साथ (तत्त्वचर्चा करते हुए) वहाँ स्थित होते हैं।।२६५।। कल्पों में तथा आगे ग्रैवेयक आदि में भी सिद्धायतन का वर्णन करना चाहिए। आयाग (न्यग्रोध वृक्ष) कल्पों में तथा सभाभवन ग्रैवेयक में माने गए हैं।।२६६।। त्रायिंस्त्रशों के साथ इन्द्रों की उपपात सभा आठ योजन ऊँची और उतनी ही विस्तृत कही गई है।।२६७।। इन्द्रपुर के बाहर पूर्वादि दिशाओं में क्रम से अशोक, सप्तवर्ण, चम्पक और आम्र ये चार वन स्थित हैं।।२६८।। वे वन हजार (१०००) योजन लंबे और इससे आधे (५०० यो.) विस्तृत हैं। उनके चारों ओर प्राकार और मध्य में चैत्यवृक्ष स्थित हैं।।२६९।। उक्त चैत्यवृक्षों के चारों पार्श्वभागों में पल्यंकासन से स्थित सुवर्णमय जिनबिम्ब शोभायमान हैं।।२७०।। वालुक, पुष्पक, सौमनस्य, श्रीवृक्ष, सर्वतोभद्र, प्रीतिकृत्, रम्यक, मनोहर, अर्चिमाली और विमल ये यानविमान जानना चाहिए। ये एक लाख (योजन) लंबे-चौड़े यानविमान विक्रियानिर्मित और प्राकृतिक भी होते हैं। उनमें विक्रियानिर्मित विमान नश्वर और स्वाभाविक विमान स्थिर होते हैं।।२७१-२७३।।
ये उपर्युक्त विमान क्रम से सौधर्म आदि चार कल्पों, ब्रह्मादि चार युगलों तथा आनत व आरण कल्प; इस प्रकार इन दस स्थानों में कहे गए योजित करना चाहिए।।२७४।।