तत्र िंसहासने दिव्ये सर्वरत्नमये शुभे।
स्वैरं निषण्णो विस्तीर्णे जयशब्दाभिनन्दितः१।।२५४।।
वृतः सामानिवैर्देवैस्त्रायिंस्त्रशैस्तथैव च।
सुखासनस्थैः श्रीमद्भिस्तन्मुखोन्मुखदृष्टिभिः।।२५५।।
चित्रभद्रासनस्थाभिर्वामदक्षिणपार्श्वयोः।
संक्रीडयमानो देवीभिः क्रीडारतिपरायणः।।२५६।।
तत्र योजनविस्तीर्णः षट्कृतिं च समुच्छ्रितः।
स्तम्भो गोरुतविस्तारधाराद्वादशसंयुतः।।२५७।।
वङ्कामूर्तिः सपीठोऽस्मिन् क्रोशतत्पाददीर्घकः।
व्यासाश्च रत्नशिक्यस्थास्तिष्ठन्ति च समुद्गकाः।।२५८।।
। १ । १/४।
सक्रोशानि हिषट् तूर्ध्वं योजनान्यसमुद्गकाः।
क्रोशन्यूनानि तावन्ति अधश्चाप्यसमुद्गकाः।।२५९।।
।२५/४। २३/४।
जिनानां रुच्यकास्तेषु सुरैः स्थापितपूजिताः।
भरतैरावतेशानां सौधर्मैशानयोर्द्वयोः।।२६०।।
पूर्वापरविदेहेषु जिनानां रुच्यकाः पुनः।
सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पयोर्न्यस्तपूजिताः।।२६१।।
न्यग्रोधाः प्रतिकल्पं च आयागाः पादपाः शुभाः।
जम्बूमानाश्चतुःपार्श्वे पल्यज्र्प्रतिमायुताः।।२६२।।
उक्तं च (ति. प. ८,४०५-६)
सयिंलदमंदिराणं पुरदो णग्गोहपायवा होंति।
एक्केक्कं पुढविमया पूव्वोदिदजंबुदुमसरिसा।।९।।
तम्मूले एक्केक्का जििंणदपडिमा य पडिदिसं होंति।
सक्कादिणमियचलणा सुमरणमेत्ते वि दुरिदहरा।।१०।।
उस सभाभवन में ‘जय-जय’ शब्द से अभिनन्दित इन्द्र दिव्य, सर्वरत्नों से निर्मित, शुभ एवं विस्तीर्ण िंसहासन के ऊपर स्वेच्छापूर्वक विराजमान होता है। वह सुखकारक आसनों पर स्थित एवं उसके मुख की ओर दृष्टि रखने वाले ऐसे कान्तियुक्त सामानिक और त्रायिंश्त्रस देवों से वेष्टित होकर क्रीड़ा में अनुराग रखता हुआ अपने वाम और दक्षिण भागों में अनेक प्रकार के भद्रासनों पर स्थित देवियों के साथ क्रीड़ा किया करता है।।२५४-२५६।। वहाँ एक योजन विस्तीर्ण, छह के वर्गभूत छत्तीस योजन ऊँचा, एक कोस विस्तार वाली बारह धाराओं से संयुक्त और पादपीठ से सहित वङ्कामय स्तम्भ है। इसके ऊपर एक कोस लंबे और पाव (१/४) कोस विस्तृत रत्नमय सींके के ऊपर स्थित करण्डक है।।२५७-२५८।।
मानस्तम्भ के ऊपर सवा छह (६-१/४) योजन ऊपर और पौने छह (५-३/४) योजन नीचे वे करण्डक नहीं हैं।।२५९।। सौधर्म और ऐशान इन दो कल्पों में स्थित उन स्तम्भों के ऊपर देवों के द्वारा स्थापित और पूजित भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों के तीर्थंकरों के आभूषण रहते हैं।।२६०।। सनत्कुमार और माहेन्द्र इन दो कल्पों में स्थित उन स्तम्भों के ऊपर देवों द्वारा स्थापित एवं पूजित पूर्व और अपर विदेह क्षेत्रों के तीर्थंकरों के आभूषण रहते हैं।।२६१।। प्रत्येक कल्प में अपने चारों पार्श्वभागों में विराजमान ऐसी पल्यंकासन युक्त प्रतिमाओं से सुशोभित उत्तम न्यग्रोध आयाग वृक्ष होते हैं। ये वृक्ष प्रमाण में जम्बूवृक्ष के समान हैं।।२६२।।
तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में कहा भी है—
समस्त इन्द्रप्रासादों के आगे पृथिवी के परिणामस्वरूप एक-एक न्यग्रोध वृक्ष होते हैं। वे प्रमाण आदि में पूर्वोक्त जम्बूवृक्ष के समान हैं।।९।। उनके मूल भाग में प्रत्येक दिशा में एक-एक जिनप्रतिमा होती है। स्मरण मात्र से ही पाप को नष्ट करने वाली उन प्रतिमाओं के चरणों में इन्द्रादि नमस्कार करते हैं।।१०।।