-दोहा-
परम शुद्ध परिणाम हित, तुम पद पूजूँ आज।
पुष्पांजलि अर्पण करूँ, भरो आश जिनराज।।१।।
अथ द्वितीयवलये पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-दोहा-
लोभ सहित मन से करें, जो संरंभ महान।
पाप बंधे इनसे रहित, नमूँ सुपार्श्व भगवान।।२८।।
ॐ ह्रीं लोभकृतमन:संरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभचित्त संरंभ को, जो करवाते जीव।
पाप बंधे इनसे रहित, नमूँ सुपार्श्व सुख नींव।।२९।।
ॐ ह्रीं लोभकारितमन:संरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनुमोदें जो लोभ युत, मन संरंभ करंत।
इन विरहित अर्हंत को, जजत मिले भव अंत।।३०।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतमन:संरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभ सहित मन से करें, समारंभ जो जीव।
पापास्रव करते सतत, नमतें हों दुख छीव।।३१।।
ॐ ह्रीं लोभकृतमन:समारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभ सहित मन से करें, समारंभ नरवृंद।
करवाते वे मूढ़जन, नमूँ सुपार्श्व सुखकंद।।३२।।
ॐ ह्रीं लोभकारितमन:समारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभसहित मन से करें, समारंभ जो कोय।
अनुमोदें उनसे रहित, जजूँ सुपार्श्व सुख होय।।३३।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतमन:समारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभचित्त आरंभ जो, करें पाप में लीन।
उनसे रहित सुपार्श्व को, नमूँ स्वात्म सुख लीन।।३४।।
ॐ ह्रीं लोभकृतमन:आरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभचित्त आरंभयुत, करवाते जो पाप।
उनसे रहित अर्हंत को, नमत बनूँ निष्पाप।।३५।।
ॐ ह्रीं लोभकारितमन:आरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोभ चित्त आरंभयुत, अनुमोदें जो नित्य।
कर्म बांधते उन रहित, नमूँ सुपार्श्व गुण नित्य।।३६।।
ॐ ह्रीं लोभानुमतमन:आरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-स्रग्विणी छंद-
क्रोध में वाक्य से कार्य की भूमिका।
नाम संरंभ है जो करें सर्वदा।।
पाप को बांधते चारगति में भ्रमें।
आपने नाशिया मैं जजूँ अर्घ्य ले।।३७।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतवचनसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध में वचन से जो कराते सदा।
नाम संरंभ है कार्य की भूमिका।।
कर्म आते इन्हें आपने नाशिया।
मैं जजूँ अर्घ्य ले ज्ञान सम्यक् किया।।३८।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितवचनसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध से वचन संरंभ में अनुमती।
सर्व प्राणी इसी से लहें दुर्गती।।
आपने नाश के पाई पंचमगती।
मैं नमूँ मैं नमूँ पाऊं सम्यक्मती।।३९।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतवचनसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध से वच समारंभ जो आचरें।
कार्य को सर्व वस्तू इकट्ठी करें।।
ये समारंभ कर्मारि का मित्र है।
आपने नाशिया आप ही शर्ण हैं।।४०।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतवचनसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध में वचन से जो समारंभ हो।
जो करावें इसे कर्म बांधें अहो।।
आप ही नाथ हो आज रक्षा करो।
अर्घ्य लेके जजूँ मम सुरक्षा करो।।४१।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितवचनसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध से वचन व्यापार में अनुमती।
जो करें सो भ्रमें तीन जग में दुखी।।
आप जगवंद्य हो नाथ! रक्षा करो।
मैं जजूँ अर्घ्य ले मम सुरक्षा करो।।४२।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतवचनसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध में वचन से कार्य को आरभे।
नाम आरंभ कृत कर्म को बांधते।।
आप आरंभ को त्याग परमातमा।
मैं जजूँ आपको होऊं शुद्धातमा।।४३।।
ॐ ह्रीं क्रोधकृतवचनारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्य आरंभते को करे प्रेरणा।
क्रोध से वचन से पाप बांधे घना।।
जो तजे दोष को वे हि शुद्धातमा।
मैं जजूँ प्राप्त कर लूँ स्व परमातमा।।४४।।
ॐ ह्रीं क्रोधकारितवचनारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्य आरंभते को अनूमोदते।
क्रोध में वचन से कर्म को बांधते।।
आप प्रभु घातिया कर्म से शून्य हो।
मैं जजूँ कर्मवैरी स्वयं चूर होें।।४५।।
ॐ ह्रीं क्रोधानुमतवचनारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मानकृत वचन संरंभ से पाप हो।
सो जगत में भ्रमें दु:ख संताप हो।।
सर्व संरंभ से मुक्त परमात्मा।
मैं जजूँ साम्यपीयूष पाऊं यहाँ।।४६।।
ॐ ह्रीं मानकृतवचनसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान से वचन से कार्य की भूमिका।
जो कराता सभी लोक में घूमता।।
आपने नाश के स्वात्मसंपद लिया।
मैं जजूँ आपको शुद्ध सम्यक् लिया।।४७।।
ॐ ह्रीं मानकारितवचनसंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान से वचन से कार्य संरंभ में।
जो अनूमोदता दु:ख भोगें भ्रमें।।
आप सिद्धातमा मैं जजूँ भक्ति से।
ज्ञानज्योती मिले स्वात्मसंपत्ति से।।४८।।
ॐ ह्रीं मानानुमतवचनसंंरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान से वचन से जो समारंभ हो।
कार्य हेतू सभी वस्तु एकत्र हो।।
नाश के सिद्ध भगवान होते यहाँ।
मैं जजूँ स्वात्म पीयूष पीऊं यहाँ।।४९।।
ॐ ह्रीं मानकृतवचनसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंव्ाâराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो कराते समारंभ नित मान से।
वाक्य से प्रेरते जीव दुख पावते।।
तीर्थकर्ता सभी कर्म से दूर हैं।
मैं जजूँ सौख्य पाऊँ जो भरपूर है।।५०।।
ॐ ह्रीं मानकारितवचनसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जो समारंभ करते वचन मान से।
दें अनूमोदना कर्म को बांधते।।
आप सर्वज्ञ को मैं नमूँ भाव से।
भेद विज्ञान पाऊं निजी चाव से।।५१।।
ॐ ह्रीं मानानुमतवचनसमारंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान से वचन से कार्य जो आरभें।
नित्य आरंभ से जीव हिंसा करें।।
आपने सर्व आरंभ परिग्रह तजा।
मैं जजूँ भक्ति से प्राप्त हो मुक्तिजा।।५२।।
ॐ ह्रीं मानकृतवचन-आरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मान से वचन से कार्य आरंभ में।
जो करें प्रेरणा कर्म बांधें घने।।
मुक्ति हेतू धरा ध्यान मैं पूजहूँ।
रोग शोकादि दारिद्र से छूटहूँ।।५३।।
ॐ ह्रीं मानकारितवचन-आरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कार्य आरंभते को करे अनुमती।
मान में वाक्य से वे धरें दुर्गती।।
आपको पूजते सर्व संकट टलें।
मैं स्वयं मैं स्वयं आन संपत् मिलें।।५४।।
ॐ ह्रीं मानानुमतवचन-आरंभमुक्ताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-दोहा-
पंचमगति के हेतु मैं, नमन करूँ पंचांग।
परमानंद अमृत अतुल, सौख्य भरो सर्वांग।।१।।
ॐ ह्रीं सर्वास्रवविरहिताय श्रीसुपार्श्वनाथतीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।