शंभु छंद
जय जय श्रीपति जय लक्ष्मीपति, जय जय मुक्ती ललना पति हो।
जय जय त्रिभुवन पति गणपति के, पति जय हरि हर ब्रह्मा पति हो।।
कर्मों के भेत्ता हित उपदेष्टा, त्रिभुवन त्रिसमय वेत्ता हो।
जय जय केवलज्ञानी भगवन् , तुम ही शिव पथ के नेता हो।।१।।
जहं आप विराज रहें भगवन् ! सौ सौ योजन तक उस दिश में।
दुर्भिक्ष अकाल नहीं पड़ता, रहता सुभिक्ष उस उस थल में।।
जब श्री विहार होता भगवन् , आकाश में आप गमन करते।
िंहसा जीवों की निंह िंकचित् , निंह कवलाहार आप करते।।२।।
उपसर्ग न तुम पर हो सकता, चारों दिश चउ मुख दिखते हैं।
निंह छाया नहीं पलक झपकें, नख रोम नहीं बढ़ सकते हैं।।
सब विद्याओं के ईश आप, औ दिव्यध्वनी भी खिरती है।
जो तालु ओंठ कंठादिक के, व्यापार रहित ही दिखती है।।३।।
अठरह महभाषा सात शतक, क्षुद्रक भाषामय दिव्य धुनी।
उस अक्षर अनक्षरात्मक को, संज्ञी जीवों ने आन सुनी।।
तीनों संध्या कालों में वह त्रय त्रय मुहूर्त स्वयमेव खिरे।
गणधर चक्री औ इंद्रों के, प्रश्नोंवश अन्य समय भि खिरे।।४।।
भव्यों के कर्णों में अमृत, बरसाती शिव सुखदानी है।
चैतन्य सुधारस की झरणी, दुख हरणी यह जिनवाणी है।।
प्रभु को जब केवलज्ञान हुआ, ये ग्यारह१ अतिशय माने हैं।
इन अद्भुत गुण की संख्या को, सूरि यतिृवषभ बखाने हैं।।५।।
जय जय तुम वाणी कल्याणी, गंगाजल से भी शीतल है।
जय जय शमगर्भित अमृतमय, हिमकण से भी अतिशीतल है।।
चंदन औ मोती हार चंद्रकिरणों से भी शीतलदायी।
स्याद्वादमयी प्रभु दिव्यध्वनी, मुनिगण को अतिशय सुखदायी।।६।।
वस्तू में धर्म अनंत कहे, उन एक एक धर्मों को जो।
यह सप्तभंगि अद्भुत कथनी, कहती है सात तरह से जो।।
प्रत्येक वस्तु में विधि निषेध, दो धर्म प्रधान गौण मुख से।
वे सात तरह से हों वर्णित, निंह भेद अधिक अब हो सकते।।७।।
प्रत्येक वस्तु है अस्ति रूप, औ नास्ति रूप भी है वो ही।
वो ही है उभय रूप समझो, फिर अवक्तव्य है भी वो ही।।
वो अस्तिरूप औ अवक्तव्य, फिर नास्ति अवक्तव भंग धरे।
फिर अस्ति नास्ति औ अवक्तव्य, ये सात भंग हैं खरे खरे।।८।।
स्वद्रव्य क्षेत्र औ काल भाव, इन चारों से वह अस्तिमयी।
परद्रव्य क्षेत्र कालादि से, वो ही वस्तू नास्तित्व कही।।
दोनों को क्रम से कहना हो, तब अस्तिनास्ति यह भंग कहा।
दोनों को युगपत कहने से, हो अवक्तव्य यह तुर्य कहा।।९।।
अस्ती औ अवक्तव्य क्रम से, यह पंचम भंग कहा जाता।
नास्ती औ अवक्तव्य छट्ठा, यह भी है क्रम से बन जाता।।
क्रम से कहने से अस्ति नास्ति, औ युगपत अवक्तव्य मिलके।
यह सप्तम भंग कहा जाता, बस कम या अधिक न हो सकते।।१०।।
इस सप्त भंग मय सिन्धू में, जो नित अवगाहन करते हैं।
वे मोह रागद्वेषादिरूप, सब कर्म कालिमा हरते हैं।।
वे अनेकांतमय वाक्य सुधा, पीकर आतमरस चखते हैं।
फिर परमानन्द परमज्ञानी, होकर शाश्वत सुख भजते हैं।।११।।
मैं निज अस्तित्व लिये हूँ नित, मेरा पर में अस्तित्व नहीं।
मैं चिच्चैतन्य स्वरूपी हूँ, पुद्गल से मुझ नास्तित्व सही।।
इस विध निज को निज के द्वारा, निज में ही पाकर रम जाऊँ।
निश्चय नय से सब भेद मिटा, सब कुछ व्यवहार हटा पाऊँ।।१२।।
भगवन् ! कब ऐसी शक्ति मिले, श्रुतदृग से निज को अवलोवूँâ।
फिर स्वसंवेद्य निज आतम को, निज अनुभव द्वारा मैं खोजूँ।।
संकल्प विकल्प सभी तज के, बस निर्विकल्प मैं बन जाऊँ।।
फिर केवल ‘ज्ञानमती’ से ही, निज को अवलोवूँâ सुख पाऊँ।।१३।।
—दोहा—
श्री जिनेन्द्र का धर्म यह, जैनधर्म सुखकार।
सार्वभौम जिनधर्म को, नमूं अनंतों बार।।१४।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थसप्ततिशतकर्मभूमिषु प्रवर्तमानकेवलिप्रणीतजिनधर्माय महाजयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—शेरछंद—
जो भव्य जिनधर्म का विधान करेंगे।
संपूर्ण रोग शोक अमंगल को हरेंगे।।
जिनदेवदेव भक्ति से निजसौख्य भरेंगे।
आर्हन्त्य ‘ज्ञानमती’ से ही सिद्ध बनेंगे।।१।।
इत्याशीर्वाद:।