अनादिनिधन णमोकार महामंत्र
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।।
गुणैरनंतैरभिनन्दनोऽसौ—वगात् समृद्धिं सहसा त्रिलोक्याम्।
ददाति सौख्यं किल भाक्तिकानां, तं देवदेवं प्रणमामि भक्त्या।।१।।
श्री अभिनन्दनजिनस्तवनम्
(श्री समन्तभद्राचार्य—विरचितम्)
(वंशस्थ छंद)
गुणाभिनन्दा-दभिनन्दनो भवान्, दयावधूं क्षान्ति-सखी-मशिश्रियत्।
समाधितन्त्रस्तदुपोप-पत्तये, द्वयेन नैर्ग्रन्थ्य-गुणेन चायुजत्।।१।।
अचेतने तत्कृत-बन्धजेऽपि च, ममेद-मित्याभिनिवेशक-ग्रहात्।
प्रभंगुरे स्थावर-निश्चयेन च, क्षतं जगत्तत्व-मजिग्रहद् भवान्।।२।।
क्षुदादि-दुःख-प्रतिकारतः स्थिति-र्न चेन्द्रियार्थ-प्रभवाल्पसौख्यतः।
ततो गुणो नास्ति च देह-देहिनो-रितीद-मित्थं भगवान् व्यजिज्ञपत्।।३।।
जनोऽतिलोलोऽप्यनुबन्ध-दोषतो, भया-दकार्येष्विह न प्रवर्त्तते।
इहाप्यमुत्रा-प्यनुबन्ध-दोषवित् कथं सुखे संसजतीति चाब्रवीत्।।४।।
स चानुबन्धोऽस्य जनस्य तापकृत् तृषोऽपि वृद्धिः सुखतो न च स्थितिः।
इति प्रभो लोकहितं यतो मतं, ततो भवानेवगतिः सतां मतः।।५।।
प्रभु आप गुण की वृद्धि से अभिनन्दनं हुए।
क्षमा सखी सहित दयावधू को आश्रये।।
वरध्यान के आधीन ध्यान सिद्धि के लिए।
अंतर बहि निर्ग्रंथ गुण दोनों से युत हुए।।१।।
पुद्गल व बंधजन्य सुख-दुखादि अन्य में।
ये मेरे हैं इस मिथ्या आशय पिशाच से।।
नश्वर को थिर समझ के नष्ट हुए जगत को।
प्रभु आप सत्य तत्त्व बताया है सभी को।।२।।
क्षुध आदि प्रतीकार हेतु अशन आदि से।
अरु इन्द्रिय विषय से हुए भी अल्प सौख्य से।।
तनु और आत्मा की न स्थिति न उपकार।
प्रभु आपने इस जगत् को समझाया इस प्रकार।।३।।
मानव अती आसक्त भी आसक्तिदोष से।
नृप आदि के भय से अकार्य में न प्रवर्ते।।
द्वय भव में भी आसक्ति दोष जान भव सुख में।
आसक्त वैâसे हो रहे विस्मय अहो! इसमें।।४।।
आसक्ति से तृष्णा की वृद्धि जन को तापकर।
संसार सुख न जन को कभी होते तुष्टिकर।।
जिस हेतु आप मत प्रभो! त्रैलोक्य हितंकर।
अत आप ही हैं सत्पुरुष के लिए शरणकर।।५।।
अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।