-दोहा-
लोकोत्तर फलप्रद तुम्हीं, कल्पवृक्ष जिनदेव।
कुंथुनाथ तुमको नमूँ, करूँ भक्ति भर सेव।।१।।
-त्रिभंगी छंद-
पैंतिस गणधर मुनि साठ सहस, भाविता आर्यिका गणिनी थीं।
सब साठ सहस त्रय शतपचास, संयतिकायें अघ हरणी थीं।।
श्रावक दो लाख श्राविकाएँ, त्रय लाख चिन्ह बकरा शोभे।
आयू पंचानवे सहस वर्ष, पैंतिस धनु तनु स्वर्णिम दीपे।।२।।
-गीता छंद-
जय कुंथुनाथ जिनेंद्र तीर्थेश्वर जगत विख्यात हो।
जय जय अखिल संपत्ति के, भर्ता भविकजन नाथ हो।।
लोकांत में जा राजते, त्रैलोक्य के चूड़ामणी।
जय जय सकल जग में तुम्हीं, हो ख्यात प्रभु चिंतामणी।।३।।
एकेन्द्रियादिक योनियों में, नाथ! मैं रुलता रहा।
चारों गती में ही अनादी, से प्रभो! भ्रमता रहा।।
मैं द्रव्य क्षेत्र रु काल भव, औ भाव परिवर्तन किये।
इनमें भ्रमण से ही अनंतानंत काल बिता दिये।।४।।
बहुजन्म संचित पुण्य से, दुर्लभ मनुज योनी मिली।
तब बालपन में जड़ सदृश, सज्ज्ञान कलिका ना खिली।।
बहुपुण्य के संयोग से, प्रभु आपका दर्शन मिला।
बहिरातमा औ अंतरात्मा, का स्वयं परिचय मिला।।५।।
तुम सकल परमात्मा बने, जब घातिया आहत हुए।
उत्तम अतीन्द्रिय सौख्य पा, प्रत्यक्ष ज्ञानी तब हुए।।
फिर शेष कर्म विनाश करके, निकल परमात्मा बने।
कल-देहवर्जित निकल अकल, स्वरूप शुद्धात्मा बने।।६।।
हे नाथ! बहिरात्मा दशा को, छोड़ अंतर आतमा।
होकर सतत ध्याऊँ तुम्हें, हो जाऊँ मैं परमात्मा।।
संसार का संसरण तज, त्रिभुवन शिखर पे जा बसूँ।
निज के अनंतानंत गुणमणि, पाय निज में ही बसूँ।।७।।
-दोहा-
कामदेव चक्रीश प्रभु, सत्रहवें तीर्थेश।
केवल ‘‘ज्ञानमती’’ मुझे, दो त्रिभुवन परमेश।।८।।
सूरसेन नृप के तनय, श्रीकांता के लाल।
जजें तुम्हें जो वे स्वयं, होते मालामाल।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रीकुंथुनाथतीर्थंकराय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
-शंभु छंद-
श्री कुंथुनाथ जिनवर विधान, जो भक्ति भाव से करते हैं।
संपूर्ण रोग दु:ख संकट हर, नर सुर के सुख को लभते हैं।।
रत्नत्रय निधि को पा करके, मन पंकज विकसित करते हैं।
वैâवल्य ज्ञानमति किरणों से, तिहुंलोक प्रकाशित करते हैं।।१।।
इत्याशीर्वाद:।