मंगलाचरण
श्रीमते वर्धमानाय नमो नमितविद्वषे।
यज्ज्ञानान्तर्गतं भूत्वा, त्रैलोक्यं गोष्पदायते।।१।।
अर्थ—श्री वर्धमान स्वामी को नमस्कार हो कि जिन्होंने अपने अंतरंग कर्मशत्रु एवं बाह्य उपसर्ग करने वाले शत्रु को भी अपने चरणों में झुका लिया है एवं जिनके ज्ञान के अंतर्गत हुआ तीनों लोक जिनके केवलज्ञान में गोखुर-गाय के खुर के सामन छोटा सा प्रतिभासित होता है।।१।।
सिद्धशिला एवं सिद्ध भगवान (निषीधिका दण्डक से)—
‘‘इसिपब्भारतलग्गयाणं सिद्धाणं बुद्धाणं कम्मचक्कमुक्काणं णीरयाणं णिम्मलाणं,……. एदेहं मंगलं करेमि भावदो विसुद्धो सिरसा अहिवंदिऊण सिद्धे काऊण अंजिंल मत्थयम्मि, तिविहं तियरणसुद्धो’’
संस्कृत टीका—सिद्धानां निषीधिका:। कथम्भूतानां सिद्धानाम् ? इसिपब्भारतलग्गयाणं। ईषत्प्राग्भारो मोक्षशिला। तस्य तलमुपरितनभाग:। तत्र गतानां स्थितानाम्। तथा—बुद्धाणं। पदार्थस्वरूपपरिज्ञानवतां, न पूनर्जडरूपाणाम्। तथा—कम्मचक्कमुक्काणं। कर्मणां ज्ञानावरणादीनां चक्रं मूलोत्तरप्रकृतिभेदप्रपञ्च:। तेन मुक्तानां रहितानाम्। तथा—णीरयाणं। रजो ज्ञानदृगावरणे पापं वा। ततो निष्क्रान्तानाम्।तथा—णिम्मलाणं। मल: सम्यग्दर्शना-द्यतिचार: भावकर्म वा। ततो निष्क्रान्तानाम्।……
एदेहं मंगलं करेमि भावदो विसुद्धो सिरसा। एतान्कर्मतापन्नानहं भावतो विशुद्ध: शिरसोत्तमांगेन मंगलंं करोमि स्तुति-गोचरतां नयामि, ‘‘आदौ मध्येऽवसाने च मंगलं भाषितं बुधै:। तज्जिनेन्द्रगुणस्तोत्र-मित्यभिधानात्। िंक कृत्वा तान्मंगलं करोमि ? सिरसा अहिवंदिऊण सिद्धे। शिरसाऽभिवंद्य सिद्धान्। िंक कृत्वा ? काऊण अंजलिं मत्थयम्हि। मस्तके अंजलिं करमुकुलं कृत्वा। अहं िंक विशिष्ट:? तिविहं तियरणसुद्धो। देववंदनाप्रतिक्रमणस्वाध्यायलक्षणत्रिविधक्रियानुष्ठाने त्रीणि करणानि मनोवाक्कायलक्षणानि शुद्धानि यस्य।
श्री गौतमस्वामी सिद्धों की निषीधिका का वर्णन करते हैं—
सिद्ध भगवान कैसे हैं ?
ईषत्प्राग्भार नाम से जो आठवीं पृथ्वी है, वही मोक्षशिला है, उसका तल अर्थात जो उपरिम भाग है जो उसको प्राप्त कर चुके हैं—वहाँ पर स्थित हैं—विराजमान है ऐसे वे सिद्ध भगवान हैं। तथा वे बुद्ध हैं—संपूर्ण पदार्थों के स्वरूप को जानने वाले हैं न कि जड़रूप हैं। तथा कर्मचक्र से मुक्त हैं—ज्ञानावरण आदि जो कर्म हैं उनके मूल व उत्तर प्रकृतियों के नाना भेदरूप विस्तार को चक्र कहते हैं अर्थात् असंख्यात भेद-प्रभेदरूप कर्मों से रहित हो चुके हैं। तथा—नीरज हैं—रज अर्थात् ज्ञानावरण-दर्शनावरण अथवा पापकर्म प्रकृतियाँ, इनसे रहित हैं। निर्मल हैं—मल अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि के अतिचार दोषादि अथवा राग, द्वेष, मोह आदि भावकर्म इनसे निकल चुके हैं—इन भावकर्म मलों से रहित हो चुके हैं।
ऐसे सिद्ध भगवंतों की मैं भाव से विशुद्ध होकर सिर झुकाकर पृथ्वी पर मस्तक टेककर मंगल करता हूँ—स्तुति करता हूँ—नमस्कार करता हूँ। मंगल का अर्थ स्तुति करना ऐसा कहा भी है—
‘‘किसी भी ग्रंथ रचना या किसी भी कार्य की आदि में, मध्य में और अंत में मंगल करना चाहिये ऐसा विद्वानों ने कहा है।’’
‘‘तज्जिनेन्द्रगुणस्तोत्रं’’—वह मंगल जिनेन्द्र भगवंतों के गुणों का स्तवन करना ही है।
इस कथन के अनुसार यहाँ श्री गौतम स्वामी ने ‘‘एदेहं मंगलं करेमि’’ इस मंगल शब्द से यहाँ इन सिद्ध भगवंतों को नमस्कार किया है।
किस प्रकार से नमस्कार किया है ?
सिर झुकाकर, मुकुलित हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि रखकर अर्थात् जुड़े हुये हाथों की अंजलि बनाकर, अंजलि पर मस्तक को रखकर नमस्कार किया है।
पुनश्च मैं कैसे नमस्कार करता हूँ ?
देववंदना, प्रतिक्रमण और स्वाध्याय इन तीन प्रकार की क्रियाओं के अनुष्ठान में मन, वचन, काय लक्षण तीन करणों की शुद्धिपूर्वक नमस्कार करता हूँ।