परिध्वस्ताखिलद्वेषं सर्वप्रकृतिसौख्यदम्।
चकार भरतो राज्यं प्रजासु जनकोपम:१।।१३६।।
राज्ये तथाविधेऽप्यस्य धृतिर्नाभूदपि क्षणम्।
दुस्सहं दधमानस्य शोकशल्यं मनस्विन:।।१३७।।
त्रिकालमरनाथस्य वन्दारुर्भोगमन्दधी:।
ययौ श्रोतुं च सद्धर्मं चैत्यमस्येयती धृति:।।१३८।।
तत्राचार्यो द्युतिर्नाम स्वपरागमपारग:।
महता साधुसंघेन सततं कृतसेवन:।।१३९।।
अग्रतोऽवग्रहं तस्य चकार भरत: सुधी:।
पद्मदर्शनमात्रेण करिष्ये मुनितामिति।।१४०।।
कृतावग्रहमेवं तमुवाच भगवान् द्युति:।
कुर्वन् मयूरवृन्दानां नर्तनंं धीरया गिरा।।१४१।।
भव्य भो यावदायाति पद्म: पद्मनिरीक्षण:।
तावद्गृहस्थधर्मेण भवाप्तपरिकर्मक:।।१४२।।
अत्यन्तदुस्सहा चेष्टा निर्ग्रंन्थानां महात्मनाम्।
परिकर्म विशुद्धस्य जायते सुखसाधना।।१४३।।
उपरिष्टात् करिष्यामि काले तप इति ब्रुवन्।
अनेको मृत्युमायाति नरोऽतिजडमानस:।।१४४।।
अनर्घ्यरत्नसदृशं तपो दिग्वाससामिति।
एवमप्यक्षमं वक्तुं परस्तस्योपमा कुत:।।१४५।।
कनीयांस्तस्य धर्मोऽयमुक्तोऽयं गृहिणां जिनै:।
अप्रमादी भवेत्तस्मिन्निरतो बोधदायिनि।।१४६।।
यथा रत्नाकरद्वीपं मानव: कश्चिदागत:।
रत्नं यिंत्कचिदादत्ते यात्यस्य तदनर्घताम्।।१४७।।
तथास्मिन्नियमद्वीपे शासने धर्मचक्रिणाम्।
य एव नियम: कश्चिद् ग्रहीतो यात्यनर्घताम्।।१४८।।
अथानन्तर भरत, पिता के समान, प्रजा पर राज्य करने लगा। उसका राज्य समस्त शत्रुओं से रहित तथा समस्त प्रजा को सुख देने वाला था।।१३६।। तेजस्वी भरत ने अपने मन में असहनीय शोकरूपी शल्य को धारण कर रखा था इसलिए ऐसे व्यवस्थित राज्य में भी उसे क्षणभर के लिए सन्तोष नहीं होता था।।१३७।। वह तीनों काल अरनाथ भगवान् की वन्दना करता था, भोगों से सदा उदास रहता था और समीचीन धर्म का श्रवण करने के लिए मन्दिर जाता था यही इसका नियम था।।१३८।। वहाँ स्व और परशास्त्रों के पारगामी तथा अनेक मुनियों का संघ जिनकी निरन्तर सेवा करता था ऐसे द्युति नाम के आचार्य रहते थे।।१३९।। उनके आगे बुद्धिमान् भरत ने प्रतिज्ञा की कि मैं राम के दर्शन मात्र से मुनिव्रत धारण करूँगा।।१४०।। तदनन्तर अपनी गम्भीर वाणी से मयूर समूह को नृत्य कराते हुए भगवान् द्युति भट्टारक इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने वाले भरत से बोले।।१४१।। कि हे भव्य ! कमल के समान नेत्रों के धारक राम जब तक आते तब तक तू गृहस्थ धर्म के द्वारा अभ्यास कर ले।।१४२।। महात्मा निर्ग्रंथ मुनियों की चेष्टा अत्यन्त कठिन है पर जो अभ्यास के द्वारा परिपक्व होते हैं उन्हें उसका साधन करना सरल हो जाता है।।१४३।। ‘मैं आगे तप करूँगा’ ऐसा कहने वाले अनेक जड़बुद्धि मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं पर तप नहीं कर पाते हैं।।१४४।। ‘निर्ग्रंथ मुनियों का तप अमूल्य रत्न के समान है’ ऐसा कहना भी अशक्य है फिर उसकी अन्य उपमा तो हो ही क्या सकती है ?।।१४५।। गृहस्थों के धर्म को जिनेन्द्र भगवान् ने मुनिधर्म का छोटा भाई कहा है सो बोधि को प्रदान करने वाले इस धर्म में भी प्रमाद रहित होकर लीन रहना चाहिए।।१४६।। जैसे कोई मनुष्य रत्नद्वीप में गया वहाँ वह जिस किसी भी रत्न को उठाता है वही उसके लिए अमूल्यता को प्राप्त हो जाता है इसी प्रकार धर्मचक्र की प्रवृत्ति करने वाले जिनेन्द्र भगवान् के शासन में जो कोई इस नियमरूपी द्वीप में आकर जिस किसी नियम को ग्रहण करता है वही उसके लिए अमूल्य हो जाता है।।१४७-१४८।।