भवनं वस्तु जैनेन्द्रं निर्मापयति मानव:।
तस्य भोगोत्सव: शक्य: केन वक्तुं सुचेतस:१।।१७२।।
प्रतिमां यो जिनेन्द्राणां कारयत्यचिरादसौ।
सुरासुरोत्तमसुखं प्राप्य याति परं पदम्।।१७३।।
व्रतज्ञानतपोदानैर्यान्युपात्तानि देहिन:।
सर्वैस्रिष्वपि कालेषु पुण्यानि भुवनत्रये।।१७४।।
एकस्मादपि जैनेन्द्रबिम्बाद् भावेन कारितात्।
यत्पुण्यं जायते तस्य न संमान्त्यतिमात्रत:।।१७५।।
फलं यदेतदुद्दिष्टं स्वर्गे संप्राप्य जन्तव:।
चक्रवर्त्यादितां लब्ध्वा यन्मर्त्यत्वेऽपि भुञ्जते।।१७६।।
धर्ममेवं विधानेन य: कश्चित्प्राप्य मानव:।
संसारार्णवमुत्तीर्य त्रिलोकाग्रेऽवतिष्ठते।।१७७।।
जो मनुष्य जिनमन्दिर बनवाता है उस सुचेता के भोगोत्सव का वर्णन कौन कर सकता है?।।१७२।। जो मनुष्य जिनेन्द्र भगवान् की प्रतिमा बनवाता है वह शीघ्र ही सुर तथा असुरों के उत्तम सुख प्राप्त कर परम पद को प्राप्त होता है।।१७३।। तीनों कालों और तीनो लोकों में व्रत, ज्ञान, तप और दान के द्वारा मनुष्य के जो पुण्य—कर्म संचित होते हैं वे भावपूर्वक एक प्रतिमा के बनवाने से उत्पन्न हुए पुण्य की बराबरी नहीं कर सकते।।१७४-१७५।। इस कहे हुए फल को जीव स्वर्ग में प्राप्त कर जब मनुष्य पर्याय में उत्पन्न होते हैं तब चक्रवर्ती आदि का पद पाकर वहाँ भी उसका उपभोग करते हैं।।१७६।। जो कोई मनुष्य इस विधि से धर्म का सेवन करता है वह संसार—सागर से पार होकर तीन लोक के शिखर पर विराजमान होता है।।१७७।।