अनुक्रम केवलि मुक्तिपद, प्राप्त स्वर्ग पद प्राप्त।
पुष्पांजलि से पूजते, मिटे सकल भवताप।।१।।
अथ मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—चामर छंद—
आदिनाथ के चुरासि आनुबद्ध केवली।
स्वात्म सौख्य दे सके इन्हों कि भक्ति एकली।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
पूजते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीऋषभदेवस्य चतुरशीति-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आनुबद्ध केवली चुरासि अजितेश के।
मुक्ति वल्लभा वरी सुजात रूप धार के।।इष्ट.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथस्य चतुरशीति-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
संभवेश के चुरासि केवली अनुक्रमे।
देव इंद्र खेचरादि आप पाद में रमें।।इष्ट.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथस्य चतुरशीति-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ अभीनंदनेश के चुरासि केवली।
एक बाद एक आनुबद्ध पात्रता भली।।इष्ट.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदननाथस्य चतुरशीति-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ सुमति के चुरासि आनुबद्ध केवली।
पाद धारते जहाँ पे पूज्य हो वही थाली।।इष्ट.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथस्य चतुरशीति-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पद्मनाथ के चुरासि केवली अनुक्रमे।
पादपद्म मैं नमूँ निजात्म सौख्य पावने।।इष्ट.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभनाथस्य चतुरशीति-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सुपार्श्व के चुरासि आनुपूर्व्य१ केवली।
वंदते अनंत जन्म की सभी व्यथा टली।।इष्ट.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथस्य चतुरशीति-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चंद्रनाथ के चुरासि आनुबद्ध केवली।
पूजते निजात्म तत्त्व की कली कली खिली।।इष्ट.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभनाथस्य चतुरशीति-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्पदंत के चुरासि आनुपूर्व्य केवली।
पादपद्म के जजें समस्त आपदा टली।।इष्ट.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंतनाथस्य चतुरशीति-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शीतलेश के चुरासी आनुबद्ध केवली।
नाम मात्र लेवते निजात्म संपदा मिली।।इष्ट.।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथस्य चतुरशीति-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री श्रेयांस के नुबद्ध केवली बहत्तरा।
घाति घात के अघाति घातते जिनेश्वरा।।इष्ट.।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथस्य द्वासप्तति-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वासुपूज्य के चवालिसों-नुबद्ध केवली।
घाति घातते उन्हें अनंत सम्पदा मिली।।इष्ट.।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यनाथस्य चतुश्चत्वािंरशत्-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ विमल के सु चालिसों नुबद्ध केवली।
तीन रत्न पावते हि सिद्धि वल्लभा मिली।।इष्ट.।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथस्य चत्वािंरशत्-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्री अनंत के नुबद्ध केवली छतीस हैं।
सर्वकर्म नाश राजते त्रिलोक शीश हैं।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
पूजते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीअनंतनाथस्य षट्त्रिंशत्-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्मनाथ के नुबद्ध केवली बतीस हैं।
धर्म प्राण भव्य जीव से हि पूजनीक हैं।।इष्ट.।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथस्य द्वात्रिंशत्-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतिनाथ के नुबद्ध केवली अठाइसे।
नाम लेत ही अपूर्व सौख्य शांति हो वशे।।इष्ट.।।१६।।
ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथस्य अष्टािंवशति-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंथु के नुबद्ध केवली सु चार बीस हैं।
मृत्यु मल्ल मार के बसें त्रिलोक शीश हैं।।इष्ट.।।१७।।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथस्य चतुर्विंशति-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ अरह के नुबद्ध केवली सु बीस हैं।
देव इंद्र चक्रवर्ति वंद्य सर्व ईश हैं।।इष्ट.।।१८।।
ॐ ह्रीं श्रीअरनाथस्य िंवशति-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मल्लिनाथ के सु सोलहों नुबद्ध केवली।
धर्म अर्थ काम मोक्ष साधके हुये बली।।इष्ट.।।१९।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्लिनाथस्य षोडश-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सुव्रतेश के हि बारहों नुबद्ध केवली।
संयमादि धार के अनंत वीर्य से बली।।इष्ट.।।२०।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रतनाथस्य द्वादश-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आनुबद्ध केवली नमीश के सु आठ हैं।
भव्य वृन्द के सदैव सर्व ठाठ बाट हैं।।इष्ट.।।२१।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथस्य अष्टा-अनुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नेमिनाथ के सु चार आनुबद्ध केवली।
मैं नमूँ उन्हें सदैव स्वात्म ज्योति हो भली।।इष्ट.।।२२।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथस्य चतुरनुुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पार्श्वनाथ के नुबद्ध केवली सु तीन ही।
वंदते उन्हें निजात्म भेद ज्ञान हो सही।।इष्ट.।।२३।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथस्य त्रयानुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वीरनाथ के सु तीन आनुबद्ध केवली।
गौतमो सुधर्मसूरि जंबुस्वामि केवली।।इष्ट.।।२४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: त्रयानुबद्धकेवलिभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य-शंभु छंद—
जिस दिन तीर्थंकर मुक्ति गये, उस दिन हो केवलज्ञान जिन्हें।
फिर उनके मुक्ती जाते ही, जो मुनि उस दिन केवली बनें।।
इस तरह श्रृंखला नहिं टूटे, अनुबद्ध केवली होते हैं।
उनके चरणों का वंदन कर, हम कर्म कालिमा धोते हैं।।
—दोहा—
ग्यारह सौ व्यासी कहे, अनुक्रम केवलि ईश।
या१तेरह सौ सत्तरे, नमूूँ नमूँ नत शीश।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकराणां द्व्यशीत्युत्तरएकादशशतानुबद्धकेवलिभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।