—दोहा—
तीर्थंकर शिष्यत्व का, जिन्हें मिला सौभाग्य।
नमूँ नमूँ उनको सदा, उन्हें मुक्ति सुखसाध्य।।१।।
—शिखरिणी छंद—
नमूँ अर्हन्मुद्रा नगनतन दिग्वस्त्र धरते।
नमूँ तीर्थंकर के निकट व्रत दीक्षादि धरते।।
नमूँ संयम शील प्रभृति बहुयोगादि धरते।
सदा ध्याते आत्मा समरस सुधास्वाद चखते।।२।।
अहो स्वात्मा नंते दरश सुख ज्ञानादि सहिता।
अनादी से शुद्धा करम मल दोषादि रहिता।।
नहीं ध्याते ऐसे विमल गुण पूरित स्वयम् को।
दुखी वे ही होते भ्रमत जग में भूल पथ को।।३।।
मुनी सच्चे वो ही धरत अठविस मूलगुण जो।
तपें बारह तप जो परिषह सहें बाइसहिं जो।।
सदा स्वाध्यायी भी सतत निज को शुद्ध समझें।
सदा ज्ञानी ध्यानी स्वपर विद हों स्वात्म निरखें।।४।।
खड़े भूभृत् चोटी गरम ऋतु में आतपन में।
नदी तीरे तिष्ठें शरद ऋतु में स्वात्म सुख में।।
तरू नीचे बैठें जलद बरसें बूँद टपकें।
धरें त्रै योगों को मगन बहुतें साम्यरस में।।५।।
सहें उपसर्गों को क्षपक श्रयणीं माहिं चढ़के।
सभी घाती घातें उदित रवि वैâवल्य चमके।।
सुबोधे भव्यों को मधुर हित पीयूष वच से।
अघाती को घातें समय इक में मोक्ष पहुँचें।।६।।
मुनी धर्मध्यानी विविध गुण रत्नों सहित हों।
अनुत्तर में जन्में, इक द्वय भवों लेय शिव हों।।
कदाचित् स्वर्गों में जनम धरतें फेर क्रम से।
वरें मुक्ती कन्या अधिक भव में ना भ्रमत वे।।७।।
जहाँ ऐसे साधु विचरण करें प्रेम सब में।
न हों दुर्भिक्षादी सतत शुभ क्षेमादि जग में।।
फलें सबही खेती छह ऋतु फलें एक पल में।
महा क्रूरादी भी पशु गण धरें प्रीति सब में।।८।।
जयो साधू सर्वे नमहुँ कर जोड़े सतत में।
मिले सम्यक्त्वादी निजगुण मुझे एक क्षण में।।
नहीं होवे मेरा जन्म धरना फेर जग में।
यही माँगूूं स्वामी निजगुण भरो नाथ मुझ में।।९।।
—घत्ता—
जय जय तीर्थंकर, शिष्य साधुवर, जय त्रिभुवन में पूज्य गुरो।
जिन मुद्राधारी, गुणगण भारी, ज्ञानमती मुझ पूर्ण करो।।१०।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थेषु अनुबद्धकेवलिस्वर्गापवर्गप्राप्तसाधुभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
—गीता छंद—
अनुबद्ध केवली मुक्तिप्राप्त, आदि मुनियों को वंदन है।
इनकी पूजा भक्ती श्रद्धा, स्वयमेव मुक्ति का साधन है।।
जो भव्य अर्चना करते हैं, वे रत्नत्रय निधि पाते हैं।
वैâवल्य ज्ञानमति पा करके, निश्चित सिद्धालय जाते हैं।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।