चमकित मुकुट मणि की प्रभ से, व्याप्त सु उन्नत है मस्तक।
कंकण हारादिक से शोभित, त्रिभुवन के इंद्रादिक सब।।
जिससे उनको स्वपद कमल में, नमित किया नित मुनियों ने।
उन अर्चित पंचाचारों को, कथन हेतु अब नमूं उन्हें।।१।।
व्यंजन अर्थ उभय शुद्धी युत, काल विनय शुद्धि उपधा।
निज सूरि का निन्हव नहिं, बहुमान कहीं ये अष्ट विधा।।
श्रीमद् प्रभू जातिकुल पुंगव, तीर्थंकर से कथित महान् ।
ज्ञानाचार त्रिधा मैं प्रणमूं, कर्म नाश हेतू सुखदान।।२।।
शंका कांक्षा मूढ़दृष्टि से, रहित सदा वात्सल्य सहित।
विचिकित्सा से दूर धर्म के, वृद्धिंगत में तत्पर नित।।
जिन शासन उद्दीपन हित, पथभ्रष्टों को करना स्थिर।
आदर से शिर नत वंदूं, अष्टांग दर्शनाचार प्रवर।।३।।
अनशन अवमोदर्य वृत्ति, परिसंख्या कायक्लेश सुतप।
इन्द्रिय हस्ती को मद कारक, विविध रसों का त्याग सुतप।।
नित एकांत शयन उपवेशन, ये छह बाह्य कहे हैं तप।
शिवगति प्राप्ति के उपाय में, मैं इनकी स्तुति करूं सतत।।४।।
क्रिया व्रतों में दोष लगे तब, प्रायश्चित स्वाध्याय महान् ।
बाल वृद्ध रोगी यति गुरु की वैयावृत्ति नित्य शुचि ध्यान।।
कायोत्सर्ग विनय तप षट् विधि, अंतरंग ये कहे प्रधान।
अंतरंग रागादि दोष विध्वंसक इनको नमूं सुजान।।५।।
अर्हत मत के श्रद्धानी जो, सम्यग्ज्ञान चक्षु धारी।
तप में शक्ति नहीं छिपाते, करें प्रयत्न सदा भारी।।
उनकी चर्या छिद्र रहित, नौका सम भवदधि तरणी है।
ऐसा वीर्याचार नमूं मैं, गुणमय सज्जन अर्चित है।।६।।
मन वच काय निमित्तक उत्तम, तीन गुप्ति भव दुःख वारक।
ईर्या समिति आदि पंच हैं, पंच महाव्रत भी चारित।।
वृषभ वीर के सिवा त्रयोदश, चरित अन्य ने नहीं कहा।
परमेष्ठी जिनपती वीर को, सच्चरित्र को नमूं सदा।।७।।
पंचाचार भवोदधि तारक, तीर्थ महा मंगल उसको।
वंदू चारित युत सब यतिपति, निग्र्रंथों को भी नति हो।।
आत्माधीन सुखोदय वाली, लक्ष्मी अविनाशी अनुपम।
केवलदर्शन ज्ञान प्रकाशी, उज्जवल उसको इच्छुक हम।।८।।
यदि आगम प्रतिकूल चरित को, मैंने किया कराया है।
उससे अर्जित पाप नाश हों, चारित तप की महिमा से।।
इस चारित तप से ये अद्भुत, सात ऋद्धि निधि भी होवें।
स्व की निंदा करते मेरे, सब दुष्कृत मिथ्या होवें।।९।।
भव दुःख से भयभीत सदोदय, सुख के इच्छुक जो प्राणी।
मुक्ति के हैं निकट सुमतियुत, पाप शांतयुत ओजस्वी।।
मोक्षमहल की सीढ़ी सम यह, चारित उत्तम अतुल विशाल।
वे इस पर चढ़ मोक्षमहल में, पहुँचे रहें अनन्तों काल।।१०।।
भगवन् ! चारित भक्ति अरु, कायोत्सर्ग महान् ।
कर उसकी आलोचना, करना चहूँ प्रधान।।१।।
सम्यग्ज्ञान युक्त सम्यक् से, सहित सभी में श्रेष्ठ प्रधान।
मोक्ष मार्गमय कर्म निर्जरा, के फल रूप क्षमा आधार।।
पंच महाव्रत संयुत पंच, समिति अरु तीन गुप्ति से युक्त।
ज्ञान ध्यान के साधक समता से संयुत उत्तम चारित।।२।।
उस चरित्र को नितप्रति अर्चूं, पूजूं वंदूँ नमूं महान।
शुद्ध भाव से भक्ति करके, पाऊँ पंचम चरित प्रधान।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगति गमन हो समाधिमरणं, मम जिन गुण संपति होवे।।३।।