—त्रिभंगी छंद—
जय जय जिन श्रमणी, गुणमणि धरणी, नारि शिरोमणि सुरवंद्या।
जय रत्नत्रयधनि, परम तपस्विनि, स्वात्मचिंतवनि त्रय संध्या।।
मुनि सामाचारी, सर्व प्रकारी, पालनहारी अहर्निशी।
मैं पूूजूँ ध्याऊँ, तुम गुण गाऊँ, निजपद पाऊँ ऊर्ध्वदिशी।।१।।
—स्रग्विणी छंंद—
धन्य धन्या मही आर्यिकायें जहाँ।
मैं करूं मात! वंदामि तुमको यहाँ।।
आप सम्यक्त्व से शुद्ध निर्दोष हो।
शास्त्र के ज्ञान से पूर्ण उद्योत हो।।२।।
शुद्ध चारित्र संयम धरा आपने।
श्रेष्ठ बारह विधा तप चरा आपने।।धन्य.।।३।।
एक साड़ी परिग्रह रहा शेष है।
केश लुुंचन करो आर्यिका वेष है।।धन्य.।।४।।
आतपन आदि बहु योग को धारतीं।
क्रोध कामारि शत्रु सदा मारतीं।।।धन्य.।।५।।
अंग ग्यारह सभी ज्ञान को धारतीं।
मात! हो आप ही ज्ञान की भारती।।धन्य.।।६।।
भक्तजनवत्सला धर्म की मूर्ति हो।
जो जजें आपको आश की पूर्ति हो।।धन्य.।।७।।
मात ब्राह्मी प्रभृति चंदना साध्वियाँ।
अन्य भी जो हुई हैं महासाध्वियाँ।।धन्य.।।८।।
मात सीतासती सुलोचना द्रौपदी।
रामचंद्रादि इंद्रादि से वंद्य भी।।धन्य.।।९।।
चंद्र समकीर्ति उज्ज्वल दिशा व्यापती।
सूर्य सम तेज से पाप तम नाशतीं।।धन्य.।।१०।।
िंसधुसम आप गांभीर्य गुण से भरीं।
मेरु सम धैर्य भू-सम क्षमा गुण भरीं।।धन्य.।।११।।
बर्फ सम स्वच्छ शीतलवचन आपके।
श्रेष्ठ लज्जादि गुण यश कहें आपके।।
आप सम्यक्त्व से शुद्ध निर्दोष हो।
शास्त्र के ज्ञान से पूर्ण उद्योत हो।।१२।।
आर्यिका वेष से मुक्ति होवे नहीं।
संहनन श्रेष्ठ बिन कर्म नशते नहीं।।धन्य.।।१३।।
सोलवें स्वर्ग तक इंद्र पद को लहें।
फेर नर तन धरें साधु हों शिव लहें।।धन्य.।।१४।।
जैन सिद्धांत की मान्यता है यही।
संहनन श्रेष्ठ बिन शुक्ल ध्यानी नहीं।।धन्य.।।१५।।
अंबिके! आपके नाम की भक्ति से।
शील सम्यक्त्व संयम पलें शक्ति से।।धन्य.।।१६।।
आत्मगुण पूर्ति हेतू जजूँ मैं सदा।
नित्य वंदामि करके नमूँ मैं मुदा।।धन्य.।।१७।।
‘ज्ञानमति’ पूर्ण हो याचना एक ही।
अंब! पूरो अबे देर कीजे नहीं।।धन्य.।।१८।।
—घत्ता—
जय जय जिन साध्वी, समरस माध्वी, तुममें गुणमणि रत्न भरें।
तुम अतुलित महिमा, पुण्य सु गरिमा, हम पूजें निज सौख्य भरें।।१९।।
ॐ ह्रीं श्रीचतुर्विंशतितीर्थंकरसमवसरणस्थितगणिनीप्रमुखसर्वार्यिकाचरणेभ्य: जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
-शेर छंद-
जो भव्य गणिनी आर्यिका, की अर्चना करें।
वे सर्व सुगुण रत्न से, निज संपदा भरें।।
साक्षात् प्रभू दर्श करें, स्वात्म सुख भरें।
‘सज्ज्ञानमती’ से निजात्म, का दरश करें।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।