एक बार महामुनि भगवान महावीर कौशाम्बी में आहार के लिए आयेे। वहां के सेठ वृषभदत्त की पत्नी-भद्रा, सेठ के प्रति संदिग्ध दृष्टि होने से चन्दना को खाने के लिए मिट्टी के सकोरे में कांजी से मिश्रित कोदों का भात दिया करती थी और क्रोधवश उसे सांकल से बांधे रखती थी। किसी दिन उस कौशाम्बी नगरी में आहार के लिए भगवान् महावीर स्वामी आ गये। उन्हें देखकर चन्दना उनके सामने जाने लगी। उसी समय उसके सांकल के सब बन्धन टूट गये, उसके शिर पर केश आ गये, वस्त्र-आभूषण सुन्दर हो गये। शील के माहात्म्य से मिट्टी का सकोरा स्वर्ण पात्र और कोदों का भात चावल की खीर बन गया। उस चन्दना ने भगवान को पड़गाह कर नवधा भक्ति से आहारदान दिया। उसके वहाँ पंचाश्चर्यों की वर्षा हुई अनंतर अपने बंधुओं के साथ उसका समागम हो गया।
महासती चंदना का संक्षिप्त परिचय
सिन्धु नामक देश की वैशाली नगरी में चेटक नामका अतिशय प्रसिद्ध, विनीत और जिनेन्द्र देव का अतिशय भक्त राजा था। उसकी रानी का नाम सुभद्रा था। उनके दश पुत्र हुए जो कि धनदत्त, धनभद्र, उपेन्द्र, शिवदत्त, हरिदत्त, कम्बोज, कम्पन, पतंगक, प्रभंजन और प्रभास नाम से प्रसिद्ध थे तथा उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों के समान जान पड़ते थे। इन पुत्रों के सिवाए सात ऋद्धियों के समान सात पुत्रियां भी थीं। जिनमें सबसे बड़ी प्रियकारिणी थी, उससे छोटी मृगावती, उससे छोटी सुप्रभा, उससे छोटी प्रभावती, उससे छोटी चेलिनी, उससे छोटी ज्येष्ठा और सबसे छोटी चन्दना थी।विदेह देश के कुण्डपुर नगर में नाथवंश के शिरोमणि एवं तीनों सिद्धियों से सम्पन्न राजा सिद्धार्थ राज्य करते थे। पुण्य के प्रभाव से प्रियकारिणी उन्हीं की रानी हुई थीं। वत्सदेश की कौशाम्बी नगरी में चन्द्रवंशी राजा शतानीक रहते थे। मृगावती नाम की दूसरी पुत्री उनकी स्त्री हुई थी। दशार्ण देश के हेमकच्छ नामक नगर के स्वामी राजा दशरथ थे जो कि सूर्यवंशरूपी आकाश के चन्द्रमा के समान जान पड़ते थे। सूर्य की निर्मलप्रभा के समान सुप्रभा नाम की तीसरी पुत्री उनकी रानी हुई थी, कच्छ देश की रोरुका नामक नगरी में उदयन नाम का एक बड़ा राजा था। प्रभावती नामकी चैथी पुत्री उसी की हृदयवल्लभा हुई थी। अच्छी तरह शीलव्रत धारण करने से इसका दूसरा नाम शीलवती भी प्रसिद्ध हो गया था। पांचवी पुत्री चेलना राजगृही के राजा श्रेणिक की पट्टरानी हुई थीं तथा ज्येष्ठा और चंदना बालब्रह्मचारिणी थीं।
किसी एक समय वह चन्दना अपने परिवार के लोगों के साथ अशोक नामक वन में क्रीड़ा कर रही थी। उसी समय दैवयोग से विजयार्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी के सुवर्णाभ नगर का राजा मनोवेग विद्याधर अपनी मनोवेगा रानी के साथ स्वच्छन्द क्रीड़ा करता हुआ वहाँ से निकला और क्रीड़ा करती हुई चन्दना को देखकर काम के द्वारा छोड़े हुए बाणों से जर्जर शरीर हो गया। वह शीघ्र ही अपनी स्त्री को घर भेजकर रूपिणी विद्या से अपना दूसरा रूप बनाकर उसे सिंहासन पर बैठा आया और अशोक वन में आकर तथा चन्दना को लेकर शीघ्र ही वापिस चला गया। उधर मनोवेगा उसकी माया को जान गई जिससे क्रोध के कारण उसके नेत्र लाल होकर भयंकर दिखने लगे। उसने उस विद्या देवता को बाएं पैर की ठोकर देकर मार दिया जिससे वह अट्टहास करती हुई सिंहासन से उसी समय चली गई। तदनन्तर वह मनोवेगा रानी आलोकिनी नाम की विद्या से अपने पति की सब चेष्टा जानकर उसके पीछे दौड़ी और आधे मार्ग में चन्दना सहित लौटते हुए पति को देखकर बोली कि यदि आप अपना जीवन चाहते हो तो इसे छोड़ दो। इस प्रकार क्रोध से उसने उसे बहुत ही डाँटा। मनोवेग अपनी रानी से बहुत ही डर गया। इसलिए उसने हृदय में बहुत ही शोककर सिद्ध की हुई पर्णलघ्वी नामकी विद्या से उस चन्दना को भूतरमण नामक वन में ऐरावती नदी के दाहिने किनारे पर छोड़ दिया।
प॰चनमस्कार मंत्र का जप करने में तत्पर रहने वाली चन्दना ने वह रात्रि बड़े कष्ट से बिताई। प्रातःकाल जब सूर्य का उदय हुआ तब भाग्यवश एक कालक नामका भील वहां स्वयं आ पहुँचा। चन्दना ने उसे अपने बहुमूल्य देदीप्यमान आभूषण दिये और धर्म का उपदेश भी दिया जिससे वह भील बहुत ही संतुष्ट हुआ। वहीं कहीं भीमकूट नामक पर्वत के पास रहने वाला एक सिंह नाम का भीलों का राजा था, जो कि भयंकर नामक पल्ली का स्वामी था। उस कालक नामक भील ने वह चन्दना उसी सिंह राजा को सौंप दी। सिंह पापी था अतः चन्दना को देखकर उसका हृदय काम से मोहित हो गया। वह क्रूर ग्रह के समान निग्रह कर उसे अपने आधीन करने के लिए उद्यत हुआ। यह देख उसकी माता ने उसे समझाया कि हे पुत्र! तू ऐसा मत कर, यह प्रत्यच्छ देवता है, यदि कुपित हो गई तो कितने ही संताप, शाप और दुःख देने वाली होगी। इस प्रकार माता के कहने से डरकर उसने स्वयं दुष्ट होने पर भी वह चन्दना छोड़ दी। तदनन्तर चन्दना ने उस भील की माता के साथ निश्चिन्त होकर कुछ काल वहीं पर व्यतीत किया।
अथानन्तर-वत्स देश के कौशाम्बी नामक श्रेष्ठ नगर में एक वृषभसेन नाम का सेठ रहता था। उसका मित्रवीर नामका एक कर्मचारी था जो कि उस भीलराज का मित्र था। भीलों के राजा ने वह चन्दना उस मित्रवीर को दे दी और मित्रवीर ने भी बहुत भारी धन के साथ भक्तिपूर्वक वह चन्दना अपने सेठ के लिए सौंप दी। किसी एक दिन वह चन्दना उस सेठ को जल पिला रही थी उस समय उसके केशों का कलाप छूट गया था और जल से भीगा हुआ पृथिवी पर लटक रहा था। उसे वह बड़े यत्न से एक हाथ से संभाल रही थी। सेठ की स्त्री भद्रा नामक सेठानी ने जब चन्दना का रूप देखा तो वह शंका से भर गई। उसने मन में समझा कि हमारे पति का इसके साथ संपर्क है। ऐसा विचार कर वह बहुत ही कुपित हुई। क्रोध के कारण उसके ओंठ काँपने लगे। उस दुष्टा ने चन्दना को साँकल से बाँध दिया तथा खराब भोजन और ताड़न-मारण आदि के द्वारा वह उसे निरन्तर कष्ट पहुंचाने लगी परन्तु चन्दना यही विचार करती थी कि यह सब मेरे द्वारा किए हुए अशुभ-कर्म का फल है। यह बेचारी सेठानी क्या कर सकती है? ऐसा विचारकर वह निरन्तर आत्मनिन्दा करती रहती थी। उसने यह सब समाचार अपनी बड़ी बहिन मृगावती के लिए भी कहलाकर नहीं भेजे थे।
तदनन्तर किसी दूसरे दिन भगवान् महावीर स्वामी ने आहार के लिए उसी नगरी में प्रवेश किया। उन्हें देख चन्दना बड़ी भक्ति से आगे बढ़ी। आगे बढ़ते ही उसकी साँकल टूट गयी और आभरणों से उसका सब शरीर सुन्दर दिखने लगा। उन्हीं के भार से मानो उसने झुककर शिर से पृथिवी तल का स्पर्श किया, उन्हें नमस्कार किया और विधिपूर्वक पड़गाहन कर उन्हें आहार दिया। इस आहार दान के प्रभाव से वह मानिनी बहुत ही संतुष्ट हुई, देवों ने उसका सम्मान किया, रत्नधारा की वृष्टि की, सुगन्धित फूल बरसाए, देव-दुन्दुभियों का शब्द हुआ और दान की महिमा की घोषणा होने लगी सो ठीक ही है क्योंकि उत्कृष्ट पुण्य अपने बड़े भारी फल के साथ तत्काल ही फलते हैं।
तदनन्तर चन्दना की बड़ी बहिन मृगावती यह समाचार जानकर उसी समय अपने पुत्र उदयन के साथ उसके समीप आई और स्नेह से उसका आलिंगन कर पिछला समाचार पूछने लगी। तब वह पिछला समाचार सुनकर बहुत ही व्याकुल हुई। तदनन्तर रानी मृगावती उसे अपने घर ले जाकर सुखी हुई। यह देख भद्रा सेठानी और वृषभसेन सेठ दोनों ही भय से घबड़ाये और मृगावती के चरणों की शरण में आये। दयालु रानी ने उन दोनों से चन्दना के चरण-कमलों में प्रणाम कराया। चन्दना के क्षमा कर देने पर वे दोनों बहुत ही प्रसन्न हुए और कहने लगे कि यह मानो मूर्तिमती क्षमा ही है। इस समाचार के सुनने से उत्पन्न हुए स्नेह के कारण वैशाली से चंदना के भाई- बंधु भी उसके पास आ गये।कालांतर में चंदना ने भगवान महावीर के समवसरण में आर्यिका दीक्षा लेकर सभी आर्यिकाओं में गणिनीपद को प्राप्त किया है।