वह सिंह किसी समय एक हिरण को पकड़कर खा रहा था। उसी समय अतिशय दयालु ‘अजित॰जय’ और ‘अमितगुण’ नामक दो चारणऋद्धिधारी मुनि आकाशमार्ग से उतरकर उस सिंह के पास पहुंचे और शिलातल पर बैठकर जोर-जोर से उपदेश देने लगे। उन्होंने कहा कि ‘हे भव्य मृगराज! तू अर्धचक्री त्रिपृष्ठ के भव में पांचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन कर तृप्त नहीं हुआ तथा सम्यग्दर्शन से रहित होने के कारण तू नरक में चला गया, वहां अत्यन्त प्रचंड और लोहे के घनों की चोट से तेरा चूर्ण किया जाता था, इत्यादि दुःखों को भोगकर तू वहां से निकलकर सिंह हुआ पुनः हिंसा के पाप से मरकर नरक गया, वहां से निकलकर पुनः सिंह होकर हिंसा से रत है। तू ऋषभदेव के समय मरीचि के भव में तीर्थंकर वृृषभदेव के वचनों का अनादर कर त्रसस्थावर योनियों में असंख्यात वर्ष तक भ्रमण करता रहा। अब इस भव से दसवें भव में तू अन्तिम तीर्थंकर होगा। यह सब मैंने श्रीधर तीर्थंकर से सुना है। इन सब बातों को सुनते ही सिंह को जातिस्मरण हो गया। संसार के भयंकर दुःखों की स्मृति से उसका शरीर कांपने लगा तथा आंखों से अश्रु गिरने लगे। बहुत देर तक अश्रु गिरते रहने से ऐसा मालूम होता था कि मानों हृदय में सम्यक्त्व को स्थान देने की इच्छा से मिथ्यात्व ही बाहर निकल रहा है।उसकी शांत भावना को देखकर मुनि ने उसे सम्यक्त्व और अणुव्रत ग्रहण कराये। सिंह ने मुनिराज की भक्ति से बार-बार प्रदक्षिणाएं दीं, बार-बार प्रणाम किया और तत्काल ही काललब्धि के आ जाने से तत्त्वश्रद्धानपूर्वक श्रावक के व्रत ग्रहण किये। सिंह का मांसाहार के सिवाय और कोई आहार नहीं, अतः मांस का त्याग करने से उसने ‘‘निराहार व्रत’’ ग्रहण किया था।
सम्यग्दर्शन-सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और तत्वों का श्रद्धान करना।
अहिंसाणुव्रत-मनवचनकाय से किसी भी जीव को नहीं मारना।
सत्याणुव्रत-स्थूल झूठ नहीं बोलना।
अचैर्याणुव्रत-बिना दी हुई पर की वस्तु नहीं लेना।
ब्रह्मचर्याणुव्रत-अपनी स्त्री के सिवाय सबको माता, बहन समझना।
परिग्रह परिमाणाणुव्रत-धन-धान्य आदि परिग्रह का जीवन भर के लिए प्रमाण कर लेना।
तिर्यंचों के संयमासंयम के आगे व्रत नहीं हो सकते इसलिए वह देशव्रती कहलाया। वह सिंह सब कुछ त्याग कर शिलातल पर बेैठकर चित्रलिखित (पत्थर की मूर्ति) के समान हो गया था। चारण मुनि उसे शिक्षा देकर बार-बार उसका स्पर्श करते हुये चले गयेे।
महावीर चरित1 में लिखा है कि-
‘यह मरा हुआ है ऐसा समझ मदोन्मत्त हाथियों ने उसकी जटाओं को नष्ट कर दिया, डांस, मक्खी और मच्छरों ने मर्म स्थानों को काट डाला, लोमड़ी और श्रृगाल मृतक समझकर उस सिंह को तीक्ष्ण नखों के द्वारा नोंच-नोंच कर खाने लगे तो भी उस सिंह ने अपनी परम समाधि नहीं छोड़ी, क्षमा भाव से सब सहन करता रहा। पूर्वोक्त प्रकार से एक महीने तक निश्चल रहकर अनशन धारण कर पाप रहित हुआ प्राणों से शरीर को छोड़ा।’ इस प्रकार सन्यास विधि से मरा और शीघ्र ही सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु नाम का देव हो गया वहां दो सागर तक उत्तम सुख भोगे।
पुनः मरीचि कुमार के जीव की जैनेश्वरी दीक्षा-स्वर्ग से आकर, धातकीखंड द्वीप के पूर्व मेरु सम्बंधी पूर्व विदेह के मंगलावती देश के विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में कनकप्रभ नगर के राजा कनकपुंख विद्याधर और कनकमाला रानी के ‘कनकोज्जवल’ नाम का पुत्र हुआ। किसी दिन प्रियमित्र नाम के अवधिज्ञानी मुनि से दयामय जैनधर्म का उपदेश सुनकर दीक्षा ले ली। बहुत काल तक तपश्चरण करते हुये ‘कनकोज्जवल’ मुनिराज सन्यास विधि से मरकर सातवें स्वर्ग में देव हो गये। वहां के भोगों को भोगकर समाधिपूर्वक प्राण छोड़े और इसी अयोध्या के राजा वज्रसेन की रानी शीलवती ‘हरिषेण’ पुत्र हो गया। राज्य वैभव का अनुभव करके हरिषेण ने श्रुतसागर मुनि से दीक्षा ले ली। तपश्चरण के प्रभाव से महाशुक्र स्वर्ग में देव हो गये। वहां से चयकर धातकी खंड की पुंडरीकिणी नगरी के राजा सुमित्र की रानी मनोरमा से ‘प्रियमित्र’ नाम का पुत्र हो गया। यह प्रियमित्र चक्रवर्तीपद को प्राप्त हुआ, चक्ररत्न से छहखंड को जीतकर बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं से सेवित अठारह करोड़ घोड़े, चैरासी लाख हाथी, छ्यानवे हजार रानियों के वैभव का अनुभव करते हुये क्षेमंकर जिनेन्द्र धर्मोपदेश सुनकर दीक्षित हो गया। यह प्रियमित्र मुनि आयु के अंत में समाधिकपूव्रक मरण करके सहस्रार स्वर्ग में ‘सूर्यप्रभ’ नाम के देव हुये। वहां पर अठारह सागर तक दिव्य सुखों का अनुभव कर जम्बूद्वीप के छत्रपुर नगर के राजा नंदिवर्धन की वीरवती रानी से ‘नंद’ नाम का एक सज्जन पुत्र हुआ। यहां भी अभिलषित राज्य का उपभोग कर ‘प्रोष्ठिल’ नाम के श्रेष्ठ गुरु के पास दीक्षा ले ली और ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया।