वह सिंह सल्लेखना विधि से मरकर सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु नाम का देव हो गया। वहां उसकी आयु दो सागर प्रमाण थी। स्वर्ग में देव उपपादशय्या से सोलह वर्ष के नवयुवक के समान शरीर से परिपूर्ण होकर उठकर बैठ जाते हैं। तभी वहां वाद्यों की ध्वनि आदि से अन्य परिवार देवगण-देवांगना आदि आकर जय-जयकार करते हुये नव आगत देव का स्वागत करते हैं।वहां देव जन्म लेकर तत्क्षण सोचते हैं कि मैं यहाँ कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ ? इत्यादि सोचते ही उन्हें भवप्रत्यय नाम के अवधिज्ञान से सभी जानकारी मिल जाती है। इन सिंहकेतु देव ने भी जान लिया कि मैं सिंह की पर्याय में दिगंबर महामुनि के संबोद्दन से सम्यक्त्व और अणुव्रतों को प्राप्त कर समाधिपूर्वक मरण करके यहां प्रथम स्वर्ग में देवपद को प्राप्त हुआ हूँ। अनंतर अपने परिवार देवों का अवलोकन करके वस्त्राभरणों से अलंकृत हो अपने जिनमंदिर में गया, विधिवत् अभिषेक पूजन किया। कभी-कभी देव-देवांगनाओं के साथ सभा में नानाप्रकार की चर्चा किया करता था।
कभी-कभी वह देव अपने देव परिवार एवं देवांगनाओं के साथ मध्यलोक में आकर अनेक तीर्थों की वंदना किया करता था। कभी वह सिंहकेतु देव पंचमेरुओं की वंदना करके नंदीश्वर द्वीप में पहुंचकर बावन जिनमंदिरों की वंदना करने पहुंच जाता था।नंदीश्वर द्वीप-मध्यलोक में सर्वप्रथम द्वीप का नाम जंबूद्वीप है एवं आठवें द्वीप का नाम नंदीश्वर द्वीप है। वहां चारों दिशाओं में एक-एक अंजनगिरि पर्वत हैं। इस अंजनगिरि के चारों तरफ एक-एक विशाल बावड़ियां हैं ये बावड़ियां चैकोन हैं। इन प्रत्येक बावड़ियों के मध्य एक-एक ‘दधिमुख’ पर्वत हैं। इस प्रकार चार अंजनगिरि संबंद्दी चार-चार दधिमुख पर्वत होने से सोलह दधिमुख माने हैं।
इन बावड़ियों के बाहिरी कोनों पर दो-दो रतिकर पर्वत हैं ऐसे ये रतिकर बत्तीस हो गये हैं।
इस प्रकार चार अंजनगिरि, सोलह दधिमुख एवं बत्तीस रतिकर ऐसे 4$16$32=52 बावन पर्वतों पर एक-एक जिनमंदिर बने हुये हैं। ये अकृत्रिम जिनमंदिर हैं।
वह सिंहकेतु देव इन मंदिरों की वंदना किया करता था। इस प्रकार दो सागर की आयु पूर्ण कर वह देव वहां से च्युत होकर मध्यलोक में आ गया।