वहां पर महाशुक्र स्वर्ग में हरिषेणचर देव अपनी देवांगनाओं और देवपरिवार के साथ अनेक दिव्यसुखों का अनुभव करते रहते थे। कभी-कभी वे मध्यलोक में संयम की मूर्ति महामुनियों के दर्शनार्थ आ जाते थे, यहां आकर मुनियों की वंदना, भक्ति करके उनके प्रवचन सुनते थे अनेक प्रकार के प्रश्नों से जिनधर्म का विशेष ज्ञान प्राप्त करते थे। कभी-कभी वे मध्यलोक के 458 जिनमंदिरों की वंदना करते थे। कभी-कभी जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के हिमवान पर्वत पर आकर पद्मसरोवर आदि के कमलों की संुदरता देखते हुये ‘श्रीदेवी’ के महल में मंदिर का भी दर्शन करते थे। हिमवान पर्वत के ग्यारह कूटों में जो पूर्व दिशा का सिद्धकूट है वहां जाकर अकृत्रिम जिनमंदिर के जिन प्रतिमाओं की वंदना करते पुनः विजयार्ध पर्वत के नव कूटों में से जो पूर्व दिशा का एक सिद्धकूट है उसके जिनमंदिर की वंदना करके गंगा-सिंधु नदियों की रमणीयता देखते थे। जो भरतक्षेत्र की रचना है उसका अवलोकन करते हुये छह खण्डों का विभाजन एवं आर्यखंड में अयोध्या, सम्मेदशिखर जैसे शाश्वत तीर्थों की वंदना करके विजयार्ध के विद्याधरों की श्रेणियों में भी जो कृत्रिम जिनमंदिर हैं तथा वहां जो केवली, श्रुतकेवली, महामुनि आदि तत्काल में विद्यमान थे उनके दर्शन करके प्रसन्न होते थे।
देवों में सम्यग्दृष्टि देवों का तो यह स्वभाव ही मानना चाहिये कि मध्यलोक में आकर धर्मायतनों के दर्शन करना, तीर्थंकरों के समवसरण में जाना,अकृत्रिम-कृत्रिम जैन मंदिर और जिनप्र्रतिमाओं के दर्शन करना।जंबूद्वीप, धातकीखंड, पुष्करार्धद्वीप ऐसे ढ़ाई द्वीप के तथा नंदीश्वर द्वीप, कंुडलवर द्वीप और रुचकवर द्वीप के अकृत्रिम जिन मंदिरों की वंदना करना, सर्वत्र विक्रिया के बल से विचरण करते हुये भरतक्षेत्र आदि की संुदरता को देखना इत्यादि आनंद के लिये ही नहीं प्रत्युत् महान सातिशय पुण्यबंध के लिये भी कारण माने गये हैं।
वर्तमान में यह जंबूद्वीप नाम के प्रथम द्वीप की सुंदर भव्य आकर्षक रचना हस्तिनापुर तीर्थ क्षेत्र पर बनी हुई है। इसे देखकर आप सभी भव्यात्मा जंबूद्वीप की, भरतक्षेत्र की एवं विदेहक्षेत्र आदि की सुंदरता का अनुमान लगा सकते हैं। आज जो महानुभाव हस्तिनापुर पहुँचकर जम्बूद्वीप का दर्शन करते हैं उनके मुख से एकबार सहसा यह वाक्य निकलता है कि -‘अहो! हम तो स्वर्ग में आ गये! इससे अच्छा स्वर्ग भला और क्या होगा ?
जब कृत्रिम रचना को देखकर इतना आनंद होता है तब भला जो अकृत्रिम रचनाओं का साक्षात्कार करते होंगे उन्हें कितना आनंद प्राप्त होता होगा? वास्तव में देवगण ऐसे आनंद का अनुभव करते रहते हैं।इस प्रकार यह हरिषेणचर देव वहां दसवें स्वर्ग में सोलह सागर की आयुपर्यंत दिव्यसुखों का अनुभव करके अंत में वहां की आयुपूर्ण कर वहां से च्युत होकर मध्यलोक में आ गया।