धर्म तीर्थ व्युच्छित्ति-पुष्पदंत से लेकर धर्मनाथपर्यंत सात तीर्थों में जिनधर्म की व्युच्छित्ति हुई है, शेष सोलह तीर्थंकरों के तीर्थों में धर्म की परंपरा निरंतर रही है, अर्थात् पुष्पदंत भगवान के तीर्थ में पावपल्य, शीतलनाथ के तीर्थ में अर्द्धपल्य, श्रेयांसनाथ के तीर्थ में पौन पल्य, वासुपूज्य के तीर्थ में एक पल्य, विमलनाथ के तीर्थ में पौन पल्य, अनंतनाथ के तीर्थ में अर्द्धपल्य और धर्मनाथ के तीर्थ में पाव पल्य प्रमाण धर्मतीर्थ का उच्छेद रहा है। उस समय दीक्षा लेने वालों का अभाव होने से धर्मरूपी सूर्य अस्त हो गया था, हुंडावसर्पिणी के दोष से ये सात व्युच्छेद होते हैं।कुदान की प्रथा-श्री शीतलनाथ के तीर्थ के अंतिम भाग में कालदोष से वक्ता, श्रोता और आचरण करने वालों का अभाव हो जाने से समीचीन धर्म का नाश हो गया। मदिल देश में मलय देश का राजा मेघरथ कुछ दान देना चाहता था उसने कुमार्गगामी परंपरा से आगत आहार, औषध, अभय और शास्त्र दान को छोड़कर मुंहशालायन ब्राह्मण के द्वारा कहे हुए कन्यादान, हस्तिदान, सुवर्णदान, अश्वदान, गोदान, दासीदान, तिलदान, रथदान, भूमिदान और गृहदान यह दश प्रकार का दान स्वेच्छा से चलाया।हिंसा यज्ञ की उत्पत्ति-मुनिसुव्रतनाथ के मोक्ष जाने के बाद एक समय ‘क्षीरकदंब’ उपाध्याय के पास राजपुत्र वसु, गुरुपुत्र पर्वत और धर्मनिष्ठ श्रावक नारद इन तीनों ने विद्याध्ययन किया था। गुरु के दीक्षित होने के बाद किसी समय पर्वत ने सभा में कहा कि ‘अजैर्यष्टव्यं’ बकरों से होम करना चाहिए ऐसा अर्थ है तब नारद ने कहा ‘अज’ का अर्थ न उगने योग्य पुराने धान्य हैं उनसे यज्ञ करना चाहिए ऐसा गुरुदेव ने अर्थ किया था किंतु पर्वत ने अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा। अंत में राजा वसु के राजदरबार में निर्णय गया। वसु ने यथार्थ जानते हुये भी गुरुपत्नी पर्वत की माता से वचनबद्ध होने से पर्वत के हिंसामय वचनों को सत्य कह दिया, जिसके फलस्वरूप पृथ्वी में सिंहासन के धँसने से मरकर नरक गया। इधर पर्वत ने महाकाल नामक असुर की सहायता से यज्ञ में खूब हिंसा करायी और उसके फल से ये सब दुर्गति के पात्र हो गये किंतु नारद हिंसा का निषेध करने से स्वर्ग गया।
भगवान मुनिसुव्रत के तीर्थ में ही मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र हुए हैं। नेमिनाथ भगवान के समय उनके चचेरे बंधु श्रीकृष्ण नारायण हुए हैं।
तीर्थंकरों का अंतराल-भगवान ऋषभदेव के मोक्ष चले जाने के बाद पचास लाख करोड़ सागर बीत जाने पर अजितनाथ तीर्थंकर का जन्म हुआ था। इनकी आयु भी इसी अंतराल में शामिल थी।
आगे सर्वत्र अंतराल की संख्या में उन-उन तीर्थंकरों की आयु को सम्मिलित ही समझना।
श्री अजितनाथ तीर्थंकर के मोक्ष जाने के बाद तीस लाख करोड़ सागर बीत जाने पर संभवनाथ उत्पन्न हुए थे।
श्री संभवनाथ के बाद दश लाख करोड़ वर्ष का अंतराल बीत जाने पर अभिनंदननाथ अवतीर्ण हुए थे।
इनके बाद नौ लाख करोड़ सागर बीत जाने पर सुमतिनाथ उत्पन्न हुए थे।
इनके बाद नब्बे हजार करोड़ सागर बीत जाने पर पद्मप्रभ तीर्थंकर उत्पन्न हुए थे।
इनके अनंतर नौ हजार करोड़ सागर बीत जाने पर सुपाश्र्वनाथ उत्पन्न हुए थे।
अनंतर नौ सौ करोड़ सागर का अंतर बीत जाने पर चंद्रप्रभ जिनेन्द्र ने जन्म लिया था।
इसके पश्चात नब्बे करोड़ सागर का अंतर निकल जाने पर पुष्पदंत तीर्थंकर हुए हैं।
इनके बाद नौ करोड़ सागर का अंतर बीत जाने पर शीतलनाथ ने जन्म लिया है।
इन शीतलनाथ के अनंतर जब सौ सागर तथा छ्यासठ लाख छब्बीस हजार वर्ष कम एक सागर प्रमाण अंतराल निकल गया तब श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ है।
श्रेयांसनाथ के बाद जब चैवन सागर प्रमाण अंतर बीत चुका था और अंतिम पल्य के तृतीय भाग में जब धर्म की संतति का व्युच्छेद हो गया था तब वासुपूज्य का जन्म हुआ था।
इनके बाद जब तीस सागर वर्ष बीत गये और पल्य के अंतिम भाग में धर्म का विच्छेद हो गया था तब विमलनाथ का जन्म हुआ था।
विमलनाथ के मोक्ष चले जाने के बाद नौ सागर और पौन पल्य बीत जाने पर तथा अंतिम समय में धर्म का विच्छेद हो जाने पर श्री अनंतनाथ का जन्म हुआ था।
इनके बाद चार सागर प्रमाण काल बीत चुका और अंतिम पल्य का आधा भाग जब धर्म रहित हो गया तब धर्मनाथ का जन्म हुआ था।
धर्मनाथ के बाद पौन पल्य कम तीन सागर के बीत जाने पर तथा पाव पल्य तक धर्म का विच्छेद हो लेने पर श्री शांतिनाथ भगवान उत्पन्न हुए थे।
इनके बाद अर्धपल्य बीत जाने पर श्री कुंथुनाथ उत्पन्न हुए हैं।
इनके अनंतर एक हजार करोड़ वर्ष कम पल्य का चतुर्थ भाग बीत जाने पर श्री अरनाथ उत्पन्न हुए है।
इनके बाद एक हजार करोड़ वर्ष बीत जाने पर मल्लिनाथ उत्पन्न हुए हैं।
इनके बाद चैवन लाख वर्ष बीत जाने पर मुनिसुव्रतनाथ उत्पन्न हुए हैं।
इनके बाद साठ लाख वर्ष बीत जाने पर नमिनाथ उत्पन्न हुए हैं।
इनके बाद पाँच लाख वर्ष बीत जाने पर नेमिजिनेन्द्र उत्पन्न हुए हैं।
श्री नेमिनाथ भगवान के बाद तिरासी हजार सात सौ पचास वर्ष बीत जाने पर पाश्र्वनाथ जिनेन्द्र का जन्म हुआ है।
श्री पाश्र्वनाथ के बाद दो सौ पचास वर्ष बीत जाने पर श्री महावीर स्वामी उत्पन्न हुए थे। इनकी आयु भी इसी में शामिल1 थी।
तीर्थंकर के वर्ण-पद्मप्रभ, वासुपूज्य का रक्तवर्ण, चन्द्रप्रभ और पुष्पदंत का श्वेतवर्ण, सुपाश्र्व और पाश्र्व का हरितवर्ण, नेमिनाथ और मुनिसुव्रत का नीलवर्ण एवं शेष सोलह तीर्थंकर का स्वर्ण वर्ण है।बालयति-वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पाश्र्वनाथ और वर्द्धमान ये पाँच तीर्थंकर बाल ब्रह्मचारी रहे हैं। शेष उन्नीस तीर्थंकर विवाहित होकर राज्य करके दीक्षित हुए हैं।वंश-वीर प्रभु नाथवंशी, पाश्र्वजिन उग्रवंशी, मुनिसुव्रत और नेमिनाथ हरिवंशी, धर्मनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ कुरुवंशी और शेष सत्तरह तीर्थंकर इक्ष्वाकुवंश में हुए हैं।रत्नवृष्टि-समस्त तीर्थंकरों की आदि पारणाओं और वर्धमान स्वामी की सभी पारणाओं मंें नियम से रत्नवृष्टि हुआ करती थी। वह रत्नवृष्टि उत्कृष्टता से साढ़े बारह करोड़ और जघन्य रूप से साढ़े बारह लाख होती थी। इनमें से कितनेे ही दाता तो तपश्चरण कर उसी जन्म से मोक्ष चले गये और कितने ही जिनेन्द्र भगवान के मोक्ष जाने के बाद तीसरे भव में मोक्ष गये हैं।केवलज्ञान उत्पत्ति के समय उपवास-ऋषभदेव, मल्लिनाथ, और पाश्र्वनाथ को तेला के बाद, वासुपूज्य को एक उपवास के बाद और शेष तीर्थंकरों को बेला के बाद केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है।
केवलज्ञान उत्पत्ति के स्थान-ऋषभनाथ को पूर्वताल नगर के शकटमुख वन में, नेमिनाथ को गिरनार पर्वत पर, पाश्र्वनाथ को आश्रम के समीप, भगवान महावीर को ऋजुकूला नदी के तट पर और शेष तीर्थंकरों को अपने-अपनेे नगर के उद्यानों में ही केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है।प्रत्येक तीर्थंकरों ने जिस वृक्ष के नीचे दीक्षा ली है उसी वृक्ष के नीचे उन्हें केवलज्ञान हुआ है ऐसा उल्लेख है।मुक्ति प्राप्ति के आसन-ऋषभनाथ, वासुपूज्य और नेमिनाथ पर्यंक आसन से तथा शेष तीर्थंकर कायोत्सर्ग आसन से स्थित हो मोक्ष गए हैं।योग निरोध काल-ऋषभदेव ने मुक्ति के पूर्व चैदह दिन तक योग निरोध किया। महावीर स्वामी ने दो दिन और शेष तीर्थंकरों ने एक-एक मास तक योग निरोध किया है।वीर भगवान के निर्वाण होने के पश्चात् तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष काल के व्यतीत होने पर ‘दुषमा’ नामक पंचम काल प्रवेश करता है।
अनुबद्ध केवली-जिस दिन महावीर भगवान सिद्ध हुए उसी दिन गौतम गणधर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। गौतम स्वामी के मुक्ति जाने के दिन श्री सुधर्म स्वामी केवली हुए और इनके मोक्ष जाने के दिन जंबूस्वामी केवली हुए। जंबूस्वामी के सिद्ध होने पर फिर कोई अनुबद्ध केवली नहीं हुए। गौतम स्वामी से लेकर जंबूस्वामी तक काल 62 वर्ष प्रमाण है।
श्रुतकेवली-नंदी, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु ये पाँच द्वादशांग ज्ञान के धारी श्रुतकेवली हुए हैं। इनका काल 100 वर्ष प्रमाण है। अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहु से दीक्षित, मुकुटधरोें में अंतिम चन्द्रगुप्त सम्राट ने जिन दीक्षा ली थी, इसके बाद मुकुटबद्ध राजा मुनि नहीं हुए।दशपूर्वी-विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह आचार्य ग्यारह अंग और दश पूर्व के धारी ‘दशपूर्वी’ कहलाये। इनका काल 183 वर्ष है।ग्यारह अंगधारी-नक्षत्राचार्य, जयपाल, पांडु, धु्रवसेन और कंसार्य ये पाँच मुनि ग्यारह अंगधारी हुए हैं। इनका काल 220 वर्ष है।आचारांग धारी-सुभद्राचार्य , यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चार आचार्य एक आचारांग मात्र के धारी हुए हैं। इनका काल 118 वर्ष है। गौतम स्वामी से लेकर लोहाचार्य तक 63$100$183$220$118=683 वर्ष में अंगधारी हुए हैं। इनके बाद इस भरत क्षेत्र में भी आचार्य अंग पूर्व के धारक नहीं हुए हैं। उनके अंशों के जानने वाले अवश्य हुए हैं।
जो श्रुततीर्थ, धर्म की प्रवृत्ति में कारण है वह श्रुतपरंपरा बीस हजार तीन सौ सत्तरह (20317) वर्षों तक यहाँ चलती रहेगी। अनंतर पंचम काल के अंत मेें व्युच्छेद को प्राप्त हो जावेगी। इतने मात्र समय में प्रायः चातुर्वण्र्य संघ जन्मेे लेता रहेगा।2 अर्थात् उपर्युक्त 683$20317=21000 वर्ष तक धर्मतीर्थ परंपरा अव्युच्छिन्न रहेगी। तात्पर्य यह हुआ कि पंचम काल के अंत तक धर्म व चतुर्विध संघ विद्यमान रहेगा।राज्य परंपरा-वीर प्रभु के निर्वाण के बाद ‘पालक’ नामक अवन्ति सुत का राज्याभिषेक हुआ। पालक का 60 वर्ष , विजय वंशियों का 155 वर्ष, मुरुंडवंशियों का 40, पुण्यमित्र का 30, वसुमित्र-अग्निमित्र का 60, गंधर्व का 100, नरवाहन का 40, भृत्य-आंध्रों का 242, गुप्तवंशियों का 231 वर्ष प्रमाण राज्य काल रहा है पश्चात् इंद्र का सुत कल्की उत्पन्न हुआ, इसका नाम चतुर्मुख, आयु 70 वर्ष और राज्यकाल 42 वर्ष रहा। श्री वीरप्रभु के सिद्ध होने के बाद छह सौ पाँच वर्ष और पाँच माह व्यतीत होने पर ‘विक्रम’ नामक शक राजा हुए हैं। उनके बाद तीन सौ चैरानवे वर्ष, सात माह व्यतीत होने पर प्रथम कल्की हुआ है।’’
आचारांगधरों के 275 वर्ष पश्चात् कल्की राजा को पट्ट बांधा गया। 683$275$42=1000 वर्ष। उस कल्की ने श्रमण साधु से प्रथम ग्रास को शुल्क रूप में माँगा तब मुनि ‘यह अंतरायों का काल है’’ ऐसा समझकर निराहार चले गये, उस समय उनमें से किसी एक को अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया, तब कोई असुरदेव ने अवधिज्ञान से मुनिगणों के उपसर्ग को जानकर, उसे धर्म द्रोही मानकर उस कल्की को मार डाला पुनः अजितंजय नाम के उसके पुत्र ने ‘मेरी रक्षा करो’ ऐसा कहकर उस देव के चरणों में नमस्कार किया और उस देव ने ‘धर्म पूर्वक राज्य करो’ ऐसा कहकर उसकी रक्षा की और वह जैन धर्मी बन गया।ऐसा हजार-हजार वर्ष में एक-एक कल्की और पाँच सौ, पाँच सौ वर्षों के पश्चात् उनके बीच-बीच में एक-एक उपकल्की होते हैं। प्रत्येक कल्की के समय पंचम कालवर्ती एक-एक साधु को अवधिज्ञान प्राप्त होता है और उस समय चातुर्वण्र्य संघ अल्प हो जाते हैं।
पंचम काल के अंत समय जलमंथन नामा अंतिम कल्की होगा, उस समय ‘वीरांगज’ नाम के मुनि, ‘सर्वश्री आर्यिका, अग्निल श्रावक और पंगुश्री श्राविका होंगी। अंतिम कल्की मुनिराज के आहार का प्रथम ग्रास शुल्क रूप में माँगेगा तब मुनि उसे देकर अंतराय करके वापस जाकर अवधिज्ञान को प्राप्त करके आर्यिका, श्रावक और श्राविका को बुलाकर कहेंगे कि अब पंचम काल का अंत आ चुका है, हमारी और तुम्हारी तीन दिन की आयु शेष है। चारों सल्लेखना से मरण करके सौधर्म स्वर्ग जायेंगे और कुमार देव द्वारा मार दिये जाने पर वह कल्की नरक जायेगा। प्रातःकाल धर्म का नाश, मध्याõ में राजा का नाश और सूर्यास्त समय अग्नि का अभाव हो जावेगा।
छठा काल-पश्चात् तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष के बीत जाने पर महाविषम दुषमा-दुषमा नाम का छठा काल प्रविष्ट होगा। उस समय मनुष्यों की ऊँचाई तीन हाथ से एक हाथ तक, आयु बीस से सोलह वर्ष तक होगी। वे कंदमूल, फल, मत्स्य माँसादि खायेंगे, नंगे वनों में विचरेंगे। अंधे, गूंगे, बधिर, कुरूप आदि होंगे। नरक और तिर्य´्चगति से आयेंगे और इन्हीं दो गतियों में जायेंगे।
उनचास दिन कम इक्कीस हजार वर्ष के बीतने पर संवर्तक नामक वायु से महा प्रलय होगा। उस समय बहत्तर युगल और भी संख्यात जीवों को देव विद्याधर दया से विजयार्ध की गुफा आदि में सुरक्षित रखेंगे। यहाँ 49 दिन तक बर्फ, क्षार, विष, अग्नि आदि की वर्षा से सब पर्वत आदि समाप्त होकर एक योजन तक पृथ्वी जल जावेगी।
अनंतर उत्सर्पिणी काल प्रवेश करेगा। तब जल, दूध, घृत और अमृत की वर्षा होकर पृथ्वी अच्छी हो जावेगी। ये युगल जीव गुफाओं से निकलेंगे। धीरे-धीरे आयु, ऊँचाई, बल आदि बढ़ते-बढ़ते इक्कीस हजार वर्ष समाप्त होकर द्वितीय काल प्रवेश करेगा। इसके हजार वर्ष शेष रहने पर अर्थात् बीस हजार वर्ष बीत जाने पर कुलकरों की उत्पत्ति होगी पुनः अंतिम कुलकर से श्रेणिक का जीव ‘महापद्म’ नाम का तीर्थंकर होगा तब से पुनः धर्म की परंपरा चलेगी।
इस प्रकार भरत क्षेत्र में यह काल परिवर्तन चलता रहता है।