-लेखक-स्व.पं. सुमेरचंद्र जैन दिवाकर
भव्यात्माओं! 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर के जीवन पर दिगम्बर जैन समाज के आगमनिष्ठ वरिष्ठ विद्वान पण्डितप्रवर जी सुमेरुचन्द्र दिवाकर (ठण्।ण्स्ण्स्ण्ठ) सिवनी-म.प्र. द्वारा लिखित सन् 1968 में प्रकाशित ‘‘महाश्रमण महावीर’’ नामक ग्रंथ (450 पृष्ठों का) अत्यन्त सुन्दर पठनीय एवं मननीय है। उसी ग्रंथ का कुछ प्रकरण यहाँ पाठकां के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है-सम्पादक
कुण्डपुर का भाग्य– ऋषभनाथ आदि तीर्थंकरों के स्वर्गावतरण के समय जिस प्रकार नभोमंडल से वैभव और विभूति की विपुल वृष्टि द्वारा दारिदî का दुःख जनता को नहीं उठाना पड़ा था, ऐसा ही सौभाग्य विदेह देश के कुण्डपुर वासियों को प्राप्त हुआ था, जब चैबीसवें तीर्थंकर की अवतरण बेला आई थी। कुण्डपुर अत्यन्त समृद्ध नगर था।
हरिवंशपुराण में उसे सुख रूपी जल से परिपूर्ण कुण्ड तुल्य कहा हैः-
सुखांभः कुंडमाभाति नाम्ना कुंडपुरं पुरम्।।5-सर्ग2।।
कुण्डलपुर-तिलोय पण्णत्ति में कुंडलपुर नाम आया हैः-
सिद्धत्थराय-पियकारिणीहिं णयरम्मि कुंडले वीरो।
उत्तर-फग्गुणिरिक्खे वित्तसिया-तेरसीए उप्पण्णो।। 549-4।।
इस प्रकार भगवान के स्वर्ग से अवतार लेने का स्थान कुंडपुर अथवा कुण्डलपुर आगम में बताया गया है। देश का नाम विदेह कहा गया है।
कुण्डलपुर जिस विदेह देश का अंग था, उसके विषय में हरिवंशपुराण में लिखा हैः
अथ देशोस्ति विस्तारी जंबूद्वीपस्य भारते।
विदेह इति विख्यातः स्वर्गखंडसमः श्रियः।।1-सर्ग2।।
जम्बूद्वीप के भारत वर्ष में विस्तार युक्त विदेह नाम का संदेश है, जो लक्ष्मी से स्वर्ग के खण्ड समान शोभायान होता था।
विदेह देश का कथन वर्धमान चरित्र में आया है, जहां कुण्डपुर नगर था।
श्रीमानथेह भरते स्वयमस्ति धात्र्या। पुंजीकृतो निज इवाखिलकांतिसारः।।
नाम्ना विदेह इति दिग्वलये समस्ते। ख्यातः परं जनपदः पदमुन्नतानाम्।।1-सर्ग 17।।
इस भरत क्षेत्र में संपूर्ण दिग्मंडल में प्रसिद्ध, सत्पुरुषों की उत्कृष्ट निवास भूमि विदेह नाम का देश है, जो संपत्ति से परिपूर्ण था तथा जो स्वयं एकत्रीभूत संपूर्ण कांति का उत्कृष्ट समुदाय रूप शोभायमान था। उस विदेह में विश्व विख्यात कुण्डपुर नगर था ‘‘ख्यातं पुरं जगति कंुड-पुराभिधानं’’ (7-7)
उत्तरपुराण में भी कुण्डपुर को विदेह देश स्थित बताया है। कुंडपुर के राजा सिद्धार्थ के राज भवन के प्रांगण में प्रतिदिन साढ़े तीन करोड़ रत्नों की वर्षा होती थी। ग्रंथकार के शब्द हैंः-
तस्मिन् षणमास – शेषायुष्या – नाकादागमिष्यति। भरतेऽस्मिन् विदेहाख्ये विषये भवनांगणे।।251।।
राज्ञःकुंडपुरेशस्य वसु-धाराप तत्पृथु। सप्तकोटिमणीः साद्र्धा सिद्धार्थस्य दिनं प्रति।।252 पर्व 74।।
जब अच्युतेन्द्र की आयु छह महिने शेष रह गई और वह स्वर्ग से अवतार लेने के सन्मुख हुआ तब इसी भरत क्षेत्र के विदेहदेश में कुंडपुर नगर के राजा सिद्धार्थ के भवन के प्रांगण में प्रतिदिन साढ़े तीन करोड़ मणियों की वर्षा होने लगी थी।वैदिक काल के प्रारम्भ में आर्य लोग छोटे-छोटे राज्यों को जानते थे। जिसे अभी बिहार कहते हैं, उसमें कारुष, मगध, अंग, वैशाली आदि अनेक देश समाविष्ट थे। आर्यों और वैदिक साहित्य का प्रथम प्रवेश विदेह या उत्तर बिहार में हुआ होगा। यह विदेह नाम ब्राह्मण तथा उपनिषद् साहित्य में सर्व प्रथम दृष्टिगोचर होता है। अंग तथा मगध ये नाम प्राचीन वैदिक साहित्य में प्राप्त होते हैं। वर्तमान तिरहुत डिवीजन में विदेह अंतर्भूत है। विदेह की राजधानी मिथिला थी। वह नेपाल की तराई में विद्यमान जनकपुरी मानी जाती है। कुछ समय के अनंतर दक्षिण विदेह ने स्वतंत्र राज्य का स्वरूप प्राप्त कर लिया। उसकी राजधानी वैशाली हो गई, जो मुजफ्फरपुर से तेवीस मील पर स्थित है।’’1 (पृष्ठ 51)
1शक्ति-संगम-तंत्र नाम की 18वीं शताब्दी की रचना में शैवों की तीर्थयात्रा के योग्य 66 देशों के नाम दिए हैं, उनमें लिखा है, ‘‘गंडक नदी के तट से लेकर चंपारण्य पर्यन्त का स्थान विदेह अथवा तिरुभुक्ति कहा जाता था। उसके पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण में कोसी, गंडक तथा गंगा ये तीन बड़ी नदियां है तथा हिमालय की तराई उत्तर की ओर है। इस क्षेत्र में मुजफ्फरपुर, दरभंगा, चंपारन, मुंगेर तथा पुरनिया ये वर्तमान जिले शामिल होते हैं। (पृ. 55)
इस विश्रुत विदेह देश के कुण्डपुर में त्रिशलानन्दन का अवतरण हुआ था। कुछ लोग कुण्डपुर को वैशाली नगरी का एक अंश कहते हैं। वे मुजफ्फरपुर जिले के हाजीपुर सब-डिवीजन में स्थित बसाढ को वैशाली मानते हैं और उसके अन्तर्गत वर्तमान वासुकुण्ड को कुण्डग्राम कहते हैं।दिगम्बर जैन आगम में महावीर का नहीं, उनकी जननी प्रियकारिणीµ त्रिशला का भी वैशाली से सम्बन्ध पाया जाता है। हरिषेणाचार्यकृत वृहत्कथाकोष में लिखा है किः-
वज्रविदे देशे विशाली नगरी नृपः, अस्यां केकोस्य भार्यासीत् यशोमतिरिनप्रभा।।165।।
विशाली नगरी वज्र देश में कही गई है। वहाँ के राजा केक और उनकी रानी यशोमति थी। उनका पुत्र चेटक था। ‘अभूत! साधुकृतानंदश्चेटकाख्यः सुतोऽनयोः’। उनकी पत्नी का नाम सुभद्रा था। उनकी सुरूप संपन्न सात पुत्रियां हुईं।
भद्रभावा सुभद्रास्य वभूव वनितोत्तमा। अस्या दुहितरः सप्त बभूवु रूपराजिताः।।167।।
उनमें सबसे बड़ी कन्या प्रियकारिणी थी। शेष के नाम सुप्रभा, प्रभावती, प्रियावती, ज्येष्ठा, चेलना तथा चंदना थे।
तन्मध्ये प्रथमाप्रोक्ता परमा प्रियकारिणी। द्वितीया सुप्रभाज्ञेया तृतीया च प्रभावती।।168।।
प्रियावती चतुर्थी स्यात् सुज्येष्ठा पंचमी परा। षष्ठी च चेलना दिव्या सप्तमी चंदना मता।।169।।
वे सातों ही पुत्रियाँ स्वर्ग लोक से चलकर आई थीं। उनका चरित्र विद्वानों के चित्त को हरण करेगाः-
त्रिदिवादवतीर्णानां सप्तानामपि पुण्यतः।
भविष्यंति चरित्राणि बुधचित्तहराणि वै।।170।। पृ. 83।।
वैशाली का वैभव: – वैशालीपुरी अत्यन्त समृद्ध थी। उसके तीन भाग थे। प्रथम भाग में सात हजार सोने के गुम्बद वाले भवन थे। मध्य में 14 हजार चाँदी के शिखरयुक्त घर थे और अंतिम भाग में 21 हजार ताँबे के गुम्बद वाले भवन थे। (स्पमि व िठनककीं पृष्ठ 62)
श्वेताम्बर साहित्य में भगवान को वैशालीय और वैशालिक कहा है (भगवती सूत्र पृ. 231) ऐसे श्वे. शास्त्रीय उल्लेखों ने अनेक जैनेतर लेखकों तथा विद्वानों को यह कल्पना करने में सहायता दी कि भगवान का जन्म वैशाली में होना चाहिए। इस विषय में शासन का सहयोग मिलने से वैशाली को जन्म स्थान मानने की विशिष्ट परिस्थिति मजबूत बन रही है।
बिहार शासन के द्वारा प्रकाशित ‘वैशाली’ अंग्रेजी रचना से ज्ञात होता है कि मार्च 1945 से प्रति वर्ष वैशाली महोत्सव का मनाना प्रारम्भ हो गया है। उस रचना में महावीर भगवान को वैशाली का नागरिक कहा है।1 इस प्रकार सर्वत्र यह प्रचार हो गया है कि भगवान वैशालेय थे।
भगवान की माता अवश्य विशाला पुरी की पुत्री थीं, किन्तु दिगम्बर आगमानुसार भगवान का जन्म स्थान कुण्डपुर नगर था।
यह सुभाषित गंभीर तथा अर्थपूर्ण है।:-
उत्तमा आत्मना ख्याताः पितुः ख्याताश्च मध्यमाः।
अधमा मातुलात्ख्याताः श्वशुराच्चाधमाधमाः।।
उत्तम पुरुष अपने गुणों के कारण प्रसिद्ध होते हैं। मध्यम पुरुष पिता के कारण प्रसिद्धि पाते हैं, अधम श्रेणी के व्यक्ति अपने मामा के कारण विख्यात होते हैं। अपने श्वशुर के कारण जो प्रतिष्ठा पाते हैं वे महा अधम श्रेणी के व्यक्ति हैं।तीर्थंकर श्रेष्ठों में भी श्रेष्ठ पुरुष होते हैं। उनका जन्म स्थान ही पूज्य नहीं होता, वह काल भी मंगल हो जाता है, जब उनके पंचकल्याणक हुए हों। ऐसी स्थिति में महावीर भगवान की कुण्डपुरवासी होने से भी प्रसिद्धि नहीं थी, उनके कारण उस स्थान को गौरव मिला। मान सरोवर के कारण हंस को गौरव नहीं मिलता है, हंस के कारण मानसरोवर सन्मान का पात्र बनता है2 हंस जहाँ भी रहता है, वही स्थल महत्वपूर्ण बनता है।वंश-परंपरा µ भगवान महावीर के पिता महाराज सिद्धार्थ राजा थे तथा भगवान राजपुत्र थे। भगवान का मातृपक्ष भी राजवंश था। इस प्रकार जाति तथा कुल की दृष्टि से वे महान थे। भगवान के पितामह का नाम था सर्वार्थ तथा सर्वार्थ महाराज की महारानी का नाम श्रीमती था। हरिवंशपुराण में लिखा है:
सर्वार्थ-श्रीमती-जन्मा तस्मिन् सर्वार्थदर्शनः।
सिद्धार्थोऽभवदर्काभो भूपः सिद्धार्थ-पौरुषः।।13-2।।
कुण्डपुर के स्वामी राजा सर्वार्थ तथा रानी श्रीमती से उत्पन्न समस्त पदार्थों का दर्शन करने वाला, सूर्य के समान तेजस्वी तथा समस्त पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाला राजा सिद्धार्थ था। सिद्धार्थ राजा आदर्श शासक थे। जिनसेन आचार्य कहते हैं।
यत्र पाति धरित्रीय – मभूदेकत्र – दोषिणी।
धर्मार्थिन्योपि यत्र्यक्त-परलोकभयाः प्रजा।।14-2।।
जिस समय सिद्धार्थ नरेश ने पृथ्वी की रक्षा की थी, उस समय प्रजा में कोई दोष नहीं था, हाँ! एक दोष अवश्य था, कि प्रजा परलोक से डरती थी अर्थात् वह आगामी जीवन सुधार के विषय में पूर्ण सावधान थी।
महाकवि के ये शब्द यथार्थ और महत्वपूर्ण हैं
कस्तस्य तान् गुणानुद्यान्नारस्तुलयिंतु क्षमः।
वर्धमान-गुरुत्वं यः प्रापितः स नराधिपः।।15-2।।
ऐसी सामथ्र्य किस पुरुष में है जो राजा सिद्धार्थ के उन्नत गुणों की तुलना कर सके, क्योंकि अपने गुणों की महिमा से राजा सिद्धार्थ त्रिलोकीनाथ वर्धमान महावीर के पिता बन गए थे। त्रिशलादेवी के पिता चेटक समृद्ध नरेश थे।भगवान के पिता का हृदय उस क्षण के लिए अत्यंत उत्कण्ठित था कि अब महारानी प्रियकारिणी की कुक्षि से प्रसूत त्रिलोक में अद्वितीय तीर्थंकर स्वरूप पुत्र रत्न का अपने नेत्रों द्वारा दर्शन कर अपने जीवन को कृतार्थ करूं। कुण्डलपुर की जनता भी उस बेला की प्रतीक्षा करती थी जब दया के देवता, पवित्रता की साकार मूर्ति, अप्रतिम पुण्य की विभूति से समलंकृत बाल जिनेन्द्र का मांगलिक जन्मोत्सव होगा।धीरे-धीरे वह चिरस्मरणीय पवित्र दिवस आ गया जिसे चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के नाम से भव्य जीवन कालमंगल मानकर अत्यन्त आदर भाव से स्मरण करते हैं।