-उमेशचन्द्र जैन, फिरोजाबाद
हमारे दिगम्बर जैन समाज की यह मान्यता ही नहीं अपितु अटूट आस्था है कि हमारी जिनवाणी का हर कथन और प्रत्येक शब्द चाहे वह सिद्धान्त विषयक हो या फिर व्याकरण, न्यायशास्त्र, या त्रिषष्ठिशलाका पुरुषों के जीवन चरित्र के रूप में हो, वह पूर्णतः अर्हन्तप्रभु, सर्वज्ञ केवली भगवन्तों का ही कथन है। समवसरण में सर्वज्ञ प्रणीत कहे गये यह शब्द क्रमशः गणधर देवों, श्रुतकेवलियों और अंगधारक उन महान आचार्यों से प्राप्त होने वाले ज्ञानाधार से ग्रहणकर हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा लिपिबद्ध किये गये हैं और यही ज्ञानाधार सदियों से जिन परम्परा में जिनवाणी या जिनागम कहलाता है। भगवान महावीर के निर्वाण को आज 25 सौ वर्षों से भी अधिक समय पूर्ण होने जा रहा है। इन ढाई हजार वर्षों से हमारी श्रद्धा, आस्था पूर्वाचार्यों के कथन से जुड़ी रही है। जब किसी सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण या अन्य कथानकों, विषयों पर अगर हम डगमगाए या दिशाभ्रमित हुए, तब-तब हमें हमारी इस जिनवाणी से ही समाधान प्राप्त होता रहा है। हजारों हजार वर्षों से यह जिनवाणी ही हमारी मार्गदर्शक रही है, इस जिनवाणी के महत्व का वर्णन करते हुए आचार्य पद्मनंदी जी ने कहा है-
सम्प्रत्यस्ति न केवली कल कलौ त्रैलोक्य चूड़ामणि,
स्तव्दाचः परमासतेऽत्र भरतक्षेत्रै जगद्योतिका।
सदरत्नत्रय धारिणो यतिवरा स्तेषां समालम्बनं,
तत्पूजा जिनवाचि पूजनमतः साक्षाज्जिनः पूजितः।।
अर्थात् इस वर्तमान काल में हमारे क्षीण पुण्य के कारण हमें साक्षात् अर्हन्त केवली भगवन्तों का चरण सानिध्य प्राप्त नहीं है, किन्तु उनकी वाणी आज भी हमारे इस भरत क्षेत्र को आलोकित किये हुए है। इस जिनवाणी के कारण ही तो यह रत्नत्रय धारक मुनिराज हमारे बीच में विद्यमान हैं, इन रत्नत्रय धारक मुनिराजों का पूजन ही जिनवाणी का पूजन है, और जिनवाणी का पूजन ही साक्षात् अर्हन्तों का पूजन है। जिनवाणी के प्रति विश्वास का यह अटल और अटूट रिश्ता ही विश्व भर में संख्या में नगण्य इस जैन वीतराग संस्कृति को जीवंत किये हुए है। अपनी शोधपूर्ण दर्शन धारा के चलते ही वीतराग जैन दर्शन को विश्व की अन्य दर्शन धाराओं पर श्रेष्ठता प्राप्त है।
सर्वज्ञ प्रणीत इस वीतराग जैन चिन्तन की मान्यता है कि इस अनंत संसार सागर में प्रत्येक जीव पुरुषार्थ से स्वयं के कर्मबंधों को नष्ट कर इस भव सागर से मुक्त हो सकता है। नियम है कि मोक्षमार्ग का यह पुरुषार्थ भव्यजीव कर्मभूमियों में ही कर पाता है। ऐसे पुण्यशाली पुरुषार्थी जीव कर्मभूमि में उत्तम कुल परिवार में मनुष्य (पुरुष) जन्म लेकर अपना लक्ष्य (मोक्ष) प्राप्त करते हैं। जिन कर्मभूमियों से उन भव्यात्माओं के मोक्षद्वार खुलते हैं, जिनागम में ऐसी यह पंद्रह कर्मभूमियाँ ढाईद्वीपों में वर्णित हैं। इन ढाई द्वीपों में यह कर्मभूमियाँ क्रमशः पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच विदेह क्षेत्रों के नाम से जानी जाती हैं। पाँच विदेहक्षेत्रों में काल आदि की सदैव अपरिवर्तित स्थिति रहती है और यहाँ मोक्षमार्ग सदैव सर्वकाल नियमित रहता है, इसके विपरीत पाँच भरत और पांच ऐरावत क्षेत्रों में कालचक्र समान रूप से परिवर्तन-शील है। इन क्षेत्रों के काल परिवर्तन के छः विभाजन कालों में से एक विशेष कालखंड में भव्य पुण्यात्मा जीव अपनी संयम साधना से अपना लक्ष्य (मोक्ष) प्राप्त करते हैं। उस काल विशेष में प्राणियों की शरीर संरचना, संहनन, संस्थान आदि सब कुछ विशेष होते हैं। भरत-ऐरावत के इन सभी दशों क्षेत्रों में उस कालविशेष में जहाँ अनन्त जीव अपने कर्मबंधों को काटकर मोक्षगामी बनते हैं वही इन दश क्षेत्रों में उसकाल में त्रेषठ विशिष्ठ शलाका पुरुषों का जन्म होता है। इन त्रिषष्ठि शलाका पुरुषों में तीर्थ धर्मचक्र के प्रणेता 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलभद्र, 9 नारायण और 9 प्रतिनारायण होते हैं जैनागम में तीर्थंकरों का जन्म उस काल की विशेष घटना होती है। आगम कथन है कि मोक्षमार्ग का कोई भव्य पुरुषार्थी जीव अपने पुरुषार्थ क्रम से पूर्व भव में केवली भगवन्त के पादमूल में नामकर्म की तीर्थंकर प्रकृति के महान पुण्य का बंध करता है, ऐसा पुण्यशाली जीव जब अपने तीर्थंकर जन्म से पूर्व की अपनी आयु को पूर्ण कर अपनी तीर्थंकर पर्याय की मां के गर्भ में आता है तब गर्भ में आने के 6 माह पूर्व ही सौधर्म इन्द्र को अपने अवधिज्ञान से यह ज्ञात हो जाता है कि अमुक पुण्यात्मा जीव 6 माह बाद अपनी वर्तमान आयु पूर्ण कर कर्मभूमि के अमुक भरत या ऐरावत क्षेत्र के इन नगर विशेष के अमुक राजपरिवार में जन्म लेने वाला है। सौधर्म इन्द्र अपने ज्ञानबल से भविष्य के उस घटनाक्रम को प्रत्यक्ष जान लेता है और यहीं से तीर्थंकर मां के सोलह स्वप्नों से लेकर उनके गर्भ, जन्म काल की वह सब विशेषताएं प्रारंभ हो जाती हैं, जिन्हें हम जिनागम में पढ़ते या सुनते आये हैं। हमारे नित्य नियम पूजन पाठ की क्रिया ही इन पंचमंगल पाठ से प्रारंभ होती है। इन पांचों कल्याणकों को हमारे सभी आचार्यों ने एकमत से मंगल घटनाएं कहा है। पंच कल्याणकों की यह तिथियां मंगल तिथियां मानी जाती हैं, मंगलाष्टक पाठ में इन पंच मंगलों को नमन करते हुए निज-पर के मंगलमय जीवन की कामना करते हैं। यहां यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि तीर्थंकर भगवन्तों के गर्भकाल में पूर्व से लेकर उनके महानिर्वाण तक का इतिहास क्या है, इसे प्रत्येक जैन भलीभांति जानता है।
यह जैनागम (यहां जैनागम का तात्पर्य हमारा वीतराग दिगम्बर आचार्यों के कथन से है) हमारी मान्य परम्पराओं, आस्थाओं, जीवन दर्शन की सूक्ष्म विवेचनाओं का एक प्रमाणित दस्तावेज है। आज हजारों हजार सालों से हमारे आचार्यों, विद्वानों और मनीषियों के साथ ही आस्थावान देव, शास्त्र, गुरु ने इसे सहेज कर रखा है। इसके साथ न तो उन्होंने कोई छेड़छाड़ की और न किसी छेड़छाड़ के प्रयास को स्वीकार किया। पिछले ढाई हजार वर्षों में लोगों ने इसमें अपने निजी विचार स्थापित करने के प्रयास किये, उन्हें उनके विचारों को समर्थन देने वाले कुछ लोग भी मिलते रहे किन्तु मूलधारा उससे कहीं प्रभावित नहीं हुई। बदलाव की विचारधारा ने तेरहपंथ, बीसपंथ, तारणपंथ से लेकर काष्ठासंघ, द्राविड़ संघ आदि के रूप में समय-समय पर अनेक विचारधाराओं को जन्म दिया। यहीं तक नहीं कुछ लोगों ने वस्त्रधारक विचारकों में सद्गुरुदेव और भावी तीर्थंकरों, गणधरों की कल्पनाएं भी गढ़ लीं, किन्तु उन्होंने भी तीर्थंकरों की महत्ता, महानता और उनकी विशिष्टताओं पर कहीं कोई शंका या प्रश्न खड़े नहीं किये। पर आधुनिकता से जुड़ा हमारा आज का बदलाव अब अपने पूर्वाचार्यों के कथन से हटकर आधुनिक इतिहासकारांें, शोधकर्ताओं पर अधिक विश्वास करने लगा है। आज हमारा विश्वास सात समुन्दर पार के लोगों पर सहज भरोसा करने लगता है। दिगम्बर जैनाचार्यों से अधिक हमें आज याकोबी, डा. हार्नले या श्वेताम्बर व बौद्ध ग्रंथकारों पर आस्था होने लगी है। आज हमारे लिए आचार्य वीरसेन, जिनसेन, पूज्यपाद, गुणभद्र, आदि सभी अप्रमाणित और महत्वहीन से होने लगे हैं। हम यह भी भूल जाना चाहते हैं कि भगवान महावीर इस वर्तमान चैबीसी के अंतिम तीर्थंकर अरिहंत परमेष्ठी थे। तीर्थंकर भगवन्तों की अपनी श्रेष्ठ कुलपरम्परा होती है। वह अपने मातृकुल या किसी अन्य की उधार ली गयी कुल परंपरा का मुखान्पेशी नहीं होता है। उसका स्वयं का तेज, बल और प्रताप इस समस्त भूमण्डल को आलोकित करने वाला होता है। अगर हमने इन सब कथनों को न भुलाया होता तो हम आज भगवान महावीर के जन्मस्थान की खोज, उनके मातृकुल नगर वैशाली में या उसके किसी मुहल्ले, उपनगर में नहीं कर रहे होते। क्या कहीं हम महावीर को वैशाली में जन्मा स्वीकार करके दिगम्बर आचार्यों के कथन को अस्वीकार करने की भूमिका का सूत्रपात तो नहीं कर रहे हैं? भगवान महावीर के नाना महाराज चेटक की राजधानी वैशाली या उसके उपनगर मुहल्ले में महावीर के जन्म को स्वीकारने का अर्थ है महावीर की कुल परम्परा को अस्वीकार कर देना। क्या ऐसा कर देने पर महावीर की सर्वज्ञता अर्हंतता पर प्रश्न चिन्ह खड़े नहीं होंगे? अभी तक तो हम अपने पूर्वाचार्यों के हर कथन को यह कह कर ही स्वीकार करते आए हैं कि यह भगवान महावीर की दिव्यध्वनि से निकले हुए शब्द हैं। इनमें बदलाव करने से पूर्व क्या हमने कभी यह विचार किया कि आस्था की बुनियाद से निकाली गई एक ईंट विश्वास के भवन को धराशायी करने में निमित्त बन सकती है? आस्था या विश्वास के आधार को जब चोट पहुँचाई जाती है, तब कोई धर्म, समाज या चिन्तन अधिक समय तक जीवित नहीं रह पाता। कुछ भी कहने या करने से पहले सभी को तीर्थंकरों के सम्पूर्ण जीवन परिवेश को संज्ञान में रखना होगा, जो तीर्थंकरों को सामान्य जनों से अलग और अतिविशिष्ट दर्शाता है।
प्रथमानुयोग हमारी आस्था की बुनियाद है, अगर हम उसे ही शंका और अविश्वास के घेरे में लाकर खड़ा कर देंगे, तब हमारे पास करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग की प्रामाणिकता का क्या आधार होगा? हमारे सभी पूर्वाचार्यों ने तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियों की चर्चा उनके चरित्र ग्रन्थों में की है,उन्हें तीर्थ की संज्ञा दी है। भगवान महावीर के जन्मस्थान कुण्डलपुर का विस्तार से कथन है। कहीं उसे वैशाली से जोड़कर नहीं कहा गया है। यदि महावीर वैशाली में जन्मे थे जैसा आज प्रचारित किया जा रहा है तब हमारे आचार्यों ने वैशाली के साथ यह न्याय क्यों किया? किसी भी आचार्य या ग्रन्थकार द्वारा उसकी चर्चा तक न करना एक विचारणीय प्रश्न है। इसके साथ यह भी विचारणीय होना चाहिए कि आज बिहार के जिस बसाढ़ ग्राम को वैशाली कहा जाता है, उस क्षेत्र के लोगों को यह याद नहीं रहा कि यह बसाढ़ नहीं वैशाली है। इस इतिहास प्रसिद्ध नाम की याद विदेशी खोजकर्ताओं के द्वारा दिलाने पर उन्हें याद आया कि यह बसाढ़ नहीं वैशाली है न ही उन्हें याद रहा कि भगवान महावीर का जन्म किस स्थान पर हुआ? उस स्थान को स्थानीय लोगों ने 26 सौ वर्षों से हल चलाकर जोता या बोया तक नहीं है। क्या यह दोनों ही कथन आपस में विरोधाभास नहीं रखते?
हमारी पांच दशाब्दी की उदासीनता ने हमारी दिगम्बर मान्यता तथा हमारे वीतराग चिन्तन को बहुत हानि पहुँचाई है। इस बीच हमारे कुछ मान्य विद्वानों ने महावीर का श्वेताम्बरीकरण ही कर दिया। महावीर के लिए लिखे इस नव साहित्य के लेखकों ने यह विचार ही नहीं किया कि यह घालमेल वाला साहित्य हमारी नई पीढ़ी को कितना भ्रमित कर देगा। दिगम्बर साहित्य में इस बाहरी मिलावट का ही परिणाम है कि आज हमें वैशाली और कुण्डलपुर में कोई अन्तर ही दिखाई नहीं देता। इस घालमेल के प्रति हमारे पूज्य आचार्यों, मुनिराजों और विद्वानों का मौन भी अखरने वाला है। यह एक शुभ संकेत है कि अभी हाल में इंदौर से नेमावर गये कुछ पत्रकार बंधुओं से चर्चा करते हुए पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने इस विषय को गंभीरता से अनुभव किया और कहा कि हमारे तीर्थस्थानों आदि का निर्णय हमारे दिगम्बर आचार्यों के कथनानुसार होना चाहिए।
पूज्य आचार्य श्री ने कहा कि धवला, जयधवला के टीकाकार पूज्य आचार्य वीरसेन महाराज का कथन ही हमारे लिए प्रामाणिक होना चाहिए। इसी चर्चा में पूज्यमुनि योगसागर जी ने कहा कि आचार्य पूज्यपादस्वामी ने भी निर्वाणभक्ति में कुण्डलपुर ही महावीर का जन्म स्थान कहा है। इस आलेख में हमारा आशयमात्र भी इतना ही है कि हम अपने तीर्थस्थानों या अन्य किसी विषय पर उत्पन्न हुई शंका का समाधान अपने दिगम्बर आगमानुसार और अपने पूर्वाचार्यों के कथनानुसार ही करें। श्वेताम्बर, बौद्ध या अन्य इतिहासकारों के कथन हमारी वीतराग अवधारणा में विसंगतियां तो उत्पन्न करेंगे ही, साथ ही हमारी भविष्य की पीढ़ी को भ्रमित भी करेंगे। हमें पूरा विश्वास है कि हमारे आचार्य, मुनिराज, मनीषीविद्वान इस जन्मभूमि प्रकरण का सम्यक् समाधान भी अपनी श्रेष्ठतम श्रुत परम्परा के आधार पर करने में सफल और समर्थ होंगे।