-गीता छन्द-
अरिहंत सिद्धाचार्य पाठक, साधु त्रिभुवन वंद्य हैं।
जिनधर्म जिनआगम जिनेश्वर, मूर्ति जिनगृह वंद्य हैं।।
नव देवता ये मान्य जग में, हम सदा अर्चा करें।
आह्वान कर थापें यहाँ, मन में अतुल श्रद्धा धरें।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु जिनधर्मजिनागमजिन-चैत्यचैत्यालयसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु जिनधर्मजिनागमजिन-चैत्यचैत्यालयसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु जिनधर्मजिनागमजिन-चैत्यचैत्यालयसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथाष्टक-
गंगानदी का नीर निर्मल, बाह्य मल धोवे सदा।
अंतर मलों के क्षालने को, नीर से पूजूँ मुदा।।
नवदेवताओं की सदा जो, भक्ति से अर्चा करें।
सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगल, पाय शिवकांता वरें।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिन-चैत्यचैत्यालयेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर मिश्रित गंध चंदन, देह ताप निवारता।
तुम पाद पंकज पूजते, मन ताप तुरतहिं वारता।।
नवदेवताओं की सदा जो, भक्ति से अर्चा करें।
सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगल, पाय शिवकांता वरें।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिन-चैत्य-चैत्यालयेभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षीरोदधी के फेन सम सित, तंदुलों को लायके।
उत्तम अखंडित सौख्य हेतू, पुंज नवसु चढ़ायके।।
नवदेवताओं की सदा जो, भक्ति से अर्चा करें।
सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगल, पाय शिवकांता वरें।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिन-चैत्य-चैत्यालयेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चम्पा चमेली केवड़ा, नाना सुगन्धित ले लिये।
भव के विजेता आपको, पूजत सुमन अर्पण किये।।
नवदेवताओं की सदा जो, भक्ति से अर्चा करें।
सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगल, पाय शिवकांता वरें।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिन-चैत्य-चैत्यालयेभ्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पायस मधुर पकवान मोदक, आदि को भर थाल में।
निज आत्म अमृत सौख्य हेतू, पूजहूँ नत भाल मैं।।
नवदेवताओं की सदा जो, भक्ति से अर्चा करें।
सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगल, पाय शिवकांता वरें।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिन-चैत्य-चैत्यालयेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर ज्योती जगमगे, दीपक लिया निज हाथ में।
तुम आरती तम वारती, पाऊँ सुज्ञान प्रकाश मैं।।
नवदेवताओं की सदा जो, भक्ति से अर्चा करें।
सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगल, पाय शिवकांता वरें।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिन-चैत्य-चैत्यालयेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
दशगंधधूप अनूप सुरभित, अग्नि में खेऊँ सदा।
निज आत्मगुण सौरभ उठे, हों कर्म सब मुझसे विदा।।
नवदेवताओं की सदा जो, भक्ति से अर्चा करें।
सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगल, पाय शिवकांता वरें।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिन-चैत्य-चैत्यालयेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर अमरख आम्र अमृत, फल भराऊँ थाल में।
उत्तम अनूपम मोक्ष फल के, हेतु पूजूँ आज मैं।।
नवदेवताओं की सदा जो, भक्ति से अर्चा करें।
सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगल, पाय शिवकांता वरें।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिन-चैत्य-चैत्यालयेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध अक्षत पुष्प चरु, दीपक सुधूप फलार्घ्य ले।
वर रत्नत्रय निधि लाभ यह, बस अर्घ्य से पूजत मिले।।
नवदेवताओं की सदा जो, भक्ति से अर्चा करें।
सब सिद्धि नवनिधि रिद्धि मंगल, पाय शिवकांता वरें।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिन-चैत्य-चैत्यालयेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा- जलधारा से नित्य मैं, जग की शांती हेत।
नवदेवों को पूजहूँ, श्रद्धा भक्ति समेत।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
नानाविध के सुमन ले, मन में बहु हरषाय।
मैं पूजूँ नव देवता, पुष्पांजली चढ़ाय।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागम जिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नम:। (९, २७ या १०८ बार)
-सोरठा-
चिच्चिंतामणिरत्न, तीन लोक में श्रेष्ठ हो।
गाऊँ गुणमणिमाल, जयवंते वर्तो सदा।।१।।
(चाल-हे दीनबन्धु श्रीपति……)
जय जय श्री अरिहंत देव देव हमारे।
जय घातिया को घात सकल जंतु उबारे।।
जय जय प्रसिद्ध सिद्ध की मैं वंदना करूँ।
जय अष्ट कर्ममुक्त की मैं अर्चना करूँ।।२।।
आचार्य देव गुण छत्तीस धार रहे हैं।
दीक्षादि दे असंख्य भव्य तार रहे हैं।।
जैवंत उपाध्याय गुरु ज्ञान के धनी।
सन्मार्ग के उपदेश की वर्षा करें घनी।।३।।
जय साधु अठाईस गुणों को धरें सदा।
निज आत्मा की साधना से च्युत न हों कदा।।
ये पंचपरमदेव सदा वंद्य हमारे।
संसार विषम सिंधु से हमको भी उबारें।।४।।
जिनधर्म चक्र सर्वदा चलता ही रहेगा।
जो इसकी शरण ले वो सुलझता ही रहेगा।।
जिन की ध्वनि पीयूष का जो पान करेंगे।
भव रोग दूर कर वे मुक्ति कांत बनेंगे।।५।।
जिन चैत्य की जो वंदना त्रिकाल करे हैं।
वे चित्स्वरूप नित्य आत्म लाभ करे हैं।।
कृत्रिम व अकृत्रिम जिनालयों को जो भजें।
वे व्ाâर्मशत्रु जीत शिवालय में जा बसें।।६।।
नव देवताओं की जो नित आराधना करें।
वे मृत्युराज की भी तो विराधना करें।।
मैं कर्मशत्रु जीतने के हेतु ही जजूँ।
सम्पूर्ण ‘‘ज्ञानमती’’ सिद्धि हेतु ही भजूँ।।७।।
-दोहा-
नवदेवों को भक्तिवश, कोटि-कोटि प्रणाम।
भक्ती का फल मैं चहूँ, निजपद में विश्राम।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं……..।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-गीता छंद-
जो भव्य श्रद्धाभक्ति से, नवदेवता पूजा करें।
वे सब अमंगल दोष हर, सुख शांति में झूला करें।।
नवनिधि अतुल भंडार ले, फिर मोक्ष सुख भी पावते।
सुखसिंधु में हो मग्न फिर, यहाँ पर कभी न आवते।।९।।
।। इत्याशीर्वाद: ।।
-स्थापना (अडिल्ल छंद:)-
अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय साधव:।
एते सर्वे पूज्या: पंचपरमेष्ठिन:।।
जिनधर्मश्च जिनागमचैत्यजिनालया:।
सर्वे नवदेवा: लोके पूज्या: सदा।।१।।
-अनुष्टुप् छंद-
नम: श्री नवदेवेभ्य:, नवलब्धेरवाप्तये।
तेषां हि पूजनं कर्तुं, आह्वयाम्यत्र श्रद्धया।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु-जिनधर्मजिनागमजिन-चैत्यचैत्यालयसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु-जिनधर्मजिनागमजिन-चैत्यचैत्यालयसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधु-जिनधर्मजिनागमजिन-चैत्यचैत्यालयसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथाष्टकं-
तर्ज-मांगीतुंगी तीर्थ से आमंत्रण आया है……
नवदेवानां पूजनं, कुर्वेऽहं भक्त्या सह,
नवलब्धी: प्राप्तुमिच्छामि।।
नवलब्धी: प्राप्तुमिच्छामि, सर्वर्द्धी: प्राप्तुमिच्छामि।
नवदेवानां पूजनं……।।टेक.।।
गंगानद्या: जलमानीय, ददामि त्रयधारां पदयो:।
जन्मजरामृत्यूनां नाशो, भवतु भावना मम अस्ति।।
अजरामरपदप्राप्तिर्भवतु अभिलाषेयं मम,
नवलब्धी: प्राप्तुमिच्छामि।।नवदेवानां……।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरिचंदनामानीय, चरणचर्चनं करोम्यहं।
भवातापनाशन-कर्तुमहमभिलषामि हे नाथ! मम।।
आत्मिकशीतलतां प्राप्त्यर्थं अहमागच्छामि,
नवलब्धी: प्राप्तुमिच्छामि।।नवदेवानां……।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्वोत्कृष्टतंडुलानां अक्षतमानीय करोम्यर्चां।
अक्षयपदं प्राप्य मम आत्मा सिद्धानां सदृशो भवतु।।
अभिलाषा ईदृशी प्रभो! गुणप्राप्तिर्भवतु मे,
नवलब्धी: प्राप्तुमिच्छामि।।नवदेवानां……।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कुंदमालतीचंपकादिपुष्पानां मालेयं अस्ति।
तथार्चनं कृत्वा पंचेन्द्रियविषयान् त्यक्तुमिच्छामि।।
ममात्मन: चानिन्द्रियसुखप्राप्त्यर्थमागच्छामि,
नवलब्धी: प्राप्तुमिच्छामि।।नवदेवानां……।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षीरान्नं आनीय प्रभो! अहमर्चयामि मनसा भक्त्या।
मम क्षुधरोगविनाशो भवतु आत्मिकतृप्तिर्भवतु मे।।
शाश्वततृप्तिर्भवतु च मम, अभिलाषेयं अस्ति,
नवलब्धी: प्राप्तुमिच्छामि।।नवदेवानां……।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृतदीपं प्रज्वाल्य अहं, अवतारयामि आरार्तिकं।
मिथ्यातिमिरविनाशो भूत्वा आत्मनि ज्ञानदीपो ज्वलतु।।
सम्यग्दर्शनदीपप्रकाशी, भवतु ममात्मा च,
नवलब्धी: प्राप्तुमिच्छामि।।नवदेवानां……।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्वेतरक्तचंदनचूर्णस्य धूपं दग्धेऽहं भगवन्!।
निजकर्माणि दग्धीकृत्वा निजात्मन: गुणमिच्छामि।।
गुणसुगंधिप्राप्त्यर्थमेव धूपेन करोम्यर्चाम्,
नवलब्धी: प्राप्तुमिच्छामि।।नवदेवानां……।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
आम्रद्राक्षश्रीफलादिभि: पूजां कर्तुं अहमायामि।
शिवफलप्राप्तिर्भवतु क्रमेण, भुक्तिफलं चापि भवतु।।
सिद्धशिलावासी भवितुं, इच्छामि समर्प्य फलं,
नवलब्धी: प्राप्तुमिच्छामि।।नवदेवानां……।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
सलिलं च चंदनं अक्षतं पुष्पं नैवेद्यं दीपं।
धूपं फलं मेलयित्वा चन्दनामति: अर्घ्यं अस्ति।
मंगलगुणगानं कृत्वाऽहं समर्पयाम्यर्घ्यं,
नवलब्धी: प्राप्तुमिच्छामि।।नवदेवानां……।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-आर्या छंद-
जलमानीय विशुद्धं, नवपदयुगलेषु पातयामि मुदा।
शांतिर्भवतु त्रिलोके, इयमेव भावना मेऽस्ति।।
शान्तये शांतिधारा।
नानाविधपुष्पानां, सुरभितमालऽद्य निर्मिता अस्ति।
नवपदयुगलेषु मया, समर्पिता सार्थका अस्ति।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
मंत्र जाप्य:–ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्म- जिनागम-जिनचैत्यचैत्यालयेभ्यो नमः।
(९, २७ या १०८बार)
तर्ज-कभी राम बनके……
सर्वश्रेष्ठदेवा:, गुणज्येष्ठ देवा:,
अस्मिन् लोके जयन्तु नव देवा:।
प्रथमो देव: श्री अरिहंत जिनवर:।
षट्चत्वारिंशत् गुणमणिधारक:।।
तव समवसरण:, प्रातिहार्य सुखकर:।
अस्मिन् लोके जयतु श्रीजिनवर:।।१।।
सिद्धप्रभु: द्वितीयदेवश्च स्यात्।
अष्ट क्षायिकगुणैश्च समन्वित:।।
सिद्धशिलानिवासिन् ! शाश्वतकालवासिन्!
अस्मिन् लोके जयतु सिद्धजिनवर:।।२।।
सूरिपाठकसाधुत्रयपरमेष्ठिन:।
निजमूलगुणपालकपरमेष्ठिन:।।
अद्य राजन्तेऽत्रापि, निजसंघैश्चात्रापि,
अस्मिन् लोके जयन्तु परमेष्ठिन:।।३।।
जिनधर्मश्च अद्य प्रवर्तते।
भरतक्षेत्रस्यार्यखण्डेऽपि च वर्तते।।
धर्मचक्ररूपेण, साधुसंघरूपेण,
अस्मिन् लोके जयतु जिनधर्म:।।४।।
षष्ठो देव: जिनागम: कथ्यते।
जिनवाणिचतुरनुयोग: उच्यते।।
द्वादशांगांशेन, पूर्वाचार्यकथितेन,
अस्म्िान् लोके जयतु श्रीजिनागम:।।५।।
जिनचैत्यचैत्यालयाश्चापि।
अष्टम-नवम देवौ स्त: अद्यापि।।
कोटि प्रतिमा: संति, मन्दिराणि संति,
अस्मिन् लोके जयन्तु नवदेवा:।।६।।
महावीरसमवसरणे गौतम गणधर:।
चैत्यभक्तौ अकथयत् नवदेवा:।।
परमोपकारी, सर्वोपकारी,
अस्मिन् लोके जयतु गौतमगणधर:।।७।।
ये भक्ता: पूजयंति नवदेवा:।
चन्दनामतिस्ते संति भव्यप्राणिन:।।
कुरु जय जय सर्वदा, भवतु जय जय सर्वदा,
अस्मिन् लोके जयन्तु नवदेवा:।।८।।
-अनुष्टुप् छंद:-
पूजका: भाक्तिका: सर्वे, इष्टानिच्छन्ति सर्वदा।
नवदेवप्रसादेन इष्टार्थं प्राप्नुवन्ति ते।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुजिनधर्मजिनागमजिन-चैत्यचैत्यालयेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-अनुष्टुप् छंद-
नवदेवा: मंगलं कुर्यु:, त्रैकाल्ये त्रिगत्यपि।
अस्माकं मंगलं चापि, कुर्यु: संघस्य मंगलम्।।१।।
गणिन्या: ज्ञानमतिमातु:, शिष्याऽहं चन्दनामति:।
मातु: प्रेरणयैव हि, पूजेयं रचिता मया।।२।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।
तर्ज-देख तेरे संसार की हालत…….
नवदेवांची पूजन करतो मिळते नव निधी महान,
जय जय जय नव देव महान।।टेक.।।
अरिहंत आणि सिद्ध परमेष्ठी।
आचार्य-उपाध्याय परमेष्ठी।।
सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-चैत्य-चैत्यालय महान,
जय जय जय नव देव महान।।१।।
सर्वांना इथे करूँ आह्वानन।
स्थापन आणि सन्निधापन।।
पुष्पांजलि अर्पण करतो मी पूजन करून महान,
जय जय जय नव देव महान-२।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टक-शेर छंद
गंगे चे नीर मुनि मना समान पवित्र आहे।
भगवन्ताच्या चरणी चढ़ाव्या मन पवित्र आहे।।
भवसिन्धु तरण्या साठी मी पूजा ही रचतो।
नव देवतांची मूर्ति आपल्या हृदयी धारतो।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिरीचे केशर घेउनी मी आलो।
भगवन्ताच्या चरणामध्ये चर्चन करण्या आलो।।
भवसिन्धु तरण्या साठी मी पूजा ही रचतो।
नव देवतांची मूर्ति आपल्या हृदयी धारतो।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोती समान अक्षता चे पुंज मी आणले।
भगवन्ताच्या चरणमध्ये अर्पण करतो त्याला।।
भवसिन्धु तरण्या साठी मी पूजा ही रचतो।
नव देवतांची मूर्ति आपल्या हृदयी धारतो।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मोतीच्या लड़ी सम मी पुष्पलड़ी आणली।
विषयानधता समाप्तकरण्या साठी मी आलो।।
भवसिन्धु तरण्या साठी मी पूजा ही रचतो।
नव देवतांची मूर्ति आपल्या हृदयी धारतो।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
पक्वानांची थाळी मी हाता मध्ये आणली।
प्रभु चरणां मधे त्यासी मी अर्पण केली।।
भवसिन्धु तरण्या साठी मी पूजा ही रचतो।
नव देवतांची मूर्ति आपल्या हृदयी धारतो।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृताचा एक दीपक घेऊन मी आलो।
प्रभु आरती ने माझे मोहतिमिर नाश झाले।।
भवसिन्धु तरण्या साठी मी पूजा ही रचतो।
नव देवतांची मूर्ति आपल्या हृदयी धारतो।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
मी चंदनाची धूप सुगंधीत आणतो।
प्रभु सम्मुख अग्निमधे त्यासी अर्पण करतो।।
भवसिन्धु तरण्या साठी मी पूजा ही रचतो।
नव देवतांची मूर्ति आपल्या हृदयी धारतो।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
डाळिंब द्राक्षे फळांची थाळी आणतो।
मी शिवफळांची प्राप्ति हेतु प्रभु पूजा करतो।।
भवसिन्धु तरण्या साठी मी पूजा ही रचतो।
नव देवतांची मूर्ति आपल्या हृदयी धारतो।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
मी अष्टद्रव्य मिळून अर्घ्य थाळी आणतो।
प्रभु चरणां मध्ये ‘‘चन्दनामती’’ ते अर्पण करतो।।
भवसिन्धु तरण्या साठी मी पूजा ही रचतो।
नव देवतांची मूर्ति आपल्या हृदयी धारतो।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तर्ज-गंगा यमुना में जब तक………
झारी नाची घेऊन चरणां मधे, तीन धारा करण्याचे भाव आहे….
भाव आहे।
देवा…….हो नव देवा……। देवा…….हो नव देवा।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
फार सुरभित सुगंधीत पुष्प घेऊनी,
प्रभु चरणां मधे पुष्पांजलि मी करतो…..पुष्पांजलि मी करतो।
देवा…….हो नव देवा……। देवा…….हो नव देवा।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य-ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म- जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो नम:।
(९, २७ या १०८ बार मंत्र को जपते हुए पुष्पांजलि करें)
तर्ज-देख तेरे संसार की हालत……..
नव देवांची पूजन करून मी म्हणतो जयमाला,
आज आनंदि आनंद झाला-२।।टेक.।।
अरिहंत देव प्रथम देवता आहे।
त्यांचे प्रसिद्ध शेह चाळीस गुण आहे।।
सिद्धशिलांचे वासी सिद्ध प्रभूंची गुणमाला,
आज आनंदि आनंद झाला-२।।१।।
आचार्य-उपाध्याय परमेष्ठी।
यांचे मूलगुण छत्तिस-पंचवीस।।
पंचपरमेष्ठी सर्व साधूंची म्हणतो गुणमाला,
आज आनंदि आनंद झाला-२।।२।।
जिनधर्माची शरण घेऊनी।
जिनवाणी चा स्वाध्याय करतो मी।।
श्री अकृत्रिम-कृत्रिम जिनचैत्यांची गुणमाला,
आज आनंदि आनंद झाला-२।।३।।
जिनचैत्यालय मध्ये जातो।
सम्यग्दर्शन प्राप्ती होते।।
सर्व नव देवांच्या पूजनाची ही गुणमाला,
आज आनंदि आनंद झाला-२।।४।।
सद्या उपस्थित त्रय परमेष्ठी।
सूरी-पाठक-साधु परमेष्ठी।।
त्यांचा जयकारा करतो मिळती गुणाची माला,
आज आनंदि आनंद झाला-२।।५।।
गौतम गणधर चैत्य भक्ति मध्ये।
नव देवांची भक्ती करतो।।
महावीरांचा समवसरण मध्ये म्हणतो गुणमाला,
आज आनंदि आनंद झाला-२।।६।।
तसेच गणिनी ज्ञानमती जी।
नव देवांची भक्ती करती।।
नव देवांची हिन्दी पूजा रचिता गुणमाला,
आज आनंदि आनंद झाला-२।।७।।
मी पूर्णार्घ समर्पण करतो।
पद अनर्घची भावना करतो।।
भवसिन्धू तरण्या साठी मी गातो जयमाला,
आज आनंदि आनंद झाला-२।।८।।
जिनभक्ती ही मुक्ति प्रदात्री।
पंचम कालाची सुखदात्री।।
एवढेच ‘‘चन्दनामती’’ आर्यिका म्हणते जयमाला,
आज आनंदि आनंद झाला-२।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधु-जिनधर्म-जिनागम-जिनचैत्य-चैत्यालयेभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
तर्ज-गंगा यमुना में जब तक………
नव देवांची पूजा करूनी मला,
नव नवी भावना भावितो निज मना…….भावितो निजमना।
देवा…..हो नव देवा…..२।।टेक.।।
माझे मन सदा प्रभुच्या चरणीं आहे,
अशी इच्छा मी करितो निज मना….करितो निजमना।
देवा…..हो नव देवा…..२।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि:।।
-Sthaapna-
Music – Om Jai Mahavir Prabho……..
Om Jai nine devas, Swami Jai nine devas.
We are doing your worship, to get nine virtues.
Om Jai…….
Arhat Siddhacharya Upadhyaya, Sadhu-five Parmeshthis. Swami..
Jindharm Jinagam Jinchaitya Chaityalayas-devas.
Om Jai………(1)
These are nine devas, we do Ahwanan. Swami we do…..
Sthapan and Sannidhikarnam, Jai Jai Jindevas.
Om Jai………(2)
Om Hreem Arhat-Siddh-Acharya-Upadhyaya-Sarv Sadhu-Jindharm-Jinagam-JinChaitya-Chaityalaya Samooh! Atra avtar avtar samvaushat.
Om Hreem Arhat-Siddh-Acharya-Upadhyaya-Sarv Sadhu-Jindharm-Jinagam-JinChaitya-Chaityalaya Samooh! Atra tishth tishth thah thah sthapnam.
Om Hreem Arhat-Siddh-Acharya-Upadhyaya-Sarv Sadhu-Jindharm-Jinagam-JinChaitya-Chaityalaya Samooh! Atra mam sannihito bhav bhav vashat sannidhikarnam sthapnam.
-ASHTAK (Sher Chhand)-
We bring the pure water from river Ganga,
To end our birth and death we offer pure water.
Who worship nine devas with hearty devotion,
They get happiness and utmost salvation. (1)
Om Hreem Arhat-Siddh-Acharya-Upadhyaya-Sarv Sadhu-Jindharm-Jinagam-JinChaitya-Chaityalayebhyo Janm Jara Mrityu Vinashnaya Jalam nirvapameeti swaha.
We bring pure Sandal mixed camphor for worship,
To end the heatness of soul and to get coolness.
Who worship nine devas with hearty devotion,
They get happiness and utmost salvation. (2)
Om Hreem Arhat-Siddh-Acharya-Upadhyaya-Sarv Sadhu-Jindharm-Jinagam-JinChaitya-Chaityalayebhyo sansar taap vinashnaya Chandnam nirvapameeti swaha.
We bring pure Akshat in form of white rice,
To get immortal post we offer Akshat by hands.
Who worship nine devas with hearty devotion,
They get happiness and utmost salvation. (3)
Om Hreem Arhat-Siddh-Acharya-Upadhyaya-Sarv Sadhu-Jindharm-Jinagam-JinChaitya-Chaityalayebhyo Akshayapad Praptaye Akshatam nirvapameeti swaha.
Taking many flowers we have come for worship,
To get the virtues and to end all desires.
Who worship nine devas with hearty devotion,
They get happiness and utmost salvation. (4)
Om Hreem Arhat-Siddh-Acharya-Upadhyaya-Sarv Sadhu-Jindharm-Jinagam-JinChaitya-Chaityalayebhyo Kaambaan vinashnaya Pushpam nirvapameeti swaha.
Taking many dishes we have come for worship,
To get self power and to end the hunger.
Who worship nine devas with hearty devotion,
They get happiness and utmost salvation. (5)
Om Hreem Arhat-Siddh-Acharya-Upadhyaya-Sarv Sadhu-Jindharm-Jinagam-JinChaitya-Chaityalayebhyo Kshudha rog vinashnaya Naivedyam nirvapameeti swaha.
Taking a deepak thal for doing your Aarti,
To get Samyakdarshan and to end darkness.
Who worship nine devas with hearty devotion,
They get happiness and utmost salvation. (6)
Om Hreem Arhat-Siddh-Acharya-Upadhyaya-Sarv Sadhu-Jindharm-Jinagam-JinChaitya-Chaityalayebhyo Mohaandhakaar vinashnaya Deepam nirvapameeti swaha.
Taking the scented Dhoop we have come for your worship.
To get scented life and to burn eight Karmas.
Who worship nine devas with hearty devotion,
They get happiness and utmost salvation. (7)
Om Hreem Arhat-Siddh-Acharya-Upadhyaya-Sarv Sadhu-Jindharm-Jinagam-JinChaitya-Chaityalayebhyo Asht Karm vinashnaya Dhoopam nirvapameeti swaha.
Taking the sweet fruits we have come for your worship,
To get Samyakgyan and to end ignorance.
Who worship nine devas with hearty devotion,
They get happiness and utmost salvation. (8)
Om Hreem Arhat-Siddh-Acharya-Upadhyaya-Sarv Sadhu-Jindharm-Jinagam-JinChaitya-Chaityalayebhyo Mokshfal praptaya Falam nirvapameeti swaha.
Taking the eight dravyas we have come for your worship,
To get Anarghya post says “Chandnamati”.
Who worship nine devas with hearty devotion,
They get happiness and utmost salvation. (9)
Om Hreem Arhat-Siddh-Acharya-Upadhyaya-Sarv Sadhu-Jindharm-Jinagam-JinChaitya-Chaityalayebhyo Anarghya Pad praptaya Arghyam nirvapameeti swaha.
Taking the water pot for doing Jaldhara,
To get self enjoyment and ending the sorrows.
Who worship nine Devas with hearty devotion,
They get happiness and utmost salvation.
Shantaye Shantidhara.
Taking the flowerpot for doing pushpanjali,
To get fragrant life and to be pleasant forever.
Who worhip nine Devas with hearty devotion,
They get happiness and utmost salvation.
Divya Pushpanjali.
Jaapya Mantra–Om Hreem Arhat-Siddh-Acharya-Upadhyaya-Sarv Sadhu-Jindharm-Jinagam-JinChaitya-Chaityalayebhyo Namah. (Recite it nine times.)
Music-Kabhi Ram banke…
Nine Devas in the world, and in whole universe,
Supreme Devas are for all of us.
First Devta is Arihant Prabhuji,
They have forty six virtues.
Give us some virtues, give us nine Labdhees,
Supreme Devas are for all of us.(1)
Second Devta is Siddhaprabhuji,
They live on Siddhashilaji.
Give us Siddhi Prabhuvar, give us Riddhi Prabhuvar,
Supreme Devas are for all of us.(2)
Third Devta is Acharya Guruvar,
Thirty Six Moolguns of their.
Give us Ratnatraya, with your blessings,
Supreme Devas are for all of us.(3)
Fourth and fifth are Upadhyaya-Sadhus,
They are called Parmeshthi Guruvar.
Give us right knowledge, as religious college,
Supreme Devas are for all of us.(4)
Jin Dharm is also sixth Devta,
Which is going on from the eternity.
That is called Dharmchakra, that is going on today,
Supreme Devas are for all of us.(5)
Jain Aagam is seventh Devta,
Available today in four Anuyogas.
We want to get knowledge, may my faith be solid,
Supreme Devas are for all of us.(6)
Eighth-Ninth are Chaitya-Chaityalayas,
These are called Idols and temples.
Give us Samyakdarshan, We do Jinvar darshan,
Supreme Devas are for all of us.(7)
Who will worship these nine Devtas,
Their soul will achieve Supremacy.
Give us self power, and physical power,
Supreme Devas are for all of us.(8)
Gautam Gandhar remembered nine Devtas,
You should read these in Chaitya Bhakti.
Says ‘Chandnamati’, wants Siddhagati,
Supreme Devas are for all of us.(9)
Om Hreem Arhat-Siddh-Acharya-Upadhyaya-Sarv Sadhu-Jindharm-Jinagam-JinChaitya-Chaityalayebhyo Jaimala Poornarghyam nirvapameeti Swaha.
Music-O maa…..
Deva…….Deva…….
These are nine Devas, these are true Devas,
All are supreme in world, Deva……
Who Worship these nine Devas,
They get infinite happiness in their life.
They give us salvation, and peaceful actions,
All are supreme in world. Deva……(1)
We bow to them ‘Aryika Chandnamati’,
You should also bow your head to these nine Devas.
They give us real power, and supreme tower*.
All are supreme in world. Deva……(2)
Ityaasheervaadah, Pushpanjalih.