रचयित्री-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती
-स्थापना-
जिनने मुनि बनकर तप करके, कर्म घातिया नाश किया।
पुन: अघाति कर्म नाश कर, सिद्ध शिला पर वास किया।।
तीन लोक की चौरासीलख, योनी भ्रमण समाप्त किया।
उन भगवन्तों की पूजन का, मैंने भी शुभ भाव किया।।१।।
-दोहा-
आह्वानन स्थापना, कर पूजूँ प्रभु पाद।
अर्हत्प्रभु की धारणा, करूँ हृदय में आज।।२।।
ॐ ह्रीं चतुरशीतिलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशकश्रीअर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुरशीतिलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशकश्रीअर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुरशीतिलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशकश्रीअर्हत्परमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
–अष्टक (शेर छंद)-
गंगा नदी का नीर ले प्रभु पद में चढ़ाऊँ।
मुझ जन्म मरण नष्ट हो अरिहंत प्रभु ध्याऊँ।।
हे नाथ! आपके चरण की पूजा रचाऊँ।
चौरासि लाख योनियों का भ्रमण मिटाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं चतुरशीतिलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
केशर कपूर युक्त प्रभु के चरण लगाऊँ।
संसार ताप नष्ट हो यह भावना भाऊँ।।
हे नाथ! आपके चरण की पूजा रचाऊँ।
चौरासि लाख योनियों का भ्रमण मिटाऊँ।।२।।
ॐ ह्रीं चतुरशीतिलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
मोती समान शुभ्र धवल पुंज चढ़ाऊँ।
अक्षय अखंड पद के लिए भावना भाऊँ।।
हे नाथ! आपके चरण की पूजा रचाऊँ।
चौरासि लाख योनियों का भ्रमण मिटाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं चतुरशीतिलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला गुलाब पुष्प प्रभु के पद में चढ़ाऊँ।
हो काम व्यथा नष्ट यही भावना भाऊँ।।
हे नाथ! आपके चरण की पूजा रचाऊँ।
चौरासि लाख योनियों का भ्रमण मिटाऊँ।।४।।
ॐ ह्रीं चतुरशीतिलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नैवेद्य थाल भर प्रभू पूजन में चढ़ाऊँ।
क्षुध रोग हो विनष्ट यही भावना भाऊँ।।
हे नाथ! आपके चरण की पूजा रचाऊँ।
चौरासि लाख योनियों का भ्रमण मिटाऊँ।।५।।
ॐ ह्रीं चतुरशीतिलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घृत दीप जलाकर सुवर्णथाल में लाऊँ।
प्रभु आरती से मन का मोहतिमिर नशाऊँ।।
हे नाथ! आपके चरण की पूजा रचाऊँ।
चौरासि लाख योनियों का भ्रमण मिटाऊँ।।६।।
ॐ ह्रीं चतुरशीतिलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
लेकर दशांग धूप मैं अग्नि में जलाऊँ।
कर्मों को दहन करने की मैं भावना भाऊँ।।
हे नाथ! आपके चरण की पूजा रचाऊँ।
चौरासि लाख योनियों का भ्रमण मिटाऊँ।।७।।
ॐ ह्रीं चतुरशीतिलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर आम सेव फल के थाल सजाऊँ।
प्रभु पद में चढ़ा मोक्षफल की भावना भाऊँ।।
हे नाथ! आपके चरण की पूजा रचाऊँ।
चौरासि लाख योनियों का भ्रमण मिटाऊँ।।८।।
ॐ ह्रीं चतुरशीतिलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गंध आदि अष्ट द्रव्य थाल सजाऊँ।
ले अर्घ्य ‘‘चन्दनामती’’ प्रभु पद में चढ़ाऊँ।।
हे नाथ! आपके चरण की पूजा रचाऊँ।
चौरासि लाख योनियों का भ्रमण मिटाऊँ।।९।।
ॐ ह्रीं चतुरशीतिलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्रीअर्हत्परमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
स्वर्ण कलश में नीर ले, कर लूँ शांतिधार।
त्रिभुवन पति की भक्ति से, हो जाऊँ भवपार।।
शान्तये शांतिधारा।
चुन चुन पुष्प गुलाब के, अंजलि में भर लाय।
पुष्पांजलि प्रभुपाद में, करके लहूँ स्वराज्य।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
(१)
तर्ज-मेरे प्रभू तू मुझको बता….
मेरे प्रभो! मैं अर्घ्य ले, तेरे चरण में आ गया।
भव के भ्रमण से डर के अब, तेरा ही दर मुझे भा गया।।मेरे….।।
कर्मों के संग अनादि से, मैंने भ्रमण बहुत किया।
नित्यनिगोदिया की सात लाख योनि में गया।।
केवल जनम मरण किया, दुख में समय बिता दिया।
भव के भ्रमण से डर के अब, तेरा ही दर मुझे भा गया।।१।।
अब न मिले निगोद की, पर्याय यह है भावना।
दुर्लभ मनुज पर्याय को, सार्थक करूँ यह है कामना।।
चौरासी लाख योनि में, भटकूं न यह मन आ गया।
भव के भ्रमण से डर के अब, तेरा ही दर मुझे भा गया।।२।।
ॐ ह्रीं नित्यनिगोदजीवानां सप्तलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
(२)
तर्ज-मैंने तेरे ही भरोसे भगवान………….
जिनवर तेरे पद में आके मैंने आज, बड़ा ही सुख प्राप्त किया।
अर्घ्य थाल सजाके लाया आज, लगता है दुख समाप्त हुआ।।
इतर निगोद जीव की योनी, सात लाख हैं कहीं गई।
काल अनादी से ना जाने, कितनी बार वे पाई गईं।।
उनमें जाऊँ न मैं अब जिनराज, यही तो मन में ठान लिया।
अर्घ्य थाल सजाके लाया आज, लगता है दुख समाप्त हुआ।।१।।
नित्य निगोद से निकल जीव जब, विकलत्रय में जनम धरे।
त्रस स्थावर में जाता है, उसे ही इतर निगोद कहें।।
इनसे छूट पाऊँ नरपर्याय, पूजन का फल प्राप्त हुआ।
अर्घ्य थाल सजाके लाया आज, लगता है दुख समाप्त हुआ।।२।।
ॐ ह्रीं इतरनिगोदजीवानां सप्तलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(३)
तर्ज-चल दिया छोड़ घर बार…….
मैं लाकर अर्घ्य का थाल, नमूँ निजभाल, जिनेश्वर ध्याऊँ,
भव भव का भ्रमण मिटाऊँ।।टेक.।।
पृथ्वीकायिक तन मिला कभी।
हैं सात लाख योनी उनकी।।
प्रभु पूजन कर अब वहाँ न जाना चाहूँ,
भव भव का भ्रमण मिटाऊँ।।१।।
संसार में दु:ख अनंत सहे।
प्रभु! वे दुख जिह्वा कह न सके।।
जिन भक्ति से अब स्थावर जन्म न पाऊँ,
भव भव का भ्रमण मिटाऊँ।।२।।
ॐ ह्रीं पृथ्वीकायिकजीवानां सप्तलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(४)
तर्ज-ज्योति से ज्योति……..
जिनवर की पूजा रचाते चलो, भव भव का भ्रमण मिटाते चलो।
शिवपथ के राही बनना है तो, अरिहन्त प्रभु को ध्याते चलो।।टेक.।।
तीन लोक में हम अज्ञानी, नाना योनि में भटक रहे।
काल अनादी से स्थावर, त्रस बन जग में अटक रहे।।
अब इनसे खुद को बचाते चलो, भव भव का भ्रमण मिटाते चलो।।१।।
स्थावर में जलकायिक जीवों की सात लाख योनी हैं।
उनमें जनम ले लेकर हमने, बहुत यातना झेली है।।
भक्ति से वह दुख भुलाते चलो, भव भव का भ्रमण मिटाते चलो।।२।।
ॐ ह्रीं जलकायिकजीवानां सप्तलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(५)
तर्ज-मैं तो छोड़ चली……..
मेरे अरिहंत प्रभु जिनराज, करूँ मैं भक्ती तेरी।
लाऊँ अर्घ्य बनाके स्वर्णथाल, करूँ मैं भक्ती तेरी।।टेक.।।
भव परिभ्रमण की कहानी है लम्बी, चौरासी लख योनि आवागमन की।
कभी जाना न सुख का राज, करूँ मैं भक्ती तेरी।।मेरे.।।१।।
स्थावरों में अग्निकायिक जीव की, सात लाख योनियाँ मानी उनकी।
उनमें जाऊँ न अब हे नाथ! करूँ मैं भक्ति तेरी।।मेरे.।।२।।
ॐ ह्रीं अग्निकायिकजीवानां सप्तलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(६)
-गीता छंद-
सात लाख योनियाँ वायुकायिक जीवों की मानी हैं।
उनमें मेरे भ्रमण की प्रभुवर, लम्बी बहुत कहानी है।।
श्रीजिनवर को अर्घ्य चढ़ाकर, भव का भ्रमण समाप्त करूँ।
प्रभु भक्ति के द्वारा अब मैं, जिनगुणसम्पति प्राप्त करूँ।।१।।
ॐ ह्रीं वायुकायिकजीवानां सप्तलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(७)
दश लाख योनियाँ वनस्पति-कायिक जीवों की होती हैं।
एकेन्द्रिय पंचस्थावर की, दुखभरी योनि ये होती हैं।।
इनमें अब ना जाऊँ प्रभुवर, इसलिए अर्चना करता हूँ।
मैं घास फूस तृण फल व फूल, नहिं बनूँ प्रार्थना करता हूँ।।१।।
ॐ ह्रीं वनस्पतिकायिकजीवानां दशलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(८)
दो लाख योनियाँ दो इन्द्रिय की, जिन शास्त्रों में कही गईं।
उन सबमें जन्ममरण करते, जीवन की घड़ियाँ निकल गईं।।
अब पुण्य से मानव जन्म मिला, तो इनमें जनम न हो पावे।
अरिहन्त प्रभू की पूजन से, मेरे कर्मारि विनश जावें।।१।।
ॐ ह्रीं द्वीन्द्रियजीवानां द्विलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(९)
त्रय इन्द्रिय के जीवों की भी, दो लाख योनियाँ बतलाईं।
उनमें जाकर दुख पा पाकर, अब पुण्य से नर योनी पाई।।
यह जिनवर से प्रार्थना मेरी, अब इनमें जनम न मैं पाऊँ।
अरिहन्त प्रभू की पूजन से, भव भव का भ्रमण मिटा पाऊँ।।१।।
ॐ ह्रीं त्रीन्द्रियजीवानां द्विलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(१०)
विकलत्रय में चउ इन्द्रिय जीव की, योनी हैं दो लाख कहीं।
मैंने भी काल अनादी से, ये सभी योनियाँ ग्रहण करीं।।
हे प्रभुवर! अर्घ्य चढ़ा करके, मैं यही प्रार्थना करता हूँ।
अब जन्म न हो इन तुच्छ योनियों में अभिलाषा करता हूँ।।१।।
ॐ ह्रीं चतुरिन्द्रियजीवानां द्विलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(११)
तर्ज-चन्दन सा वदन……….
पूजन कर लो-वन्दन कर लो-यह स्वर्ण सुहाना अवसर है।
भव भव का भ्रमण मिटाने को, यह जिनभक्ती का अवसर है।।टेक.।।
देवों की चार लाख योनी, कई बार जनम उन सबमें हुआ।
उन दिव्य स्वर्ग के वैभव में, चिरकाल से मैं भ्रमता ही रहा।।
प्रभु पद में अर्घ्य करो अर्पण, यह जिनभक्ती का अवसर है।।पूजन.।।१।।
ॐ ह्रीं देवानां चतुर्लक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(१२)
-शंभु छंद-
हे नाथ! तुम्हारी पूजन से भव के बंधन खुल जाते हैं।
चौरासी लाख योनियों के परिभ्रमण स्वयं टल जाते हैं।।टेक.।।
सातों नरकों में जाने हेतु चार लाख योनियाँ कहीं।
लाखों बिच्छू डसने से भी ज्यादा उसमें वेदना रही।।
सह लिया बहुत ही अब न सहूँ इसलिए अर्घ्य को चढ़ाते हैं।
हे नाथ! तुम्हारी पूजन से भव के बंधन खुल जाते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं नारकाणां चतुर्लक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(१३)
हे नाथ! तुम्हारी पूजन से, भव के बंधन खुल जाते हैं।
चौरासी लाख योनियों के परिभ्रमण स्वयं टल जाते हैं।।टेक.।।
पशुबन्धन के दुख देख देख, तिर्यंचगती स्मरण करूँ।
पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचों की चउ लख, योनि के दुख स्मरण करूँ।।
इनमें नहिं जाने हेतु प्रभो! अब तुम पद अर्घ्य चढ़ाते हैं।
हे नाथ! तुम्हारी पूजन से, भव के बंधन खुल जाते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं पञ्चेन्द्रियतिरश्चां चतुर्लक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(१४)
तर्ज-फिरकी वाली………
भोले प्राणी, तू सुन जिनवाणी, जगत कल्याणी।
यही तो बस सार है, इन्द्रिय विषयों को समझ ले निस्सार है।।टेक.।।
लक्ष चुरासी योनि में मानुष, योनि चतुर्दश लक्ष कही।
जाने कितनी बार आतमा ने ये योनियाँ ग्रहण करी।।
इस नरतन को सार्थक करना…२, इसका सार समझना,
आठों द्रव्यों का थाल सजाओ, प्रभू को चढ़ाओ, यही तो बस सार है,
इन्द्रिय विषयों को समझ ले निस्सार है।।१।।
ॐ ह्रीं मनुष्याणां चतुर्दशलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्री अर्हत्परमेष्ठिने अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-
तर्ज-मेरे देश की धरती……..
जिनवर की पूजा-भव्यप्राणियों का भव भ्रमण मिटाए,
जिनवर की पूजा……जिनवर की पूजा।।टेक.।।
संसारी आत्मा काल अनादी से त्रिलोक में भ्रमता है।
अज्ञान अवस्था के कारण निज आत्मा में नहिं रमता है।
अब आत्मा में कुछ बोध मिला……..हो……ओ……
अब आत्मा में कुछ बोध मिला अतएव शरणप्रभु आए,
जिनवर की पूजा……………।।१।।
वह काल चतुर्थ भी व्यर्थ हुआ, जब मेरा नहिं कल्याण हुआ।
यह पंचमकाल भी सार्थ हुआ, जब मुझको आतमज्ञान हुआ।।
‘‘चन्दनामती’’ भवभ्रमण निवारण व्रत सब करे कराएं,
जिनवर की पूजा……जिनवर की पूजा।।२।।
ॐ ह्रीं चतुरशीतिलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्री अर्हत्परमेष्ठिने पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं चतुरशीतिलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्री अर्हत्परमेष्ठिने नम:।
(९, २७ या १०८ बार यह मंत्र पढ़कर पुष्प चढ़ावें)
तर्ज-मांगीतुंगी तीर्थ से आमंत्रण आया है…..
भव भव भ्रमण मिटाने को, प्रभू पूजा करना है,
अब जयमाल का अर्घ्य चढ़ाना है।
जयमाल का अर्घ्य चढ़ाना है, अरिहंत प्रभू गुण गाना है।।भव….।।टेक.।।
काल अनादी से प्रभु मैंने, चतुर्गति के दु:ख सहे।
नित्य निगोद से लेकर पंचेन्द्रिय मानव तक जनम धरे।।
इस मानव पर्याय से मुक्ती लक्ष्मी वरना है,
अब जयमाल का अर्घ्य चढ़ाना है।।१।।
एकेन्द्रिय निगोद एवं पंचस्थावर में जनम लिया।
बड़े पुण्य से किसी तरह विकलत्रय तन भी ग्रहण किया।।
पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच में भी अब जनम न धरना है,
अब जयमाल का अर्घ्य चढ़ाना है।।२।।
मानव तन पा करके भी सम्यग्दर्शन यदि नहीं मिला।
फिर समझो दुर्गति में जाना दुख पाना भी नहीं टला।।
सम्यग्दर्शन संयम से भव दधि को तरना है,
अब जयमाल का अर्घ्य चढ़ाना है।।३।।
हम चौरासी लाख योनि परिभ्रमण निवारण व्रत समझें।
गणिनी माता ज्ञानमती जी के पद में वन्दन कर लें।।
उनके द्वारा प्रतिपादित इस व्रत को करना है,
अब जयमाल का अर्घ्य चढ़ाना है।।४।।
जल गंधाक्षत पुष्प और चरु दीप धूप फल ले करके।
अष्ट द्रव्य का थाल ‘‘चन्दनामती’’ भक्ति से ले करके।।
पद अनर्घ्य के हेतु प्रभु पद अर्पित करना है,
अब जयमाल का अर्घ्य चढ़ाना है।।५।।
ॐ ह्रीं चतुरशीतिलक्षयोनिपरिभ्रमणविनाशनाय श्री अर्हत्परमेष्ठिने जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शान्तये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
दोहा- चौरासी लख योनि का, हो परिभ्रमण समाप्त।
श्रीजिनवर की भक्ति से, हो निजात्म पद प्राप्त।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
ऋषभदेव जिनवर का केवलज्ञान कल्याणक आया है।
फाल्गुन कृष्णा एकादशि को मैंने यह शुभ क्षण पाया है।।
श्री वीर संवत् पच्चिस सौ चव्वालिस ग्यारह फरवरि आई।
सन् दो हजार अट्ठारह में यह लघु विधान रच कर लाई।।१।।
श्री गणिनीप्रमुख आर्यिका ज्ञानमति माता की मैं शिष्या हूँ।
गुरु माता द्वारा प्रतिपादित व्रत करो यही मैं शिक्षा दूँ।।
अपने जीवन के चौरासीवें वर्ष प्रवेश में माता ने।
चौरासी लाख योनियों का परिभ्रमण समाप्त करूँ अब मैं।।२।।
ऐसा चिन्तन कर उनने यह व्रत करने का संकल्प किया।
हम सबने भी उनकी पावन प्रेरणा से यह व्रत ग्रहण किया।।
हे भव्यात्माओं! तुम भी चौदह या चौरासी व्रत कर लेना।
अपनी शक्ति अनुसार व्रतों में अनशन आदिक कर लेना।।३।।
चौरासी लाख योनियों से तब शीघ्र मुक्त हो जाओगे।
‘‘चन्दनामती’’ भौतिक आध्यात्मिक शक्ति भी पा जाओगे।।
व्रत को करके उद्यापन में यह लघु विधान भी कर लेना।
मानव जीवन को सुखमय कर निज की गुण सम्पति भर लेना।।४।।
दोहा- दुखमय पंचमकाल में, करो जिनेश्वर भक्ति।
कर्मों के जंजाल से, पाओ इक दिन मुक्ति।।५।।