-गणिनी ज्ञानमती
—स्रग्विणी छन्द—
(चाल-नाथ तेरे कभी…..)
देव त्रैलोक्य के पूर्ण चंदा तुम्हें।
मैं नमूँ मैं नमूँ हे जिनन्दा तुम्हें।।
नाथ! मेरी हरो जन्म व्याधी व्यथा।
मैं सुनाऊँ तुम्हें संसरण की कथा।।१।।
मैं निगोदी रहा काल आनन्त्य ना।
एक इन्द्रीय भू अग्नि वायू बना।।
नाथ! मेरी हरो जन्म व्याधी व्यथा।
मैं सुनाऊँ तुम्हें संसरण की कथा।।२।।
कं वनस्पत्य हूआ सहा दु:ख हा।
सूक्ष्म तनधार जन्मा मरा नाथ! हा।।
नाथ! मेरी हरो जन्म व्याधी व्यथा।
मैं सुनाऊँ तुम्हें संसरण की कथा।।३।।
केंचुआ श्ांख चींटी ततैया हुआ।
जन्म धर धर मुआ जन्म धर धर मुआ।।
नाथ! मेरी हरो जन्म व्याधी व्यथा।
मैं सुनाऊँ तुम्हें संसरण की कथा।।४।।
मैं पशू योनि में जो महा दुख सहा।
नाथ! वैâसे कहूूँ आप जानो हहा।।
नाथ! मेरी हरो जन्म व्याधी व्यथा।
मैं सुनाऊँ तुम्हें संसरण की कथा।।५।।
देवयोनी मनुजयोनि में भी दुखी।
नारकी जो हुआ तो दुखी ही दुखी।।
नाथ! मेरी हरो जन्म व्याधी व्यथा।
मैं सुनाऊँ तुम्हें संसरण की कथा।।६।।
मैं कहूं क्या प्रभो आप हो केवली।
मोह शत्रू मुझे ये भ्रमावे बली।।
नाथ! मेरी हरो जन्म व्याधी व्यथा।
मैं सुनाऊँ तुम्हें संसरण की कथा।।७।।
मोह को नाश मैं आपके पास में ।
नाथ आना चहूँ है यही आस में।।
नाथ! मेरी हरो जन्म व्याधी व्यथा।
मैं सुनाऊँ तुम्हें संसरण की कथा।।८।।
-दोहा-
लाख चौरासी योनि में, भ्रमा अनंतों काल।
‘ज्ञानमती’ वैâवल्य हितु, नमूँ नमूँ त्रयकाल।।९।।