-स्थापना-
तर्ज-सज धज कर जिस दिन…….
गुरुभक्ति के द्वारा मानव भवसागर तिरते हैं।
हम अजित सिन्धु आचार्यदेव की पूजन करते हैं।।टेक.।।
आह्वाननं स्थापनं कर सन्निधीकरणम्।
पूजन में सबसे पहले है स्थापना का क्रम।।
निजहृदय कमल में, गुरुपद को हम धारण करते हैं।
हम अजित सिन्धु आचार्यदेव की पूजन करते हैं।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्थपट्टाचार्यश्रीअजितसागरमुनीन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं चतुर्थपट्टाचार्यश्रीअजितसागरमुनीन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं चतुर्थपट्टाचार्यश्रीअजितसागरमुनीन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं स्थापनं।
-अष्टक (शंभु छंद)-
हमने निज तन को बहुत बार शीतल जल से नहलाया है।
अब जन्म मरण के नाश हेतु गुरुपद में नीर चढ़ाया है।।
गुरुदेव अजितसागर जी की पूजन का थाल सजाया है।
भौतिक सुख तज आध्यत्मिक सुख पाने का भाव बनाया है।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्थपट्टाचार्यश्रीअजितसागरमुनीन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
हमने निज तन में बहुत बार चन्दन घिस घिस के लगाया है।
भव ताप नाशहेतु गुरुपद में चंदन घिस के लगाया है।।
गुरुदेव अजितसागर जी की पूजन का थाल सजाया है।
भौतिक सुख तज आध्यत्मिक सुख पाने का भाव बनाया है।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्थपट्टाचार्यश्रीअजितसागरमुनीन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
सुंदर तंदुल चावल की अब तक खीर बनाकर खाया है।
अक्षय पद हेतु अक्षत को अब गुरुचरणों में चढ़ाया है।।
गुरुदेव अजितसागर जी की पूजन का थाल सजाया है।
भौतिक सुख तज आध्यत्मिक सुख पाने का भाव बनाया है।।३।।
ॐ ह्रीं चतुर्थपट्टाचार्यश्रीअजितसागरमुनीन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कितने सुरभित फूलों को ला हमने निज घर को सजाया है।
अब काम व्यथा के नाश हेतु गुरुपद में पुष्प चढ़ाया है।।
गुरुदेव अजितसागर जी की पूजन का थाल सजाया है।
भौतिक सुख तज आध्यत्मिक सुख पाने का भाव बनाया है।।४।।
ॐ ह्रीं चतुर्थपट्टाचार्यश्रीअजितसागरमुनीन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
कितने पकवान बना हमने खाकर तन पुष्ट बनाया है।
अब क्षुधारोग नाशन हेतु व्यंजन गुरुपद में चढ़ाया है।।
गुरुदेव अजितसागर जी की पूजन का थाल सजाया है।
भौतिक सुख तज आध्यत्मिक सुख पाने का भाव बनाया है।।५।।
ॐ ह्रीं चतुर्थपट्टाचार्यश्रीअजितसागरमुनीन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
घी तेल व विद्युत दीपों से अब तक घर खूब सजाया है।
अब मोहनाश हेतु गुरुवर आरति का भाव बनाया है।।
गुरुदेव अजितसागर जी की पूजन का थाल सजाया है।
भौतिक सुख तज आध्यत्मिक सुख पाने का भाव बनाया है।।६।।
ॐ ह्रीं चतुर्थपट्टाचार्यश्रीअजितसागरमुनीन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
निज घर की सुगंधी हेतु न जाने कितनी धूप जलाई है।
अब कर्मनाश सहित गुरु सम्मुख अग्नि में धूप जलाई है।।
गुरुदेव अजितसागर जी की पूजन का थाल सजाया है।
भौतिक सुख तज आध्यत्मिक सुख पाने का भाव बनाया है।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्थपट्टाचार्यश्रीअजितसागरमुनीन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अपने खाने के लिए न जाने कितना फल मंगवाया है।
अब मोक्षमहाफल आशा से गुरु को फल थाल चढ़ाया है।।
गुरुदेव अजितसागर जी की पूजन का थाल सजाया है।
भौतिक सुख तज आध्यत्मिक सुख पाने का भाव बनाया है।।८।।
ॐ ह्रीं चतुर्थपट्टाचार्यश्रीअजितसागरमुनीन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
आठों द्रव्यों से युक्त ‘‘चन्दनामती’’ थाल को सजाया है।
निजपद अनर्घ्य की इच्छा से गुरुपद में उसे चढ़ाया है।।
गुरुदेव अजितसागर जी की पूजन का थाल सजाया है।
भौतिक सुख तज आध्यत्मिक सुख पाने का भाव बनाया है।।९।।
ॐ ह्रीं चतुर्थपट्टाचार्यश्रीअजितसागरमुनीन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
रत्नत्रय को ग्रहण कर, चले मुक्ति की राह।
गुरुपद में त्रयधार कर, करूँ शांति की चाह।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सुरभित था जिनका हृदय, कोमल पुष्प की भांति।
पुष्पांजलि कर गुरुचरण, चाहूँ मन की कांति।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
तर्ज-जैनधरम के हीरे मोती…….
जयमाला का अर्घ्य चढ़ाकर, गुरु चरणों में वंदन है।
अजित सिन्धु आचार्य प्रवर का, हम सब करते अर्चन हैं।।टेक.।।
मध्यप्रदेश भोपाल निकट है, आष्टा नामक नगर बड़ा।
जन्मा वहाँ राजमल बालक, मिला उसे सौभाग्य बड़ा।।
मात पिता की गोदी में ही, बीता जिनका बचपन है।
अजित सिन्धु आचार्य प्रवर का, हम सब करते अर्चन हैं।।१।।
प्रथमाचार्य शांतिसागर के प्रथम शिष्य आचार्य हुए।
पट्टाचार्य प्रथम गुरुवर श्री वीरसागराचार्य हुए।।
उनके शिष्य बने ब्रह्मचारी, खूब किया ज्ञानार्जन है।
अजित सिन्धु आचार्य प्रवर का, हम सब करते अर्चन हैं।।२।।
ब्रह्मचारी सूरजमल के संग धर्मध्यान ये करते थे।
ज्ञानमती माता गुरु माँ से धार्मिक अध्ययन करते थे।।
इनकी ही प्रेरणा से मुनि बन किया स्वयं को कुन्दन है।
अजित सिन्धु आचार्य प्रवर का हम सब करते अर्चन हैं।।३।।
द्वितीय पट्टाचार्य सूरि शिवसागर जी से दीक्षा ली।
सन् उन्निस सौ इकसठ में, मुनि अजित सिन्धु बन शिक्षा ली।।
फिर तो उनके जीवन में, खिल गया रत्नत्रय उपवन है।
अजितसिन्धु आचार्य प्रवर का, हम सब करते अर्चन हैं।।४।।
सन् उन्निस सौ सत्तासी में, चतुर्थ पट्टाचार्य बने।
संघ चतुर्विध संचालन कर श्रुतप्रेमी आचार्य बने।।
उन अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग युत गुरुचरणों में वन्दन है।
अजितसिंधु आचार्यप्रवर का, हम सब करते अर्चन हैं।।५।।
सन् उन्निस सौ नब्बे में वैशाख पूर्णिमा तिथि आई।
राजस्थान साबला नगरी में समाधि घड़ियाँ आईं।।
णमोकार को जपते-जपते छोड़ दिया नश्वर तन है।
अजित सिन्धु आचार्य प्रवर का, हम सब करते अर्चन हैं।।६।।
अष्टद्रव्य से पूजन कर जयमाल का थाल सजाया है।
भक्त पुजारी भक्ति से गुरुपद में चढ़ाने आया है।।
रत्नत्रयधारी गुरु को ‘‘चन्दनामती’’ का वन्दन है।
अजितसिंधु आचार्यप्रवर का हम सब करते अर्चन हैं।।७।।
ॐ ह्रीं चतुर्थपट्टाचार्यश्रीअजितसागरमुनीन्द्राय जयमाला महातिर्घ्यं निर्वपामी स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
-दोहा-
अजित सिंधु आचार्य की, पूजन है सुखकार।
गुरुभक्ति संसार से, कर देती है पार।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि: क्षिपेत्।।