-स्थापना-
शांति सिंधु की वंशावलि के सप्तम पट्टाचार्य प्रवर।
अनेकान्तसागर जी हैं अभिनंदन गुरु के शिष्यप्रवर।।
इनकी पूजन को ले आए अष्ट द्रव्य की थाली हम।
आह्वानन स्थापन सन्निधिकरण विधी से पूजें हम।।१।।
ॐ ह्रीं सप्तमपट्टाचार्यश्रीअनेकांतसागराचार्यपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सप्तमपट्टाचार्यश्रीअनेकांतसागराचार्यपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सप्तमपट्टाचार्यश्रीअनेकांतसागराचार्यपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथ अष्टक (शंभु छंद)-
कंचन झारी में गंगा का शीतल जल भरकर लाए हैं।
मन में शीतलता पाने को मुनिवर पद धार कराये हैं।।
हे सप्तम पट्टाचार्य प्रवर! युग युग जीवन्त रहो जग में।
हे अनेकान्तसागर मुनिवर! जिनशासन अमर करो जग में।।१।।
ॐ ह्रीं सप्तमपट्टाचार्यश्रीअनेकांतसागराचार्यपरमेष्ठिने जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काशमीरी केशर में कपूर घिसकर सुगंध बढ़ जाती है।
मुनि चरणों में चर्चन करके उसकी कीमत बढ़ जाती है।।
हे सप्तम पट्टाचार्य प्रवर! युग युग जीवन्त रहो जग में।
हे अनेकान्तसागर मुनिवर! जिनशासन अमर करो जग में।।२।।
ॐ ह्रीं सप्तमपट्टाचार्यश्रीअनेकांतसागराचार्यपरमेष्ठिने संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
चावल के धुले हुए पुंजों के अक्षत हम सब कहते हैं।
गुरुचरणों में चढ़कर वे अपने नाम को सार्थक करते हैं।।
हे सप्तम पट्टाचार्य प्रवर! युग युग जीवन्त रहो जग में।
हे अनेकान्तसागर मुनिवर! जिनशासन अमर करो जग में।।३।।
ॐ ह्रीं सप्तमपट्टाचार्यश्रीअनेकांतसागराचार्यपरमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
फूलों की सुखद सुगंधी में जन मानस डूबा रहता है।
मुनि पद में उसे चढ़ाने से ही कामबाण नश सकता है।।
हे सप्तम पट्टाचार्य प्रवर! युग युग जीवन्त रहो जग में।
हे अनेकान्तसागर मुनिवर! जिनशासन अमर करो जग में।।४।।
ॐ ह्रीं सप्तमपट्टाचार्यश्रीअनेकांतसागराचार्यपरमेष्ठिने कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
घी शक्कर से पकवान बनाकर प्रतिदिन खाये जाते हैं।
मुनि पद में उन्हें चढ़ाने से तन रोग शीघ्र नश जाते हैं।।
हे सप्तम पट्टाचार्य प्रवर! युग युग जीवन्त रहो जग में।
हे अनेकान्तसागर मुनिवर! जिनशासन अमर करो जग में।।५।।
ॐ ह्रीं सप्तमपट्टाचार्यश्रीअनेकांतसागराचार्यपरमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
स्वर्णिम दीपक में घृत बाती को जला आरती करते हैं।
मोहांधकार के नाश हेतु भव्यात्मा आरति करते हैं।।
हे सप्तम पट्टाचार्य प्रवर! युग युग जीवन्त रहो जग में।
हे अनेकान्तसागर मुनिवर! जिनशासन अमर करो जग में।।६।।
ॐ ह्रीं सप्तमपट्टाचार्यश्रीअनेकांतसागराचार्यपरमेष्ठिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
सुरभित चन्दन अरु अगर-तगर की धूप बनाई जाती है।
पूजन में उसे चढ़ाने से वह मूल्यवान बन जाती है।।
हे सप्तम पट्टाचार्य प्रवर! युग युग जीवन्त रहो जग में।
हे अनेकान्तसागर मुनिवर! जिनशासन अमर करो जग में।।७।।
ॐ ह्रीं सप्तमपट्टाचार्यश्रीअनेकांतसागराचार्यपरमेष्ठिने अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल अंगूर व आम्र सरस फल की थाली भर लाए हैं।
मुनिवर के चरण चढ़ाकर शिवफल की अभिलाषा लाए हैं।।
हे सप्तम पट्टाचार्य प्रवर! युग युग जीवन्त रहो जग में।
हे अनेकान्तसागर मुनिवर! जिनशासन अमर करो जग में।।८।।
ॐ ह्रीं सप्तमपट्टाचार्यश्रीअनेकांतसागराचार्यपरमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चन्दन अक्षत पुष्प चरु वर दीप धूप फल लेकर के।
इक अर्घ्य ‘चन्दनामती’ समर्पण करें चलो मुनिवर पद में।।
हे सप्तम पट्टाचार्य प्रवर! युग युग जीवन्त रहो जग में।
हे अनेकान्तसागर मुनिवर! जिनशासन अमर करो जग में।।९।।
ॐ ह्रीं सप्तमपट्टाचार्यश्रीअनेकांतसागराचार्यपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-शेर छंद-
जग में जिनेन्द्र शासन मुनियों से चल रहा।
मुनियों की छवि में मोक्ष का है मार्ग दिख रहा।।
उन मुनि चरण में शांतिधारा करना है जल से।
आत्मीक शांति प्राप्त हो यह भाव है मन में।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
श्री शांति सिंधु उपवन की वृद्धि करो तुम।
आचार्यश्री चिरकाल तक जीवन्त रहो तुम।।
तव पद में पुष्प अंजली कर भावना भाऊँ।
पावन परम्परा की अभिवृद्धि ही चाहूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
तर्ज-आने से जिसके आए बहार………..
हाथों में लेकर पूजन का थाल, मन में लेकर खुशियाँ अपार,
हम सब आए हैं पूजन के लिए।।टेक.।।
रत्नत्रय का मारग, अपनाते हैं पुण्यात्मा जन।
मुक्ति का यह मारग, सबके लिए है अति दुर्लभ।।
जो पाए, हरषाए, हम सब आए हैं पूजन के लिए।।१।।
शांतिसागर गुरुवर, प्रथमाचार्य सदि बीसवीं के।
गुरुओं के गुरु हैं वे, श्रद्धा पात्र हैं हम सभी के।।
नमन करें, उन चरणों में, हम सब आए हैं पूजन के लिए।।२।।
चारित्रचक्री गुरु की, मूल परम्परा में तुम।
सप्तम पट्टाचार्य, बन करके सुशोभित हुए तुम।।
चउसंघ के-आचार्य प्रवर, हम सब आए हैं पूजन के लिए।।३।।
सन् उन्निस सौ त्रेसठ, नौ सितम्बर को जन्मा इक दीपक।
बुन्देलखण्ड गोटेगांव का, बालक बना कुल दीपक।।
ज्ञान मिला, वैराग्य मिला, हम सब आए हैं पूजन के लिए।।४।।
सन् उन्निस सौ निन्यानवे, फाल्गुन शुक्ल एकादशी को।
अभिनन्दन सूरि से, दीक्षा ले बन गये तुम मुनी हो।।
जिनवर के-हे लघुनन्दन, हम सब आए हैं पूजन के लिए।।५।।
माघ वदि चौदस को, आचार्यपद तुमने पाया।
ज्ञानमती जी की शिष्या ‘‘चन्दनामति’’ ने पूजन बनाया।।
वन्दन है-अभिनन्दन है, हम सब आए हैं पूजन के लिए।।६।।
सूरिवर पूजन की, जयमाला का हम अर्घ्य लाए।
भक्ति से चरणों में, इस पूर्णार्घ्य को हम चढ़ाएं।।
चउसंघ का-सम्मान बढ़े, हम सब आए हैं पूजन के लिए।।७।।
ॐ ह्रीं सप्तमपट्टाचार्यश्रीअनेकांतसागराचार्यपरमेष्ठिने जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।