-गीताछन्द-
अरिहंत प्रभु ने घातिया को, घात निज सुख पा लिया।
छ्यालीस गुण के नाथ अठरह, दोष का सब क्षय किया।।
शत इन्द्र नित पूजें उन्हें, गणध्र मुनी वंदन करें।
हम भी प्रभो! तुम वंदना कर नित्य अभिनंदन करें।।1।।
जन्म के दश अतिशयद्ध
-नरेन्द्र छंद-
जन्म समय से ही दश अतिशय, प्रभु के तन मं सोहे।
सौध्र्मेन्द्र बना नित किंकर, प्रभु के मन को मोहे।।
‘‘देह पसेव रहित’’ है प्रभु का, यह अतिशय मन भावे।
जो जन वंदे भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।1।।।
मात गर्भ से जन्में पिफर भी, ‘‘मलमूत्रादि रहित’’ हैं।
मुनि मन को निर्मल करने में, सचमुच आप निमित्त हैं।।
सुर नर असुर इंद्र विद्याध्र, बहु रुचि से गुण गावें।
जो जन वंदे भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।2।।
प्रभु शरीर में ‘‘श्वेत दुग्ध् सम, रुध्रि’’ रहे अतिशायी।
रुध्रि लाल नहिं यह शुभ अतिशय, सब जनमन सुखदायी।।
गणध्रगण नित हर्षित मन से, प्रभु का ध्यान लगावें।
जो जन वंदे भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।3।।
तन सुडौल आकार मनोहर, ‘‘समचतुरड्ड’’ कहावे।
जिस जिस अवयव का जितना है, माप वही मन भावे।।
इस अतिशययुत श्री जिनवर को, हम भी पूजें ध्यावें।
जो जन वंदे भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।4।।
‘‘वज्रवृषभनाराच संहनन’’, उत्तम प्रभु का जानों।
अद्भुत महिमाशाली जिनवर, का शुभ देह बखानों।
इस अतिशय को हम नित पूजें, अतिशय भक्ति बढ़ावें।
जो जन वंदे भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।5।।
कोटिक कामदेव छवि लाजें, ‘‘अतिशय रूप’’ मनोहर।
इंद्र हजार नेत्रा कर निरखें, तृप्त न होवे तो पर।।
सुन्दर सुन्दर सब परमाणू, प्रभु के तन बस जावें।
जो जन वंदे भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।6।।
‘‘महा सुगंध्ति’’ प्रभु का तन है, देव सुमन से बढ़कर।
अन्य सुरभि नहिं है इस जग में, उस सदृश अति सुखकर।।
जन्म समय से ही यह अतिशय, सब जन मन को भावे।
जो जन वंदे भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।7।।
‘‘एक हजार आठ शुभ लक्षण’’, प्रभु के तन में सोहें।
सब सर्वोत्तम गुण के सूचक, त्रिभुवन जन मन मोहें।।
जन्मकाल से ये शुभ लक्षण, सब इनको ललचावें।
जो जन वंदे भक्ति भाव से, परमानन्द सुख पावें।।8।।
तुलना रहित ‘‘अतुलबल प्रभु’’ तन, जग में है न किसी के।
इंक्त चक्रवर्ती से अद्भुत, शक्ती है जिन जी के।।
निज शक्ती के प्रगटन हेतू, हम भी प्रभु गुण गावें।
जो जन वंदे भक्ति भाव से परमानंद सुख पावें।।9।।
प्रिय हित मध्ुर वचन अमृतसम, सबको तृप्त करे हैं।
बाल्यकाल में आप संग में, सुर शिशु आन रमे हैं।।
ऐसे अतिशय युत जिनवर की, हम नित स्तुति गावें।
जो जन वंदे भक्ति भाव से, परमानंद सुख पावें।।10।।
केवलज्ञान के दश अतिशयद्ध
-रोलाछन्द-
चार चार सौ कोश, चारों दिश में जानो।
रहे ‘‘सुभिक्ष सुकाल’’, यह जिन अतिशय मानो।।
केवलज्ञान दिनेश, प्रगट हुआ सुखदायी।
मैं वंदूं शिरनाय, पाऊँ सुख अतिशायी।।1।।
ज्ञान उदय तत्काल, ‘‘नभ में गमन’’ करे हैं।
पांच सहस ध्नु जाय, ऊपर अध्र चले हैं।।
असंख्यात सुर आय, जय जय ध्वनि उचरें हैं।
मैं वंदूं शिरनाय, कर्म कलंक टरे हैं।।2।।
जहाँ गमन प्रभु होय, ‘‘प्राणी बध् न’’ वहाँ पे।
दयासिंध्ु जिनदेव, सबकी दया तहाँ पे।।
मुझ पर भी अब नाथ! दृष्टि दया की कीजे।
मैं वंदूं शिरनाय, रत्नत्राय निध् दीजे।।3।।
कोटि पूरब वर्ष, कुछ कम उसमें जानों।
‘‘कवलाहार विहीन’’, तन की स्थिति सरधनों।
यह अतिशय जिनराज, भविजन श्र ठानें।
जो वंदूं मन लाय, कर्म कुलाचल हानें।।4।।
घाति चतुष्टय घात, यह अतिशय सुखकारी।
सुर नर पशू अजीव, कृत ‘‘उपसर्ग निवारी’’।।
गणध्र मुनिगण नित्य, तुम चरणाम्बुज ध्यावें।
जो पूजें शिरनाय, अक्षय पद को पावें।।5।।
समवसरण में आप, ‘‘चारों दिश मुख’’ दीखे।
पूरब मुख ही आप, या उत्तरमुख तिष्ठे।।
यह अतिशय तुम नाथ! सब जन को सुखदायी।
मैं वंदूं शिरनाय, पाऊँ सुख अतिशायी।।6।।
‘‘सब विद्या के आप, ईश्वर’’ एक कहे हैं।
तुमको पूजत भव्य, सम्यग्ज्ञान लहे हैं।।
यह अतिशय तुम नाथ, सब जन मन को भावे।
मैं वंदूं शिरनाय, मेरे कर्म नशावें।।7।।
परमौदारिक देह, पुद्गलमय कहलावे।
पिफर भी ‘‘छाया हीन’’, यह अतिशय मन भावे।।
कल्पवृक्ष तुम देव, तुम छाया मैं चाहूँ।
वंदूं शीश नमाय, भव भव ताप नशाऊँ।।8।।
‘‘नेत्रा पलक नहिं होत, नहीं टिमकार’’ प्रभू के।
सौम्यदृष्टि नासाग्र, अतिशयवान प्रभू के।।
अंतर्दृष्टी हेतु, मैं भी जिनपद ध्याऊँ।
वंदूं शीश नमाय, पेफर न भव में आऊँ।।9।।
‘‘नहीं बढ़े नख केश’’, केवलज्ञानी प्रभु के।
दिव्य शरीर विशेष, यह अतिशय हैं प्रभु के।।
सम्यक्दर्शन हेतु, मैं त्रायकाल नमूं हूँ।
जन्म मरण भय दुःख, नाशन हेतु भजूँ हूँ।।10।।
देवकृत चैदह अतिशयद्ध
-शंभु छंद-
‘‘सर्वाधर््मागध्ी भाषा’’ है, तीर्थंकर की भवि सुखकारी।
सुरकृत यह अतिशय सब जन के, मन चमत्कार करता भारी।।
जो आतम निध् िके इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।1।।
प्रभु का विहार हो जहां जहां, ‘‘सब प्राणी मैत्राी भाव’’ ध्रें।
सब जाति विरोध्ी जीव वहां, आपस में वैर हरें विचरें।।
जो आतम निध् िके इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हंै।।2।।
जब श्रीविहार होता प्रभु का, औ समवसरण जहां राजे हैं।
‘‘षट्)तु के सब पफल पफलते’’ हैं, सब पूफल खिलें अति भासे हैं।।
जो आतम निध् िके इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।3।।
‘‘दर्पण तलसम भूरत्नमयी’’, जहँ जहँ प्रभु विहरण करते हैं।
यह अतिशय सुरकृत मनहारी, भवि पूजत ही दुख हरते हैं।।
जो आतम निध् िके इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।4।।
अनुकूल पवन है मन्द मन्द, सुरभित सुखकर जन मन हारी।
सब आध्ी व्याध्ी शोक टलें, स्पर्श पवन का हितकारी।।
जो आतम निध् िके इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।5।।
जहँ जहँ प्रभु का हो श्रीविहार, ‘‘सब जन परमानन्दित’’ होते।
परमानन्दामृत पी करके, मुनिगण भी कर्म पंक धेते।।
जो आतम निध् िके इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।6।।
ध्ूलि कंटक आदिक विरहित, ‘‘भूमी अति स्वच्छ’’ सदा दिखती।
प्रभु के विहार के अतिशय से, दुर्भिक्ष मरी व्याध्ी टरती।।
जो आतम निध् िके इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।7।।
सुरभित ‘‘गन्धेदक की वर्षा’’, भक्ती से मेघकुमार करें।
प्रभु का ही अतिशय पुण्यमहा, जो पूजें भवदध् िपार करें।।
जो आतम निध् िके इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।8।।
जहँ जहँ ‘‘प्रभु चरणकमल ध्रते, तहँ तहँ शुभ स्वर्ण कमल’’ खिलते।
सुरकृत अतिशय को देख देख, जन-जन के हृदय कमल खिलते।।
जो आतम निध् िके इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।9।।
शाली आदिक सब ‘‘धन्य भरित, खेती’’ पफल से झुक जाती है।
सुरकृत अतिशय से चहुँदिश में, सुन्दर पृथ्वी लहराती है।।
जो आतम निध् िके इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतु हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।10।।
‘‘आकाश शरद् )तु के सदृश’’, सब ‘‘दशों दिशा ध्ूमादि रहित’’।
भक्ती से जन जन का मन भी, सब पाप पंक से हो विरहित।।
जो आतम निध् िके इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।11।।
आवो आवो सब सुरगण मिल, आवो आवो ‘‘जयकार’’ करो।
जिनवर की अतिशय भक्ती कर, अब मोहराज पर वार करो।।
जो आतम निध् िके इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।12।।
वर ‘‘ध्र्मचक्र’’ सर्वाण्हयक्ष, मस्तक पर धरण करते हैं।
प्रभु के आगे चलते जग में, ये ध्र्मचक्र शुभ करते हैं।।
जो आतम निध् िके इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु की, वंदन करके सुख पाते हैं।।13।।
कलश ध्वज छत्रा चमर दर्पण, भृंगार ताल औ सुप्रतीक।
ये ‘‘मंगलद्रव्य आठ’’ इनको, देवी कर धरें मंगलीक।।
जो आतम निध् िके इच्छुक हैं, वे इन अतिशय को ध्याते हैं।
इस हेतू हम अर्हत्प्रभु को, वंदन करके सुख पाते हैं।।14।।
आठ प्रातिहार्यद्ध
-गीता छन्द-
वर ‘‘प्रातिहार्य अशोक तरुवर’’, शोक जन मन का हरे।
गारुत्मणी के पत्रा सुन्दर, पवन प्रेरित थरहरें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम वंदना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।1।।
सुरगण करें सुरकल्पतरु के, पुष्प की वर्षा घनी।
अतिशय ‘‘सुगंध्ति पुष्प पंक्ती’’, सर्व मन हरसावनी।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम वंदना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।2।।
प्रभु ‘‘दिव्यध्वनि’’ चउकोश तक, गम्भीर ध्वनि करती खिरे।
निर अक्षरी पिफर भी असंख्यों, भव्य को तर्पित करे।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम वंदना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।3।।
‘‘चैंसठ चमर’’ ढोरें अमर बहु, पुण्य संचय कर रहें।
ये चमर मानों कह रहे प्रभु, भक्त ऊरध् गति लहें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम वंदना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।4।।
बहुरत्न संयुत ‘‘सिंहपीठ’’, जिनेश जिस पर राजते।
जो भव्य पूजें नाथ को वे, आत्म ज्योति प्रकाशते।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम वंदना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।5।।
प्रभु देह कांती ‘‘प्रभामंडल’’, कोटि सूर्य तिरस्करे।
भवि सात भव उसमें निरख जिन, विभव लख शिरनत करें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम वंदना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।6।।
‘‘सुरदंुदुभी’’ बजती विविध्, भविलोक को हर्षित करे।
ध्ुनि श्रवणकर जिन दर्शकर,जन पुण्य बहु अर्जित करें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम वंदना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।7।।
जिननाथ के मस्तक उपरि ‘‘त्राय, छत्रा’’ सुन्दर पिफर रहें।
त्रौलोक्य की प्रभुता प्रभू की, है यही सब कह रहें।।
इस प्रातिहार्य समेत जिनवर, की करें हम वंदना।
सब रोग शोक समूल हर हम, करें यम की तर्जना।।8।।
चार अनंत चतुष्टयद्ध
-नाराच छंद-
तीन लोक तीन काल की समस्त वस्तु को।
एक साथ जानता ‘‘अनंत ज्ञान’’ विश्व को।।
जो अनंत ज्ञान युक्त इन्क्त अर्चते जिन्हें।
हर्ष से नमूं उन्हें अनंत ज्ञान हेतु मैं।।1।।
लोक औ अलोक के समस्त ही पदार्थ को।
एक साथ देखता ‘‘अनन्त दर्श’’ सर्व को।।
जो अनन्त दर्शयुक्त इन्द्र अर्चते जिन्हें।
हर्ष से नमूं उन्हें अनन्त दर्श हेतु मैं।।2।।
बाध्हीन जो ‘‘अनन्त सौख्य’’ भोगते सदा।
हो भले अनन्तकाल आवते न ह्यां कदा।।
वे अनन्त सौख्य युक्त इन्द्र अर्चते उन्हें।
हर्ष से नमूं तिन्हें अनन्त सौख्य हेतु मैं।।3।।
जो ‘‘अनन्तवीर्यवान’’ अंतराय को हने।
तिष्ठते अनन्तकाल श्रम नहीं कभी उन्हें।।
वे अनन्त शक्तियुक्त इन्द्र अर्चते उन्हें।
हर्ष से नमूं तिन्हें अनन्त वीर्य हेतु मैं।।4।।
-शंभु छंद-
दश अतिशय जन्म समय से हों, दश केवल ज्ञान उदय से हों।
देवोंकृत चैदह अतिशय हों, चैंतिस अतिशय सब मिलकें हो।।
वर प्रातिहार्य हैं आठ कहें, सु अनन्त चतुष्टय चार कहें।
इन छ्यालिस गुणयुत अर्हत को, नमि ‘ज्ञानमती’ कैवल्य लहें।।5।।