-गीताछंद-
जो नित्य मुक्तीमार्ग रत्नत्राय स्वयं साध्ें सही।
वे साधु संसाराब्ध् ितर पाते स्वयं ही शिव मही।।
वहं पे सदा स्वात्मैक परमानंद सुख को भोगते।
उनकी करें हम वंदना, वे भक्त मन मल धेवते।।1।।
-सोरठा-
द्विविध् मोक्षपथ मूल, अट्ठाइस हैं मूलगुण।
नित्य रहे हैं साध्, अतः साध्ु कहलावते।।2।।
-नरेंद्र छंद-
जीव समास योनि आदि को,जान जीव वध् टालें।
‘‘परम अहिंसा महाव्रती’’ वे, स्वपर दया नित पालें।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।3।।
रागादिक से असत न बोलें, सदा सत्य वच बोलें।
अन्य तापकर ‘‘सत्य वचन’’ भी, कभी न मुख से बोले।।
‘‘सत्यमहाव्रति’’ मुनि रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।4।।
पर की वस्तु शिष्य या पर के,बिना दिये नहिं लेवें।
मुनि पद योग्य वस्तु यत्किंचित्, दी जाने पर लेवें।।
जो ‘‘आचैर्य महाव्रति’’ गुण, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।5।।
सब स्त्राी को माता पुत्राी, भगिनी सम अवलोकें।
त्रिभुवन पूजित ‘‘ब्रह्मचर्यव्रत’’, धरें निज अवलोकें।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।6।।
जीवाश्रित या अजीव आश्रित, परिग्रह सर्व निवारे।
पिच्छी आदिक त्याग सके नहिं, उनमें ममत न धरें।।
‘‘परिग्रह त्याग महाव्रत’’, का जो नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।7।।
दिन में प्रासुकपथ से चउकर, देख कार्यवश चलते।
जीव दया पालें वे मुनिवर, ‘‘ईर्या समिती’’ ध्रते।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।8।।
कर्कश हास्य पिशुन पर निंदा, विकथादिक को टालें।
स्वपर हितंकर मित्रा वच बोलें, ‘‘भाषा समिती’’ पालें।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।9।।
नवकोटि से शु( अशन ले, छ्यालिस दोष निवारें।
शीत उष्ण में समभावी हों, ‘‘एषणसमिति’’ धरें।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।10।।
पिच्छि कमंडलु शास्त्रा उपकरण, संस्तर आदि उपध् िहैं।
देख शोध्कर लेते ध्रते, चैथी समिति सहित हैं।।
जो ‘आदान निक्षेपण समिति’’, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।11।।
जीवरहित एकांत भूमि में, मल मूत्रादिक तजते।
वे ‘‘उत्सर्ग समिति’’ धरी मुनि, निष्प्रमाद नित वरतें।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।12।।
मृदु कठोर आदिक स्पर्श जो, सुखकर या दुखकर हैं।
उनमें राग द्वेष नहिं करते, ‘‘स्पर्शेंद्रिय वशकर’’ है।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।13।।
सरस रुक्ष या प्रिय अप्रियकर, दिये गये भोजन में।
आसक्ती निंदा नहिं करते, ‘‘रसनंेद्रिय जय’’ उनमें।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।14।।
अति सुगंध् या दुर्गंध्ति में, प्रीति अप्रीति न धरें।
‘‘घ्राणेन्द्रिय का जय’’ करके मुनि, स्वात्म कीर्ति विस्तारें।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।15।।
नानाविध् के रूप मनोहर, या अमनोहर होते।
उनमें राग द्वेष नहीं कर, मुनि ‘‘चक्षू जय’’ कर होते।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।16।।
चेतन और अचेतन के जो, शब्द मध्ुर या कटु हों।
हर्ष विषाद न किंचित् मन में, ‘‘श्रोत्राजयी’’ मुनि सच वो।।
निश्चय और व्यवहार रत्नत्राय, का नित साध्न करते।
ऐसे गुरु को शीश नमाकर, हम आराध्न करते।।17।।
-कुसुमलता छन्द-
षट् आवश्यक में ‘‘समता’’ है,सुख दुःखादिक में समभाव।
तीन काल सामायिक विध्वित्, कर मुनि शमन करें दुखदाव।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक, नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।18।।
चैबिस तीर्थंकरों का ‘‘स्तवन’’, विध्वित् नित्य करें ध्र चाव।
ध्र्म ध्यान और शुक्ल ध्यान ध्र, हरते सर्व दुष्ट दुर्भाव।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक, नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।19।।
एक तीर्थंकर या मुनिवर की, करें ‘‘वंदना’’ भक्ति बढ़ाय।
कृतीकर्म विध्वित् कर करके, उनके शु(भाव अध्किाय।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक, नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।20।।
व्रत में दोष हुए प्रमाद से, उनको जो मुनि क्षालन हेत।
मेरा दुष्कृत मिथ्या होवे, ऐसा कह ‘‘प्रतिक्रमण’’ करेत।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक, नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।21।।
भावी काल दोष को त्यागें, तथा तपस्या हेतु सदैव।
आहारादि त्याग कर देते, ‘‘प्रत्याख्यान’’ करें गुरुदेव।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक, नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।22।।
दैवसिकादि क्रियाओं में जो, शास्त्रा कथित उच्छ्वास समेत।
‘‘कायोत्सर्गविध्’ि’ करते हैं, वे मुनि हरें सकल भव खेद।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक, नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।23।।
दो या तीन मास या चउ में, कर उपवास करें ‘‘कचलोच’’।
उत्तम मध्यम जघन रीति यह, केश उखाड़े नहिं मन शोच।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक, नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।24।।
वस्त्राभूषण अलंकार सब, तजकर ध्रें दिगंबर वेष।
यथाजात बालकवत् रहते, ‘‘आचेलक’’ मन लेश न क्लेश।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक, नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।25।।
नहिं स्नान करें मुनि कबहूँ, स्वेदध्ूलि मन लिप्त शरीर।
संयम औ वैराग्य हेतु ही, यह ‘‘अस्नान’’ गुण ध्रें सुध्ीर।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक, नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।26।।
भूमि शिला पाटे या तृण पर, शयन करें ‘‘भूशयन’’ व्रतीश।
गृही योग्य मृदु कोमल शÕया, तजकर होते स्वात्मरतीश।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक, नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।27।।
मंजन आदिक से दाँतों का, घर्षण नहिं करते गतराग।
वे ‘‘अदंतधवनव्र्रतधरी’’, उनका आत्म गुणों में राग।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक, नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।28।।
तीन भूमि का कर अवलोकन,भित्ति आदि का नहिं आधर।
अंजलि पुट में मिले अशन का, खडे़-खड़े करते आहार।।
यह ‘‘स्थितिभुक्ती’’ गुण पालें, नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।29।।
सूर्य उदय औ अस्तकाल का, छह-छह घड़ी रहित मध्किाल।
दिन में एक बार भोजन लें, ‘‘एक भक्तधरी’’ गुण माल।।
परम अतींद्रिय सुख के इच्छुक, नितप्रति-स्वात्मतत्व का ध्यान।
उन मुनिवर को नित्य नमूं मैं, पाऊँ स्वपर भेदविज्ञान।।30।।
-शंभु छंद-
व्रत समिति इन्द्रियवश आवश्यक पंच-पंच पण षट् मानों।
कचलोच अचेलक अस्नानं, क्षितिशयन अदंतधवन जानों।।
स्थितिभोजन एकभक्त ये सब अट्ठाइस गुण जो मूल कहें।
इन संयुत सब साध्ूगण को, वंदत ‘सुज्ञानमति’ पूर्ण लहें।।31।।
पंचपरमेष्ठी वंदना
-दोहा-
चिन्मय चिंतामणि सकल, चिंतित पफल दातार।
तुम गुणलव भी गाय के, पाऊँ सौख्य अपार।।1।।
-शंभु छंद-
जय जय जिन मोह अरी हन के, अरिहंत नाम तुमने पाया।
जय जय शतइंद्रों से पूजित, अर्हत का यश सबने गाया।।
प्रभु गर्भागम के छह महिने, पहले ही सुरपति आज्ञा से।
ध्नपति ने रत्नमयी पृथ्वी, कर दी रत्नों की धरा से।।2।।
श्री ” ध्ृति आदिक देवीगण, माता की सेवा खूब करें।
माता की गर्भ शु( करके, निज का नियोग सब पूर्ण करें।।
तीर्थंकर माँ पिछली रात्राी, में सोलह स्वप्नों को देखें।
प्रातः प्राभातिक विध् िकरके, आकर पति से उन पफल पूछें।।3।।
त्रिभुवनपति जननी तुम होंगी,पति के मुख से पफल सुन करके।
रोमांचित हो जाती माता, अतिशय सुख का अनुभव करके।।
जब प्रभु तुम गर्भ बसे आके, इंद्रों ने उत्सव खूब किया।
पन्द्रह महीनों तक रत्नवृष्टि, करके सब दारिद दूर किया।।4।।
जब जन्म लिया तीर्थेंश्वर ने, त्रिभुवन जन में आनंद हुआ।
इंद्रों द्वारा मंदरगिरि पर, प्रभु का अभिषेक प्रबंध् हुआ।।
जब प्रभु के मन वैराग्य हुआ, लौकांतिक सुरगण भी आये।
प्रभु की स्तवन विध्ी करके, श्र(ा भक्तीवश हरषाये।।5।।
दीक्षा कल्याणक उत्सव कर, इंद्रों ने अनुपम पुण्य लिया।
जब केवलज्ञान हुआ प्रभु को, जन जन ने निज को ध्न्य किया।।
अनुपम वैभवयुत समवसरण, द्वादश कोठे में भवि बैठें।
अरिहंत अनंतचतुष्टय युत, सब जन को हितकर उपदेशें।।6।।
इन पंच कल्याणक के स्वामी, तीर्थंकरगण ही होते हैं।
कुछ दो या तीन कल्याणक पा, निज पर का कल्मष धेते हैं।।
बहुतेक भविक निज तप बल से, चउ घाति कर्म का घात करें।
ये सब अरिहंत कहाते हैं, जो केवलज्ञान विकास करें।।7।।
जिन अष्टकर्म को नष्ट किया, लोकाग्र विराजें जा करके।
वे सि( हुए कृतकृत्य हुए, निज शाश्वत सुख को पा करके।।
आचार्य परमगुरु चतुःसंघ, अध्निायक गणध्र कहलाते।
जो पढे़ पढ़ावें जिनवाणी, वे उपाध्याय निज पद पाते।।8।।
जो करें साध्ना निज की नित, वे साध्ु परम गुरु माने हैं।
ये पंच परमगुरु भक्तों के, अगणित दुःखों को हाने हैं।।
ये पांचों ही मंगलकारी, लोकोत्तम शरणभूत माने।
इनकी शरणागत आकर के, निज कर्म कुलाचल को हाने।।9।।
इनकों त्रिकरण शुचि कर वंदूं, औ नमस्कार भी नित्य करूँ।
निज हृदय कमल में धरण कर, सम्पूर्ण अमंगल विघ्न हरूँ।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे मम बोध् िलाभ होवे।
मुझ सुगति गमन व समाध्मिरण, होकर जिनगुण संपत्ति होवे।।10।।
-दोहा-
तुम पदभक्ति अमोघ शर, करे मृत्यु का घात।
केवल फ्ज्ञानमतीय् सहित, मिले मुक्ति साम्राज।।11।।