अरहंत परमेष्ठी स्तोत्रा
-दोहा-
श्री अरिहंत जिनेन्द्र का, ध्रूँ हृदय में ध्यान।
मन वच तन से नित नमूं हरूँ सकल अपध्यान।।1।।
-शंभु छंद-
जय जय प्रभु तीर्थंकर जिनवर, तुम समवसरण में राज रहे।
जय जय अर्हत् लक्ष्मी पाकर, निज आतम में ही आप रहे।।
जन्मत ही दश अतिशय होते, तन में न पसेव न मल आदी।
पय समसित रुध्रि सु समचतुष्क, संस्थान संहनन है आदी।।2।।
अतिशय सुरूप, सुरभित तनु है, शुभ लक्षण सहस आठ सोहें।
अतुलितबल प्रियहितवचन प्रभो, ये दशअतिशय जनमन मोहंे।।
केवल रविप्रगटित होते ही दश, अतिशय अद्भुत ही मानों।
चारों दिश इक इक योजन तक, सुभिक्ष रहे यह सरधनो।।3।।
हो गगन गमन, नहिं प्राणीबध्, नहिं भोजन नहिं उपसर्ग तुम्हें।
चउमुख दीखे सब विद्यापति, नहिं छाया नहिं टिमकार तुम्हें।।
नहिं नख औ केश बढ़ें प्रभु के, ये दश अतिशय सुखकारी हैं।
सुरकृत चैदह अतिशय मनहर, जो भव्यों को हितकारी हैं।।4।।
सर्वाधर््मागध्ीया भाषा, सब प्राणी मैत्राी भाव ध्रें।
सब )तु के पफल और पूफल खिलें, दर्पणवत् भूमि भाव ध्रें।।
अनुकूल सुगंध्ति पवन चले, सब जन मन परमानन्द भरें।
रजकंटक विरहित भूमि स्वच्छ, गंधेदक वृष्टी देव करें।।5।।
प्रभु पद तल कमल खिलें सुन्दर,शाली आदिक बहुधन्य पफलें।
निर्मल आकाश दिशा निर्मल, सुरगण मिल जय जयकार करें।।
अरिहंत देव का श्रीविहार, वर ध्र्मचक्र चलता आगे।
वसुमंगल द्रव्य रहें आगे, यह विभव मिला जग के त्यागे।।6।।
तरुवर अशोक सुरपुष्प वृष्टि, दिव्यध्वनि, चैंसठ चमर कहें।
सिंहासन भामंडल सुरकृत, दुंदुभि छत्रात्राय शोभ रहें।।
ये प्रातिहार्य हैं आठ कहे, औ दर्शन ज्ञान सौख्य वीरज।
ये चार अनंत चतुष्टय हैं, सब मिलकर छ्यालिस गुण कीरत।।7।।
क्षुध् तृषा जन्म मरणादि दोष, अठदश विरहित निर्दोष हुए।
चउ घाति घात नवलब्ध् िपाय, सर्वज्ञ प्रभू सुखपोष हुए।।
द्वादशगण के भवि असंख्यात, तुम ध्ुनि सुन हर्षित होते हैं।
सम्यक्त्व सलिल को पाकर के भवभव के कलिमल धेते हैं।।8।।
मैं भी भवदुःख से घबड़ा कर, अब आप शरण में आया हूँ।
सम्यक्त्व रतन नहिं लुट जावे, बस यही प्रार्थना लाया हूँ।।
संयम की हो पूर्ती भगवन्! औ मरण समाध्ी पूर्वक हो।
हो केवल ‘ज्ञानमती’ सि जो सर्व गुणों की पूरक हो।।9।।
-दोहा-
मोह अरी को हन हुए, त्रिभुवन पूजा योग्य।
नमूं नमूं अरिहंत को, पाऊँ सौख्य मनोज्ञ।।10।।