-गीता छंद-
वर पंचकल्याणक जगत में, इंद्रगण से वंद्य हैं।
त्रैलोक्यपति तीर्थंकरों की, चरणरज से धन्य हैं।।
मैं स्वात्मसिद्धी प्राप्ति हेतू, सर्व तीर्थों को नमूॅूं।
मन वचन तन से भक्ति कर, सम्पूर्ण कल्याणक भजूँ।।१।।]
(जम्बूद्वीप तीर्थ स्तोत्र)
-दोहा-
तीर्थंकर कल्याण से, भूमी पावन मान्य।
भक्तिभाव से वंदते, भव्य लहें धन-धान्य।।२।।
भरतक्षेत्र में जन्म भू, तीर्थ अयोध्या आदि।
जन्मभूमि सोलह प्रथित, नमत मिटे भव व्याधि।।३।।
वर प्रयाग अहिछत्र अरु, तीर्थ जृंभिका ख्यात।
दीक्षा ज्ञानकल्याण थल, नमत सुगुण हों प्राप्त।।४।।
अष्टापद सम्मेदगिरि, चम्पापुर गिरनार।
पावापुर निर्वाणस्थल, नमत होउं भवपार।।५।।
मांगीतुंगी आदि हैं, सिद्धक्षेत्र बहुतेक।
भक्तिभाव से नित्य ही, नमूँ नमूँ शिरटेक।।६।।
अतिशयस्थल महावीर जी, कचनेर आदि प्रसिद्ध।
अतिशय सुख की प्राप्ति हो, नमत कार्य सब सिद्ध।।७।।
भरतक्षेत्र में तीर्थ सब, त्रैकालिक सुरवंद्य।
कहे अनंतानंत ही, नमत मिटे भवफंद।।८।।
जम्बूद्वीप के भरत में, तीर्थ अनंतानंत।
त्रैकालिक हुये होयंगे, नमूँ करूँ भव अंत।।९।।
(धातकीखण्डद्वीप तीर्थ स्तोत्र)
पूर्वधातकी खंड में, कर्मभूमि चौंतीस।
तीर्थंकर कल्याणभू, नमूँ नमाकर शीश।।१०।।
पूर्व धातकी खण्ड में, आर्यखण्ड में साधु।
सिद्ध व अतिशय क्षेत्र हैं, नमूँ मिले निजस्वाद।।११।।
अपर धातकीखण्ड में, चौतीस आरज खंड।
तीर्थंकर कल्याणथल, नमत पाप शतखंड।।१२।।
पश्चिम धातकि द्वीप में, मुनिगण त्रयकालीक।
मुक्ति गये थल मैं नमूँ, क्षेत्र अतिशयादीक।।१३।।
द्वीप धातकीखण्ड में, कर्मभूमि अड़सष्ठ।
पंचकल्याणक आदि सब, तीर्थ नमूँ हो ठाठ।।१४।।
(पुष्करार्धद्वीप तीर्थ स्तोत्र)
-दोहा-
पूरब पुष्कर अर्ध में, कर्मभूमि चौंतीस।
तीर्थंकर कल्याणथल, नमूँ नमाकर शीश।।१५।।
पुष्करार्ध पूरब तरफ, चौंतिस आरजखंड।
सिद्धक्षेत्र अतिशय सुथल, नमूँ करूँ अघ खंड।।१६।।
पश्चिम पुष्कर अर्ध में, चौंतिस आरजखंड।
तीर्थंकर कल्याणक भू, नमत पाप शतखंड।।१७।।
पश्चिम पुष्कर द्वीप में, कर्मभूमि चौंतीस।
अतिशयस्थल निर्वाणस्थल, नमूँ नमाकर शीश।।१८।।
द्वीप सुपुष्कर अर्ध में, अड़सठ आरजखंड।
पंचकल्याणक आदि सब, तीर्थ नमूँ सुख कंद।।१९।।
-शंभु छंद-
इस जम्बूद्वीप में चौंतिस हैं, धातकीखण्ड में अड़सठ हैं।
वर पुष्करार्धद्वीप में भी, सब अड़सठ कर्मभूमि शुभ हैं।।
ये इक सौ सत्तर कर्मभूमि में, आर्यखण्ड व विजयार्ध में।
लवणोदधि कालोदधि में भी, कल्याणक तीरथ आदिक हैं।।२०।।
चाल—हे दीनबंधु………….
जैवंत मुक्तिकन्त देव देव हमारे।
जैवंत भक्त जंतु भवोदधि से उबारें।।
हे नाथ! आप जन्म के छह मास ही पहले।
धनराज रत्नवृष्टि करें मातु के महले।।२१।।
माता की सेवा करती थीं श्री आदि देवियाँ।
अद्भुत अपूर्व भाव धरें सर्व देवियाँ।।
जब आप मात गर्भ में अवतार धारते।
तब इन्द्र सपरिवार आय भक्तिभाव से।।२२।।
प्रभु गर्भकल्याणक महा उत्सव विधी करें।
माता-पिता की भक्ति से पूजन विधी करें।।
हे नाथ! आप जन्मते सुरलोक हिल उठे।
इन्द्रासनों के कंप से आश्चर्य हो उठे।।२३।।
इन्द्रों के मुकुट आप से ही आप झुके हैं।
सुरकल्पवृक्ष हर्ष से ही फूल उठे हैं।।
वे सुरतरु स्वयमेव सुमनवृष्टि करे हैं।
तब इन्द्र आप जन्म जान हर्ष भरे हैं।।२४।।
तत्काल इन्द्र सिंहपीठ से उतर पड़ें।
प्रभु को प्रणाम करके बार-बार पग पड़ें।।
भेरी करा सब देव का आह्वान करे हैं।
जन्माभिषेक करने का उत्साह भरे हैं।।२५।।
सुरराज आ जिनराज को सुरशैल ले जाते।
सुरगण असंख्य मिलके महोत्सव को मनाते।।
जब आप हों विरक्त देव सर्व आवते।
दीक्षाविधि उत्सव महामुद से मनावते।।२६।।
जब घातिया को घात ज्ञानसम्पदा भरें।
तब इन्द्र आ अद्भुत समवसरण विभव करें।
तुम दिव्य वच पीयूष को पीते असंख्यजन।
क्रम से करें वे मुक्तिवल्लभा का आलिंगन।।२७।।
जब आप मृत्यु जीत मुक्तिधाम में बसें।
सिद्ध्यंगना के साथ परमानंद सुख चखें।।
सब इन्द्र आ निर्वाण महोत्सव मनावते।
प्रभु पंचकल्याणकपती को शीश नावते।।२८।।
इन ढाईद्वीप में समस्त कर्मभूमि में।
आचार्य उपाध्याय साधुओं को नित नमें।।
वे साधु कर्मनाश मोक्ष प्राप्त कर रहे।
उन सबको नमूँ भक्ति से वे सिद्ध हो रहे।।२९।।
सब गणधरों के चरण-कमल नित्य मैं नमूँ।
उनके सभी निर्वाणक्षेत्र को भि नित नमूँ।।
सब तीन न्यून नव करोड़ साधु को नमूँ।
उनके समाधिक्षेत्र-मुक्तिक्षेत्र को नमूँ।।३०।।
जो ब्राह्मी आदि गणिनी और आर्यिकाएँ भी।
इन सबकी वंदना से गुणरत्न भरें भी।।
इनके समाधिक्षेत्र भी पवित्र मान्य हैं।
उनकी करूँ मैं वंदना वे सौख्य खान हैं।।३१।।
इन सर्व तीर्थक्षेत्र की मैं वंदना करूँ।
निज आत्मा को तीर्थ बनाकर सुखी करूँ।।
अतिशायि क्षेत्र की सदैव वंदना करूँ।
सम्पूर्ण अतिशयों से स्वात्म संपदा भरूँ।।३२।।
जिन पादपद्म से पवित्र तीर्थ बन रहे।
उन तीर्थनाथ को हृदय में धार सुख लहें।।
तीर्थंकरों को तीर्थ को निर्वाण तीर्थ को।
मैं बार-बार नित्य नमूँ सिद्धि हेतु जो।।३३।।
हे नाथ! आप कीर्ति कोटि ग्रंथ गा रहे।
इस हेतु से ही भव्य आप शरण आ रहे।।
मैं आप शरण पाय के सचमुच कृतार्थ हूँ।
बस ‘ज्ञानमती’ पूर्ण होने तक ही दास हूँ।।३४।।
-दोहा-
त्रैकालिक ये तीर्थ सब, कहे अनंतानंत।
नमूूँ अनंतों बार मैं पाऊँ सौख्य अनंत।।३५।।
तीनलोक की सम्पदा, करें हस्तगत भव्य।
तुम गुणमणि को कंठधर, पूरें सब कर्तव्य।।३६।।
पाँच कल्याणक पुण्यमय, हुए आपव नाथ।
बस एकहि कल्याण मुझ, कर दीजे हे नाथ।।३७।।