—शंभु छंद—
श्री सिद्धशिला नरलोक मात्र पैंतालिस लाख सुयोजन है।
त्रैलोक्य शिखर पर अष्टम भू, पर रुक्मी१ अर्ध चंद्र सम है।।
श्री सिद्ध अनंतानंत इसी पर तिष्ठें अष्ट गुणान्वित हैं।
मैं भक्ती से इनको वंदूँ, ये देते सौख्य अपरिमित हैं।।१।।
-दोहा-
सिद्ध शिला को वंदते, सर्व कार्य हों सिद्ध।
भक्ति भाव से नित नमूँ, हों प्रसन्न सब सिद्ध।।२।।
-शंभु छंद-
इस जम्बूद्वीप में सात क्षेत्र, में कर्म भोग भू आदिक हैं।
निज इच्छा से उपसर्गादिक, से सिद्ध हुये मुनि आदिक हैं।।
जिस जिस थल से निर्वाण गये, बस वहीं शिला पर पहुँच गये।
उन सब सिद्धों को वंदूँ मैं, मेरे सब वांछित सिद्ध भये।।३।।
इस द्वीप में सत्रह लाख बानवे, हजार नब्बे नदियां हैं।
ये शाश्वत हैं कृत्रिम उपसागर, सरवर आदिक नदियाँ हैं।।
इन नदियों से उपसर्ग आदि से, बहुत मुनीश्वर मुक्त हुये।
उन सब सिद्धों को वंदूँ मैं, मेरे सब इच्छित पूर्ण हुये।।४।।
इस जंबूद्वीप में मेरु आदि, त्रय शत ग्यारह पर्वत मानों।
ये शाश्वत हैं कृत्रिम बहुते, सम्मेदशिखर आदिक जानों।।
इनसे इन मध्य गुफाओं से, मेरु की मध्य गुफा से भी।
वृक्षादिक से जो सिद्ध हुये, इन नभ सिद्धों को नमूँ अभी।।५।।
लवणोदधि में लंकादि द्वीप, कूभोगभूमि बहु स्थल हैं।
वहाँ से जो मुनिवर मुक्त हुये, उपसर्ग व इच्छा के वश हैं।।
इन सब सिद्धों को वंदूँ नित, ये भव दुख हरने वाले हैं।
ये स्थलसिद्ध अनंतें हैं ये, सब सुख करने वाले हैं।।६।।
द्वीपों के नदी सरोवर से, लवणोदधि के जल ऊपर से।
उपसर्ग आदि के कारण से, बहुते मुनिवर शिवपुर पहुँचे।।
इन सब सिद्धों को वंदूँ नित, ये परमानंदांबुधि में न्हावें।
ये जल से सिद्ध अनंतें हैं, इनको वंदत निज सुख पावें।।७।।
लवणोदधि मध्य हंस द्वीप, लंकादि द्वीप में पर्वत हैं।
इन पर से सिद्ध हुये जो मुनि, उपसर्ग आदि के कारण हैं।।
लवणोदधि वेदी ऊपर से, या वहीं अन्य वृक्षादिक से।
जो सिद्ध हुये उनको वंदूँ, जिससे निजात्म शक्ती प्रगटे।।८।।
वरद्वीप धातकी खंड द्वितिय, में कर्मभूमि अरु भोगभूमि।
वन उपवन की भूआदि स्थल, से सिद्ध हुये पावनभूमी।।
तीर्थंकरगण मुनिगण बहुते, सब कर्म काटकर मुक्त हुये।
उपसर्ग आदि से सब थल से, उन वंदत सौख्य अनंत लिये।।९।।
इस द्वीप धातकी में कृत्रिम, अकृत्रिम अगणित नदियाँ हैं।
सब आर्यखंड में उपसागर, सरवर कूपादिक नदियाँ हैं।।
इन सबके जल के ऊपर से, बहुतेक साधु गण मुक्ति गये।
चारण ऋद्धीधर या उपसर्ग, आदि से हम उन नमत भये।।१०।।
इस धातकि में दो मेरु अन्य, अगणित पर्वत कूटादिक हैं।
धात्री तरु शाल्मलितरु आदि, बहुविध उपवन तरु आदिक हैं।।
इन नभस्थान से सिद्ध हुये, ऋद्धीबल उपसर्गादिक से।
उन सब सिद्धों को वंदूँ मैं आतमनिधि मिल जावे जिससे।।११।।
कालोदधि मध्य कुभोगभूमि, से मागध आदि द्वीप थल से।
चारणऋषि या उपसर्ग आदि, कारण से मुनि शिवपुर पहुँचे।।
वर द्वीप जलधि के वेदी के, थल से भी जो मुनि सिद्ध हुये।
उन सब सिद्धों को वंदूँ मैं, ये मेरे सिद्धि निमित्त हुये।।१२।।
कालोदधि के जल से कुभोगभूमि के नदी सरोवर से।
चारण ऋषि मुनि या उपसर्गादिक, से मुनिगण शिवपुर पहुंचे।।
इन जल से मुक्ति प्राप्त मुनि को, हम नितप्रति शीश झुकाते हैं।
इन सब सिद्धों को शीश नमाकर, शिव की आश लगाते हैं।।१३।।
इस सागर मध्य कुभोगभूमि, मागध सुर आदि निवास बनें।
उनमें जो पर्वत कूट शिखर, तरु आदि नभस्थल हों जितने।।
उन पर से जो मुनि सिद्ध हुये, उन सबको वंदन करते हैं।
सब इष्ट वियोग अनिष्ट योग, टल जावे स्तवन करते हैं।।१४।।
पुष्करवर द्वीप मध्य वलयाकृति मनुजोत्तर पर्वत सोहे।
इस परे मनुष नहिं जा सकते, इस तक नरलोक चित्त मोहे।।
इसमें जो कर्मभूमि अरु भोगभूमि वन उपवन स्थल हैं।
उन सबसे सिद्ध हुये जिनवर, मुनिगण उन सबको वंदन है।।१५।।
इस पुष्करार्ध में गंगादिक, अगणित अकृत्रिम नदियां हैं।
कृत्रिम सरवर कूपादि तथा, उपसागर आदिक नदियां हैं।।
इन जल से चारण बल से या, उपसर्ग आदि से सिद्ध हुये।
उन सबको वंदूँ शीश नमा, मेरे सब मनरथ सफल हुये।।१६।।
इस पुष्करार्ध में दो मेरु, हिमवन आदिक बहुपर्वत हैं।
शाश्वत पर्वत कृत्रिम पर्वत, इन गुफा कंदरा आदिक हैं।।
इन ऊपर से मुनि सिद्ध हुये, पुष्कर शाल्मलि तरु आदिक से।
इन सब सिद्धों को वंदूँ मैं, रत्नत्रय निधी मिले जिससे।।१७।।
यह सिद्धशिला पैंतालिस लाख, सुयोजन मनुज लोक प्रम है।
सर्वत्र अनंतानंत सिद्ध से, भरी अकृत्रिम अनुपम है।।
गणधर मुनिगण से वंद्य शिला, इसको मेरा शत शत वंदन।
यह सिद्ध शिला जब तक न मिले, तब तक इसको शत शत वंदन।।१८।।
इन ढाई द्वीप दो सागर तक, पैंतालिस लाख सुयोजन है।
यह मनुज लोक इसमें ही मानव, मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।।
इसमें थल जल पर्वत चोटी, आदिक सब थल से सिद्ध हुये।
अणुमात्र जगह नहिं रिक्त यहाँ, सब सिद्धों को मैं धरूँ हिये।।१९।।
चाल-शेर……..
जय जय त्रिलोक शिखर अग्र सिद्ध शिला है।
जय जय त्रिलोक शिखर अग्र मोक्ष इला१ है।।
जय जय अनंतानंत सिद्ध इसपे राजते।
जय जय त्रिकाल सिद्ध अनंत गुण से भासते।।२०।।
सर्वार्थसिद्धि इंद्रक के ध्वजादंड से।
बारह सुयोजनोपरि भू आठवीं लसे।।
यह पूर्व अपर दिश में सुएक राजू है।
उत्तर दखिन के कुछ कम यह सात राजु है।।२१।।
योजन सुआठ मोटी वायूवलय घिरी।
घनउदधि घनवायु तनुवायु से घिरी।।
इस मध्य ‘ईषत्प्राग्भार’ नाम क्षेत्र है।
चांदी सुवर्ण रत्नपूर्ण सिद्धक्षेत्र है।।२२।।
उत्तान धवल छत्र सदृश सिद्धशिला ये।
योजन सुपैंतालिस लाख सिद्धशिला ये।।
ये आठ योजन मध्य में फिर अंत तक घटती।
नरलोक के प्रमाण है इस क्षेत्र की परिधी।।२३।।
यह अर्ध चंद्रसम त्रिलोक अग्रभाग में।
अनंत अनंत सिद्ध वहां राजते निज में।।
तीर्थेश होके सिद्ध अनंते वहाँ तिष्ठे।
तीर्थेश बिना सिद्ध अनंतानंत वहाँ पे।।२४।।
जल थल व गगन से अनंत सिद्ध हुये हैं।
सामान्यकेवलि अंतकृत केवलि भि सिद्ध हैं।।
उत्कृष्ट पाँच सौ पचीस धनु शरीर से।
जघन्य साढ़े तीन हाथ देह मात्र से।।२५।।
मध्यम अनेक विधि की अवगाहना धरें।
ये सिद्ध हुये हम उन्हों को चित्त में धरें।।
जो ऊर्घ्व लोक अधोलोक तिर्यक लोक से।
सब कर्म नाश सिद्ध हुये मर्त्यलोक से।।२६।।
उत्सर्पिणि अवसर्पिणी के छहों काल से।
उपसर्ग निमित्त सिद्ध हुये नमूँ भाल से।।
उपसर्ग बिना सिद्ध चौथे काल से हुये।
इन पाँच भरत पांच ऐरावत से शिव गये।।२७।।
दो ज्ञान त्रय व चार से वैâवल्य पायके।
जो सिद्ध हुये हैं अनंत सौख्य पायके।।
जो साधु संहरण से सिद्ध हो गये यहां।
बिन संहरण अनंत सिद्ध हो रहे यहां।।२८।।
कुछ साधु समुद्घात करके सिद्ध हुये है।
कुछ केवली बिन समुद्घात सिद्ध हुये हैं।।
खड्गासनों से सिद्ध भी अनंत हुये हैं।
पद्मासनों से भी अनंत सिद्ध हुये हैं।।२९।।
सब द्रव्य से पुंवेदी ही सिद्ध हुये हैं।
हां भाव से त्रय वेद से भी सिद्ध हुये हैं।।
प्रत्येक बुद्ध स्वयंबुद्ध सिद्ध हुये हैं।
बोधित प्रबुद्ध भी अनंत सिद्ध हुये हैं।।३०।।
सब आठ कर्म नाश करके सिद्ध हुये हैं।
वे इक सौ अड़तालीस प्रकृति नष्ट किये हैं।।
सब सिद्ध अंतिम देव से कुछ न्यून कहे हैं।
इस विध से अन्त्यदेह के आकार रहे हैंं।।३१।।
ये सर्व सिद्ध गुण अनंतानंत धारते।
ये सर्व सिद्ध सुख अनंतानंत धारते।।
ये सर्व सिद्ध जन्म मरण शून्य हो गये।
ये सर्व सिद्ध ज्ञान गुण से पूर्ण हो गये।।३२।।
इन ढाई द्वीप से अनंत सिद्ध हुये हैं।
दो ही समुद्र से अनंत सिद्ध हुये हैं।।
नरलोक में सब एक सौ सत्तर हैं कर्मभू।
उनमें जनम को प्राप्त करें मनुज मुक्तिभू।।३३।।
नरलोक में अणुमात्र भी ना रिक्त थान है।
जहां से न हुये सिद्ध सब निर्वाण स्थान है।।
मेरू की चूलिका से भी सिद्ध हुये हैं।
वे मेरु की गुफा से ही सिद्ध हुये हैं।।३४।।
आनंतानंत सिद्धों की वंदना करूँ।
मैं नित अनंतानंत बार वंदना करूँ।।
श्री सिद्धशिला को नमूँ मैं भक्ति भाव से।
ये सिद्धशिला प्राप्त करूँ भक्ति भाव से।।३५।।
-दोहा-
नमूँ सिद्ध परमात्मा, सिद्धशिला मुनिवंद्य।
‘ज्ञानमती’ गुण पूर्णकर, पाऊँ परमानंद।।३६।।