-दोहा-
शांतिसागराचार्यगुरु, मोक्षमार्ग के रूप।
मन वच तनु से नित नमूँ, पाऊँ स्वात्म स्वरूप।।१।।
-शंभु छंद-
जय जय आचार्य शांतिसागर, अठबीस साधु गुण से मंडित।
जय जय चारित्र चक्रवर्ती, पाठक के पच्चिस गुण अन्वित।।
बीसवीं सदी के आप प्रथम, आचार्य दिगंबर हुए प्रथित।
शिष्यों का संग्रह किया अनुग्रह-निग्रह गुण से भी संयुत।।२।।
नाना विध तपश्चरण करके, अद्भुत महिमा पायी जग में।
इस युग में यद्यपि ऋद्धि न हों, फिर भी कुछ अंश दिखा तुममें।।
बहुतेक भव्य तुम भक्ती से, नाना विध कष्ट निवारे थे।
तुम चरणोदक मस्तक धरकर, कुष्ठादि रोग भी टारे थे।।३।।
सर्पादिक के उपसर्गों को, धीरज से सहन किया तुमने।
उपसर्ग आदि करने वाले, दुष्टों को क्षमा किया तुमने।।
पैंतिस वर्षों तक मुनी रहे, बहुविध उपवास किये तुमने।
साढ़े पचीस वर्षों की जो, गणना गायी विद्वत्गण ने।।४।।
चारित्र शुद्धिव्रत-बारह सौ, चौंतिस उपवास किये तुमने।
पुनरपि तीस चौबीसी व्रत, जो सात शतक बीस गिनने।।
शुभ कर्मदहनव्रत तीन बार, करके कर्मोंे को क्षीण किया।
तीर्थंकर प्रकृतिकारण षोडश-कारण व्रत सोलह बार किया।।५।।
अति घोर सिंहनिष्क्रीडितव्रत, विधिवत् गुरु ने त्रयबार किये।
दशलक्षण आष्टान्हिक व्रत भी, उपवास विधी से पूर्ण किये।।
गुरुवर के सब नव हजार तीन सौ-अड़तिस दिन उपवासों में।
फिर भी शरीर में शक्ती थी, तुम कायबली सम थे जग में।।६।।
चारों अनुयोगों को पढ़कर, निज मनुज जन्म का सार लिया।
फिर समयसार पढ़कर आत्मा को, समयसारमय बना लिया।।
वर ग्रन्थ भगवती आराधन, छत्तीस बार पढ़कर तुमने।
स्वातम आराधन कर अंतिम, सुसमाधिमरण पाया तुमने।।७।।
इस दुषमकाल में हीन संहनन, धारी नर नारी मानें।
उनमें से एक आप ही तो, उत्तम शक्ती युत सब जानें।।
तीर्थों की तीर्थकरों की भी, भक्ती अतिशायी दिखलायी।
जिनआगम की भक्ती से तो, आगम भी हुआ अति स्थायी।।८।।
गुरुओं की भक्ती स्वयं किया, बहुते मुनियों का सृजन किया।
इन देव शास्त्र गुरु भक्ती से, निज का रत्नत्रय शुद्ध किया।।
हे शांतिसागराचार्य वर्य! मैं नमूँ सहस्रों बार नमूँ।
चारित्रचक्रवर्तिन् गुरुवर! मैं निज रत्नत्रय हेतु नमूँ।।९।।
गुरु भक्ती से सम्यक्त्वरत्न, निर्दोष सुरक्षित अविचल हो।
गुरु भक्ती से सज्ज्ञानरत्न, निज भासे नित वृद्धिंगत हो।।
गुरु भक्ती से चारित्ररत्न, अंतिम क्षण तक मुझ साथ रहे।
गुरुभक्ती से तप आराधन, करने में उत्सुक चित्त रहे।।१०।।
हे गुरुवर! तव प्रसाद से ही, श्रीवीरसागराचार्य मिले।
जिनके प्रसाद से रत्नत्रय का, लाभ मिला गुण पुष्प खिले।।
तब तक मन में गुरुभक्ति रहे, जब तक नहिं आत्मा सिद्ध बने।
वैâवल्य ‘ज्ञानमति’ पाने तक, गुरुभक्ती भवदधि नाव बने।।११।।
-दोहा-
त्रिभुवन के भी पूज्य गुरु, जिनमुद्रा से वंद्य!
नमूँ नमूँ नत शीश कर, पाऊं परमानंद।।१२।।