-दोहा-
भववारिधि में भव्य के, कर्णधार आचार्य।
भक्ति भाव से मैं नमूँ, होवो मम आधार्य।।१।।
-स्रग्विणी छंद-
मैं नमूँ मैं नमूँ मैं नमूँ सूरि को।
पाप संताप मेरा सबे दूर हो।।
सूरि! तेरे बिना कोई ना आपना।
शीघ्र संसार वाराशि से तारना।।२।।
शांतिसिंधु गुरु प्रथम सूरी हुए।
बीसवीं सदि के अग्रणी गुरु हुए।।
आप भी तो उन्हीं के प्रथम शिष्य हो।
पट्ट आचार्य भी तो प्रथम मुख्य हो।।३।।
वीरसागर गुरु नाम सार्थक किया।
वीरतादी गुणों से प्रसिद्धी लिया।।
पंडितों से सदा धर्मचर्चा किया।
तत्त्वज्ञानी बने स्वात्म आनन्द लिया।।४।।
शिष्य का आप संग्रह किया चाव से।
नित्य उनपे अनुग्रह किया भाव से।।
दोष लख आप निग्रह किया युक्ति से।
दण्ड देकर किया शुद्धि निज शक्ति से।।५।।
मेरु सम धीर गंभीर पयसिंधु सम।
सूर्य सम तेजधृत सौम्य चन्द्रैक सम।।
मातृवत् रक्षते पितृवत् पालिया।
धर्म उपदेश से भय अघ टालिया।।६।।
कृष्ण नीलादि लेश्या नहीं आपमें।
पीत पद्मादि लेश्या धरीं आपमें।।
देश-कुल-जाति से शुद्ध हो श्रेष्ठ हो।
चार विध संघस्वामी सदा इष्ट हो।।७।।
जन्म व्याधी हरण आप ही वैद्य हो।
कष्ट उपसर्ग से आप नहिं भेद्य हो।।
सर्व साधूगणों से सदाराध्य भी।
सर्व जगवंद्य भविवृंद आराध्य भी।।८।।
मूलगुण और उत्तरगुणों को धरा।
सर्वपरिषहजयी मोक्ष में चित धरा।।
नग्नमुद्रा यथाजात गुरुवर्य जी।
वस्त्र शृंगार विरहित धरमधुर्य जी।।९।।
रत्नत्रय युक्त फिर भी अकिंचन्य ही।
मोहग्रन्थी रहित आप निर्ग्रन्थ ही।।
हो कृपा सिंधु आनन्द भण्डार हो।
कर्मवन दग्ध करने को अंगार हो।।१०।।
ब्रह्मचारी व्रती फिर भी तुम पास में।
सर्वदा है तपस्या रमा साथ में।।
बुद्धिमन् भी सदा तुम चरण वंदते।
लक्ष्मिपति भी सदा पूजते अर्चते।।११।।
जो तुम्हारे चरण की करें अर्चना।
रत्नत्रय संपदा से धरें जन्म ना।।
गुरो! मैं भी करूँ भक्ति इस हेतु से।
‘ज्ञानमति’ शुद्ध हो, मैं छुटूँ दु:ख से।।१२।।