-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती
हम सब जिस देश के अंदर निवास करते हैं, इसका नाम है-भारत। विश्व के जितने भी देश हैं उन सबका अपना-अपना कोई न कोई धर्म होता है, जाति अलग रहती है, लेकिन सारी दुनिया के अंदर भारत एक ऐसा देश है, जहाँ पर हर धर्म, हर जाति के लोग अपने-अपने स्वतंत्रता के अनुसार ईश्वर की आराधना करते हैं और इसीलिए धर्मनिरपेक्ष शब्द का इस भारत देश के लिए प्रयोग किया गया है। धर्म-निरपेक्ष भारत देश के हम वासी हैं। यहाँ का लोकतंत्र, यहाँ का गणतंत्र हम सबको प्रभावित करता है और यहाँ से हमेशा-हमेशा से अध्यात्म, अहिंसा, दया, करुणा इन चीजों का निर्यात दुनिया के कोने-कोने में होता रहा है। शांति और अहिंसा, ये एक-दूसरे के पूरक हैं।
अहिंसा प्रेम के दर्शन का नाम है। Ahimsa is the Philosophy of Love. . अहिंसा विश्वशांति की कुंजी है और प्रेम, दया, करुणा, मैत्री और सौहार्द का पर्यायवाची नाम है-अहिंसा। मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने वनवास के समय एक गृद्ध पक्षी के ऊपर दया की। शरणागत एक पक्षी आया। उस पर दया करके उन्होंने एक महापुरुष का जरा सी देर का सत्संग किया और उस पक्षी की जटाएं स्वर्णमय हो गई थीं। जैन रामायण के अनुसार तब उस पक्षी को राम और सीता ने जटायु की संज्ञा दी और उस जटायु ने उनकी दया, अहिंसा, करुणा का बदला, उस उपकार का बदला ऐसे चुकाया कि जब सीता जी का अपहरण हुआ और रावण ने जटायु को भी घायल कर दिया, उस समय जंगल में पड़ा था। रामचन्द्र जी सीता को ढूंढ रहे थे, तब घायल अवस्था में जटायु ने बताया कि आपकी सती-सीता को रावण हरण करके ले गया है ये उसने मरते दम तक अपने उपकार का बदला चुकाया।जैसे सरोवर की शोभा कमल से होती है, पक्षी की शोभा पंख से होती है, भोजन की शोभा नमक से होती है, नारी की शोभा शील से होती है, ऐसे ही हमारे देश की शोभा दया और अहिंसा से है।
सस्य श्यामला भारतदेश की पावन धरा पर सदाकाल से तीर्थंकर भगवन्त एवं सन्तों के जन्म लेने और अपने अमिट संदेशों को प्रगट करने की प्राचीन परम्परा रही है। यहाँ ‘‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’’ का सूत्र प्रत्येक प्राणी अपनाते हुए एक-दूसरे के प्रति मैत्री-सौहार्द और प्रेम-वात्सल्य की गंगा प्रवाहित करते रहे हैं।
हमारी भारतीय संस्कृति का मूल सिद्धान्त है-‘‘अहिंसो परमो धर्म:’’
अर्थात् अहिंसा संसार का सर्वोत्कृष्ट-परम धर्म है। इसे हम इस तरह भी जान सकते हैं कि-
AHIMSA IS THE PHILOSOPHY OF LOVE अर्थात् अहिंसा धर्म प्रेम में निहित एक दर्शन है।
दूसरे शब्दों में अहिंसा को विश्वशांति की आधारशिला भी कहा जाता है-
AHIMSA IS THE KEY OF WORLD PEACE अर्थात् अहिंसा विश्वशांति की कुंजी है।
इसी अहिंसा सिद्धान्त के बल पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने ३०० वर्षों की गुलामी से पराधीन भारत को सन् १९४७ में आजाद कराया था, जिसके कारण आज पूरे विश्व में गांधी जयंती के दिन २ अक्टूबर को “International Day of PEACE (अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस) के रूप में मनाया जाता है।
भारतीय परम्परा में जहाँ किसी जीवधारी प्राणी को जान से मार देना हिंसा पाप के रूप में माना है, वहीं मन-वचन-कायपूर्वक किसी के दिल को दुखाना, उसे कष्ट की अनुभूति ((Feeling)) कराना भी भावहिंसा की श्रेणी में माना गया है। किन्तु आज का मानव अपने मान-दम्भ एवं अहंकार के वशीभूत होकर दूसरे के दु:खों से पूर्ण अनभिज्ञ बना रहता है।
भौतिकता की चकाचौंध में मानव निज को भूल गया है।
दुनिया की झूठी माया और वैभव में ही फूल गया है।।
क्षणभंगुर लक्ष्मी की खातिर मानवता भी आज रो रही।
दुनिया की हर सांसों में हिंसा अधर्म की बात हो रही।।
अत: हमें क्या करना चाहिए? इसका चिन्तन भी आवश्यक है।
भारतीय सन्तों की वाणी सुनकर अपनी प्यास बुझाओ।
त्याग और संयम की ज्योति अपने जीवन में चमकाओ।।
सन्तों की वाणी प्राणी के उन्नति की आधारशिला है।
कथनी को करनी में बदलो शुभ अवसर यह आज मिला है।।
बंधुओं! आज हम सभी वर्तमान विश्व में व्याप्त आतंकवाद, हिंसा, विनाश, अशान्ति, परस्पर शत्रुता, विद्वेष, एक-दूसरे से बदला लेने की भावना आदि विकृतियों से ग्रसित हो रही मानवता को देख रहे हैं। ‘‘अहिंसामयी शाश्वत धर्म’’ का शीतल जल ही इन अग्नि ज्वालाओं के उपशमन में सहयोगी हो सकता है, यही तीर्थंकर भगवन्तों की सदैव से देशना रही है। व्यक्तिगत एवं सामूहिक रूप से की गई धर्माराधना, मंत्रानुष्ठान, विधि-विधान भी वैश्विक वातावरण को प्रभावित करके क्षेम-सुभिक्ष-शान्ति-सौहार्द की स्थापना करने में अत्यन्त कार्यकारी सिद्ध होते हैं। अत: प्राथमिक रूप से मनसा-वाचा-कर्मणा हिंसात्मक प्रवृत्ति से दूर रहकर करुणा, दया एवं मैत्री की भावना रखते हुए भारतीय संस्कृति की जड़स्वरूप अहिंसा धर्म का पालन सभी के लिए परम आवश्यक है। क्योंकि-
आज शेर अजगर आदिक से मानव को नहिं खतरा है।
दानव जैसे मानव से ही मानवता को खतरा है।।
मैत्री भाव से ही मानव सबको सुखमय कर सकता है।
दुनिया का हर प्राणी सुख को चाहे दुख से डरता है।।
सार रूप में हमें यही समझना है कि हिंसात्मक भावनाएँ मनुष्य के लिए जन्म-जन्मान्तर में घातक होती हैं जबकि अहिंसा-दया-मैत्री-सौहार्द और परोपकारी प्रवृत्ति से मानव हमेशा मानसिक और शारीरिक सुख-सन्तुष्टि-प्रसन्नता की अनुभूति करता है। अत: निम्न पंक्तियों के माध्यम से जीवन में खुशियाँ लाने का प्रयत्न करना सचमुच में आवश्यक प्रतीत होता है-
“Burn all the bad memories of your past and dressup the colour of your sweet memories, love and happiness.”
अर्थात् बीते हुए भूतकाल की सभी खराब यादों को भस्म करके अपने हृदय को नई-नई खुशियों से, मीठी-मीठी यादों से भर दो, तब यह वर्तमान जिन्दगी अपने एवं दूसरों के लिए उपहार बन सकती है।
अहिंसा और विश्वशांति एक-दूसरे के पूरक हैं, क्योंकि हिंसात्मक नीतियों से, हिंसा के उपकरण अस्त्र-शस्त्रों से देश-समाज एवं परिवारों में पारस्परिक वैमनस्य, दुश्मनी, कलुषता और जन्म-जन्मान्तर के लिए वैर ही बंधता है, वह घटता कभी नहीं है, जबकि प्रेम और अिंहसा के शीतल जल से कई जन्मों के पुराने वैर भी क्षण मात्र में मैत्री का रूप धारण कर लेते हैं।ईसवी सन् २००० के अगस्त मेंU.N.O. (संयुक्तराष्ट्र) द्वारा अमेरिका की धरती पर एक विशाल ‘‘मिलेनियम विश्वशांति शिखर सम्मेलन’’ (Milleniam World Peace Summit) का आयोजन हुआ, जिसमें अनेक देशों के लगभग १०० धर्मगुरुओं ने एकजुट होकर गंभीर चिन्तन-मन्थन किया। भारत से जैनधर्माचार्य के रूप में पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने शिष्य कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जैन (वर्तमान में जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर के पीठाधीश स्वस्तिश्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामीजी) को उसमें प्रतिनिधित्व करने हेतु भेजा, वहाँ उन्होंने प्राकृतिक जैनधर्म, युगादिब्रह्मा ऋषभदेव तथा भगवान महावीर के अिंहसामयी सर्वोदय सिद्धान्तों को विश्वशांति के लिए अमोघ शस्त्र के रूप में प्रतिपादित किया तथा तत्संबंधी साहित्य भी प्रदान किया, वहाँ सभी धर्माचार्य इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि वास्तव में अिंहसा, धार्मिक सहिष्णुता एवं मानवतावादी दृष्टिकोण से ही विश्वशांति संभव हो सकती है।
हम सब उस भारत देश के वासी हैं जहाँ के कण-कण में त्याग की, तपस्या की महक है, जो सैकड़ों ऋषि-मुनियों की पावन तपस्थली है, जहाँ सदैव से अध्यात्म की गंगा बही है और जिसे ‘विश्व गुरु’ कहलाने का सौभाग्य प्राप्त है, ऐसी उस पावन-पवित्र भूमि के संतों द्वारा विश्व के सामने सदा से उन सिद्धान्तों को रखा गया है कि जिनका आधार लेकर विश्व के कोने-कोने में शांति, सद्भाव एवं खुशहाली का सुंदर वातावरण तैयार किया जा सकता है। मात्र भारत की संत परम्परा ही नहीं वरन् संसार के समस्त देशों के धर्म भी इसी समरसता एवं सर्वोदय की राह दिखाते हैं।आज का विश्व विज्ञान की असीम विस्तृत छत्रछाया में जी रहा है और बिना इस वैज्ञानिक प्रगति के जीवन का निर्वाह संभव भी नहीं है अत: विज्ञान की महत्ता को तो हमें स्वीकार करना ही होगा। प्रश्न बस इतना है कि उस विज्ञान का संचालन किन हाथों से हो, उसके पीछे कौन सी मानसिक वृत्ति कार्य करे ? वास्तव में इस मानसिक वृत्ति का विकास हमें धर्म के माध्यम से करना है।जहाँ तक गरीबी का प्रश्न है, वहाँ मात्र धन की कमी को निर्धनता मान लेना हमारी संस्कृति के अनुसार उचित नहीं है। वास्तविक निर्धनता तो विचारों की निर्धनता है कि जहाँ मात्र व्यक्तिगत पोषण की भावना ही सर्वोपरि रहती है, दूसरे की खुशियों एवं अधिकारों का कोई ध्यान नहीं रखा जाता है, इस निर्धनता से यदि छुटकारा पा लिया जाये तो आर्थिक गरीबी तो स्वत: ही दूर भाग सकती है। भारत की संस्कृति में मानवीय गुणों के विकास को सबसे बड़ा धन माना है, जब मानव के अंदर दया की भावना, करुणा, वात्सल्य, मैत्री जैसे गुण विकसित हो जाते हैं, दूसरों की उन्नति को सहर्ष स्वीकार करने की भावना आ जाती है, दूसरे के दु:ख से विचलित होना जब वो सीख लेता है, तब वह अपने से बढ़कर दूसरे को सुख पहुँचाना चाहता है, उसके मन में सभी के अस्तित्व का पूरा सम्मान रहता है और ऐसे में जीवनोपयोगी संसाधनों का किसी विशेष सामाजिक वर्ग के लिए एकत्रीकरण नहीं होता बल्कि पूरे समाज में वितरण स्वत: ही हो सकता है। विश्व के पास कमी संसाधनों की नही है वरन् उनके असमान वितरण की है। अत: हमें मूल पर प्रहार करना है। दिल की निर्धनता, विचारों की निर्धनता को पहले हमें दूर हटाना है और इसके लिए हम धर्माचार्यों का बहुत विशेष योगदान हो सकता है, हमें अपने अनुयायियों को मानवतावादी दृष्टिकोण का पाठ पढ़ाना है, सम्पूर्ण विश्व को अपने परिवार के समान समझने का भाव उनमें फलीभूत करना है तभी गरीबी से लड़ा जा सकता है और गरीबी के अभिशाप से उत्पन्न होने वाले सभी अपराधों को भी न्यूनतम करते हुए विश्व समाज में समरसता की कल्पना को साकार किया जा सकता है।
भारत भूमि की यह विशेषता है कि इस संस्कृति की महान संत परम्परा ने सम्पूर्ण मानव जाति को चिंतन की बहुत समर्थ परम्परा प्रदान की है कि जिसका आधार लेकर अपने में बहुत ही सुंदर गुण व विचारधारा विकसित हो जाती है, मानव का निखरा हुआ रूप सामने आ जाता है और ऐसे में विश्व शांति व सुभिक्षता की अवधारणा अवश्य ही साकार हो सकती है, बस आवश्यकता है तो जनसाधारण को सहाr बात समझाने की।यहाँ पर एक और पक्ष को हमें समझना है-विश्व के प्रत्येक देश में किसी न किसी धर्म का परिपालन किया ही जाता है और सभी को अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताएँ अतिशय प्रिय होती है। यह बात सत्य भी है कि हर धर्म में सुंदर-सुंदर मानवीय भावनाओं को ही पिरोया गया है और इन्हीं भावनाओं का आश्रय लेकर सभी धर्मावलम्बी विश्व की व्यवस्था के सुचारू परिचालन हेतु अपनी-अपनी मान्यता प्रस्तुत करते हैं-कोई अिंहसा से विश्व शांति की स्थापना पर जोर देता है, कोई सदाचार को आवश्यक मानता है तो कोई मात्र वैज्ञानिक एवं औद्योगिक प्रगति को ही सारी समस्याओं के निराकरण का साधन समझता है। पर वास्तविकता तो यह है कि ये सभी धर्म एवं धार्मिक मान्यताएँ एक ही उपवन के सुुंदर-सुंदर विविध पुष्प हैं, इनमें से प्रत्येक की अपनी-अपनी भीनी-भीनी सुगंध है, एक ही माला के ये अलग-अलग दाने हैं, जब इन सब पुष्पों की सुगंध एक साथ मिलती है, तभी उपवन की सुगंधित छटा का हम आनंद ले पाते हैं, जब सब मोती एक साथ पिरोये जाते हैं तो ही सुंदर माला का निर्माण होता है।
इसी प्रकार हमें भी हर एक धर्म के प्रति सद्भाव रखना है, जहाँ अपनी धार्मिक मान्यताओं के प्रति हम दृढ़ रहते हैं, वहीं अन्य धर्मावलम्बी की आस्था को भी हमें सहर्ष स्वीकार करना है, विभिन्न धर्मों के प्रति इस समन्वयवादी दृष्टिकोण का विकास वर्तमान की पहली आवश्यकता है। धार्मिक सहिष्णुता की यह भावना धर्माचार्यों के द्वारा ही जन-जन में स्थापित की जा सकती है। अनेकांत की इस परिकल्पना का मूर्तरूप भारतीय भूमि में हम स्पष्ट देख सकते हैं-जहाँ धर्मों की इतनी विविधता है कि जितनी किसी भी अन्य देश में नहीं है पर फिर भी सभी धर्मावलम्बी एक-दूसरे के प्रति पूर्ण सौहार्द रखकर एक विशाल गणतंत्र के रूप में जीवन निर्वाह कर रहे हैं।
आज के विश्व में जो अव्यवस्था एवं युद्ध की विभीषिका का दौर चल रहा है, उसका एक मुख्य कारण धार्मिक असहिष्णुता भी है, विभिन्न धर्मों के बीच बड़ी-बड़ी दीवारें खिंची हैं, एक-दूसरे के धर्म के प्रति सौहार्द भाव नहीं है, आदर नहीं है और इसी कट्टरता को लेकर विभिन्न देशों की अपनी सीमाओं के अंदर या तो गृह युद्ध की स्थितियाँ सिर पर खड़ी रहती हैं या फिर सीमाओं के बाहर दूसरे देशों के साथ निरंतर संघर्ष बने रहते हैं। इस विभीषिका में केवल निर्दोष जीवों का संहार ही नहीं होता वरन् देश-विदेश की आर्थिक स्थिति पर इतना कुप्रभाव पड़ता है कि जनसाधारण को लम्बे समय तक निर्धनता की मार झेलनी पड़ती है।
भारत की संस्कृति वह संस्कृति है कि जिसमें कहा गया है-‘‘कृषि करो या ऋषि बनो’’, आज के विश्व को यद्यपि यह सूत्र अप्रासंगिक लग सकता है पर बहुत ही दूरदर्शितापूर्वक यह विचारधारा रखी गयी है। आज का औद्योगिक विश्व यद्यपि समय की मांग है पर साथ ही साथ इस वैज्ञानिक प्रगति ने बहुत सारे प्रश्न भी संसार के सामने रख दिये हैं-जिनमें पर्यावरण प्रदूषण एक ज्वलंत उदाहरण है। हमारा मानना ये है कि वैज्ञानिक विकास भी हमें चाहिए पर एक सीमा के अंदर, जहाँ उसे हमारे अस्तित्व से खेलने का अधिकार न हो, जहाँ हमारे अपने लिए ही वह घातक न बन जाये। वैज्ञानिक प्रगति को हमें अपने शासन में रखना है, उसके द्वारा शासित नहीं होना है। अपनी आजीविका का हम उपार्जन भी करें, वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग भी करें पर अपने हृदय को मानवतावादी क्या प्राणीमात्र के प्रति करुणा के भाव से आप्लावित रखें।
अिंहसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह जैसे सिद्धान्त एवं अनेकांत व स्याद्वाद की विपुल धनराशि संसार को जिसने प्रदान की है उस महान मानवतावादी धर्म के हम अनुयायी हैं। यहाँ जैनधर्म के २४ तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर महावीर स्वामी तक ने प्राणीमात्र के प्रति करुणा का पाठ पढ़ाया है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति में जीव की सत्ता सिद्ध करके सभी के प्रति संरक्षण के भाव का पोषण किया है और यही आज के समय की महती आवश्यकता है क्योंकि पर्यावरण को शुद्ध बनाने वाले यही तो मूल तत्त्व हैं। इनका संरक्षण अर्थात् पर्यावरण संरक्षण।जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी सदैव यही कहा करती हैं कि इस युग के प्रारंभ में मानवीय संस्कृति का जिन प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने प्रतिपादन किया था, उनका यही उपदेश है-‘‘जिओ और जीने दो’’ इस एक सूत्र में सब कुछ समाहित है-मानवतावादी दृष्टिकोण, धार्मिक सहिष्णुता, पर्यावरण संरक्षण। इसी सूत्र में विश्वशांति का संसार बसा हुआ है। विज्ञान की ऊँचाईयों को देखकर हमें ये समझ लेना चाहिए कि ये अपनी आत्मा में छिपे असीम ज्ञान का एक अंश है। सही तथ्य तो ये है कि हमें भौतिक उन्नति के साथ आत्मिक उन्नति पर भी लक्ष्य करना है, अपनी आत्मा में छिपी ज्ञान की अनमोल निधि को प्रगट करने को प्रयास करना है क्योंकि यही वह निधि है जिससे सारी निर्धनताएँ विनष्ट हो जाती हैं, अपना अनंत सुख हमें प्राप्त हो जाता है। हमारे तीर्थंकरों ने, हमारे महापुरुषों ने प्राणीमात्र के लिए यही संदेश दिया है, यही शाश्वत मार्ग बताया है।
संसार में प्रत्येक प्राणी सुख चाहत्ाा है और दु:ख से डरता है। इसी सुख शांति को प्राप्त करने के लिए मानव भी रात-दिन प्रयास करता है, तरह-तरह के उपक्रम करता है पर विश्व धर्म को प्रतिपादित करने वाले संतों ने ऐसी सुख-शांति का यदि कोई मूल आधार माना है तो वह है-अहिंसा और सदाचार। अर्थात् जब तक जीवन में मन से, वचन से तथा शरीर से किसी भी प्राणी को दु:ख न पहुँचाने की अहिंसक वृत्ति का एवं क्षमा, दया, सहनशीलता आदि गुणों रूप सदाचरण का उदय नहीं होता है, तब तक न व्यक्ति के अपने जीवन में शांति आती है और न ही समाज, राष्ट्र एवं विश्व में शांति स्थापित हो सकती है।युग के प्रारंभ में जबकि मानव भोग प्रधान जीवन जी रहा था और उसकी सारी आवश्यकताएँ कल्पवृक्षों अर्थात् इच्छित फल प्रदान करने वाले वृक्षों के द्वारा सहज में ही पूरी हो जाती थी, तब मानव को किसी भी प्रकार के संघर्ष, वैमनस्य इत्यादि का सामाना ही नहीं करना पड़ता था, सब ओर स्वयं ही शांति का सुख का वातावरण था पर धीरे-धीरे काल का प्रभाव से कल्पवृक्षों की शक्ति घटने लगी और जनसमुदाय को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की मूर्ति में कठिनाई होने लगी, ऐसे संक्रामक काल में एक महान पुरुष का धरती पर अवतरण हुआ, जिनका नाम था ‘‘भगवान ऋषभदेव’’। भारत भूमि की अयोध्या नगरी में पिता ‘‘नाभिराय’’ एवं माता ‘‘मरुदेवी’’ से जन्मे ऋषभदेव ही मानवीय संस्कृति के आद्य प्रणेता के रूप में प्रतिष्ठित हुए और उन्हें ही युगादि पुरुष, आदिब्रह्मा, आदिसृष्टा आदि नामों से जाना गया, वैदिक (हिंदू) ग्रंथों ने उन्हें अष्टम अवतार माना तो मुस्लिम समुदाय ने उन्हें आदम-बाबा कहकर पुकारा। वस्तुत: यही थे इस युग में जैनधर्म के प्रथम प्रवर्तक-आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव।
प्रजा की कठिनाईयों को जानकर महाराज ऋषभदेव ने जीवन जीने की कला को सिखाने के लिए षट् क्रियाओं का उपदेश दिया। वे षट् क्रियाएँ थीं-असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प। ‘असि’ अर्थात् अपने रक्षण के लिए युद्ध क्रिया, ‘मसि’ अर्थात् लेखन क्रिया, ‘कृषि’ अर्थात् अपने पुरुषार्थ द्वारा फल, सब्जी, मेवा इत्यादि उत्पन्न करना, ‘विद्या’ विभिन्न प्रकार की कलाओं-विद्याओं का उपार्जन, ‘वाणिज्य’-आर्थिक व्यापार तथा ‘शिल्प’-गृह निर्माण आदि क्रियाएँ।भगवान ऋषभदेव ने बहुत ही दूरदर्शितापूर्वक इन छह क्रियाओं का प्रतिपादन किया था, जिसमें एक-दूसरे के प्रति परिपूर्ण अहिंसक वृत्ति रखते हुए सदाचरण रूप व्यापार करना ही मूल आधार था। ऐसे आदिपुरुष द्वारा उपदेशित क्रियाओं का मूल मर्म संसार को बहुत ही सम्यक् प्रकार से समझना होगा। ‘असि’ क्रिया में भगवान ने युद्ध का निर्देश तो किया है पर यह ‘युद्ध’ है अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए, न कि बलपूर्वक दूसरे के अधिकार क्षेत्र को छीनने के लिए। इसी प्रकार ‘कृषि क्रिया’ में अपने शारीरिक श्रम द्वारा शाकाहाररूप अनाज, फल, सब्जी, मेवा एवं अन्य भोज्य पदार्थों को उत्पन्न करके भगवान ने सम्यक् पुरुषार्थ द्वारा जीविकोपार्जन की बात कही थी। विस्तृतरूप से यदि देखा जाये तो इन छह क्रियाओं के आधार को लेकर ही सारे विश्व में हर क्षेत्र में आधुनिक स्तर तक की उन्नति हुई है पर यह काल का ही दोष कहना होगा कि उन मूल क्रियाओं के स्वरूप में अनेक प्रकार की विसंगतियाँ भी उत्पन्न हो गयीं, जिसके कारण सारे विश्व में आज असंतुलन, असुरक्षा, हिंसा, वैमनस्य एवं कटुता की भावनाएँ बहुलरूप में अनुभव की जा रही हैं, देश-देश के बीच युद्ध का माहौल बना हुआ है, विश्व की जनसंख्या का एक बड़ा भाग गरीबी से अभिशप्त है और पर्यावरण भी नित-प्रति दूषित होता चला जा रहा है।
आज के मानव को एक बार गंभीरतापूर्वक सारी स्थितियों का चिंतन करना होगा और कुछ सिद्धान्तों को सदैव के लिए आत्मसात करना होगा। जिन सिद्धान्तों को सदैव के लिए अपनाना है वे कोई नवीन नहीं हैं, वरनभगवान ऋषभदेव जैसे महापुरुषों द्वारा प्रारंभ से प्रणीत अहिंसा, सहिष्णुता, पारस्परिक मैत्री-सौहार्द, सदाचार से युक्त सद्व्यवहार ही हैं। इनके आधार से ही पूर्व में विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में शांति व समरसता स्थापित हुई है तथा आगे के लिए भी यही पथ-प्रदर्शक हैं, सही बात तो यही हे कि इन सिद्धान्तों से भटक जाने के कारण ही विश्व की स्थिति प्रतिकूलताओं से घिर गयी है।
यदि इतिहास उठाकर देखें तो स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि हिरोशिमा-नागासाकी पर गिरे बमों से क्या शांति स्थापित हो सकी ? भारत का स्वतंत्रता आंदोलन तो जग-प्रसिद्ध है-जलियां वाला बाग, अमृतसर में सैकड़ों निर्दोष लोगों पर गोली चलवाकर भी क्या अंतत: भारत को पराधीन रखा जा सका, बल्कि अन्त में महात्मा गांधी आदि महापुरुषों के अहिंसात्मक असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन इत्यादि के माध्यम से ही असंभव लगने वाला देश की आजादी का लक्ष्य भी संभव सिद्ध हो सका।
युद्ध की विभीषिका में जलते आज के विश्व के लिए भी यदि कोई मलहम है तो वह अहिंसा की भावना से बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं है। सभी देशों के धर्माचार्य यदि यह प्रयास करें कि उनके अनुयायियों में प्राणीमात्र के लिए दु:ख न पहुँचाने की अहिंसात्मक भावना व्याप्त हो जाये तो संसार की युद्ध संबंधी आधी से ज्यादा समस्याएँ स्वत: ही सुलझ सकती हैं, क्योंकि दूसरे के अधिकार को बलपूर्वक हरण करने की इच्छा से भी न जाने कितनी लड़ाइयाँ विश्व भर में चल रही है। जनसमुदाय को यह समझाने की आवश्यकता है कि नरसंहार से, रक्तपात से, युद्ध-विभीषिका से न आज तक किसी को शांति मिली है और न मिल सकती है, युद्ध तो प्यास बुझाने के लिए रेगिस्तान की मृगमरीचिका के समान है जो शांति का छलावा हो सकते हैं, शांति नहीं।
वास्तविकता तो यह है कि आज की धरती पर निरंतर चल रहे नरसंहार, पशुओं पर होने वाले अत्याचार, बूचड़खानों में नित प्रति मरते जीवों के करुणा क्रंदन से ही धरती माँ का कलेजा इतना आहत होता जा रहा है कि जिसकी परिणति निरंतर भूकंपों, बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं के रूप में सामने आती है। वैज्ञानिक रूप से भी इस तथ्य को पोषित करने वाले प्रमाण मिले हैं।जब तक इस अहिंसा की भावना को जन-जन के द्वारा महत्व नहीं दिया जायेगा, अपने जीवन में उतारा नहीं जायेगा, तब तक पारस्परिक सामंजस्य स्थापित नहीं होगा और ऐसे मैत्रीपूर्ण सौहार्द भाव के बिना शांति की कल्पना नहीं की जा सकती।अहिंसा की भावना किसी सदाचारी मानव का प्रमुखतम गुण हैं, इस युग के विकसित होने से अन्य नैतिक भावों जैसे करुणा, सहनशीलता, दया, क्षमा, प्रेम आदि भावनाएँ तो स्वत: ही विकसित हो जाती हैं और मानव के सदाचारी बनते ही संसार को स्वर्ग बनते कुछ भी देर नहीं लगेगी। अत: धर्माचार्यों को भी अपने प्रभाव से अपने अनुयायी भक्तों में इन सब गुणों को भरने का सद्प्रयास करना होगा और इस प्रकार से विश्वशांति की परिकल्पना को साकार करना होगा।जहाँ तक गरीबी से अभिशप्तता का प्रश्न है, वहाँ पर आज के आधुनिक युग में अिंहसक कृषि को मुख्य व्यवसाय के रूप में अपनाने का सुझाव इसलिए कार्यकारी है क्योंकि सीमित साधनों के द्वारा जहाँ अपनी आजीविका का प्रश्न हल हो जाता है, वहाँ पर ही पूरे समाज के लिए उपयोगी अन्न के उत्पादन से राष्ट्र की आर्थिक प्रगति भी सुचारू हो सकती है तथा इस स्वावलम्बन से अन्य बहुत सी समस्याएँ स्वत: ही हल हो जाती हैं।
पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी एक ऐसी महान दिव्य विभूति है कि जो अपने सम्पूर्ण जीवन में अहिंसात्मक एवं वैराग्यमयी चर्या का पालन करके जहाँ भारत के प्रत्येक नागरिक के लिए ‘जिओ और जीने दो’ का संदेश प्रदान करती रहीं, वहीं उनके विराट व्यक्तित्व ने विश्वभर में एक कीर्तिमान स्थापित किया है। उन्होंने अपने दीर्घकालीन दीक्षित जीवन में उत्तर भारत के हस्तिनापुर नामक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल पर ‘जम्बूद्वीप’ नामक जैन भूगोल रचना का निर्माण करवाकर देश-विदेश के वैज्ञानिकों को सृष्टि की खोज का एक विषय प्रदान किया है, ४०० से अधिक ग्रंथों की उन्होंने रचना की है तथा राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन करके विश्व मैत्री का संदेश जन-जन तक पहुँचाने में सफलता प्राप्त की है। वे सदैव कहा करती हैं कि इस भारत भूमि की पवित्र धरा पर जहाँ की ऋषभदेव, राम, हनुमान, महावीर, बुद्ध एवं गांधी जैसी महान सदाचारी आत्माओं ने जन्म लिया है, उस धरा के धर्माचार्य सदैव अखिल विश्व को उच्चतम नैतिक आदर्शों का समय-समय पर संदेश प्रदान करते रहते हैं।जीवन में अिंहसक वृत्ति का आचरण करने हेतु जैनाचार्यों ने हिंसा के ४ भेद बताकर उनको यथाशक्ति त्याग करने का उपदेश दिया है।
(१) संकल्पी हिंसा-मन में संकल्प करके अभिप्रायपूर्वक किसी जीव की हत्या करना संकल्पी हिंसा है। यह हिंसा पूर्णरूप से त्याग करने को कहा गया है। जैसे-खटमल, जूँ, मच्छर आदि मारना।
(२) आरंभी हिंसा-अपनी रोज की दैनिक क्रियाओं में सावधानीपूर्वक गृहस्थकार्य करते हुए भी कुछ हिंसा हो जाती हैं, जैसे-पानी भरना, अग्नि जलाना, भोजन बनाना, झाड़ू लगाना….. आदि क्रियाएँ। यह हिंसा गृहस्थ श्रावव्ाâ-श्राविकाओं के लिए क्षम्य है। किन्तु अनावश्यक करना पाप है।
(३) उद्योगी हिंसा-व्यापार, खेती, उद्योग आदि में न चाहते हुए भी कुछ जीवों की हिंसा हो जाती है, जो गृहस्थों के लिए क्षम्य है। किन्तु अंडा-मांस-मछली-चमड़े आदि के व्यापार तो महापापबंध के कारण हैं अत: उनका सर्वथा त्याग करना चाहिए।
(४) विरोधी हिंसा-भारतीय संस्कृति, जिनधर्म, धर्मायतन, तीर्थ आदि एवं राष्ट्र-राज्य-परिवार की सुरक्षा हेतु अन्याय एवं अन्यायियों का विरोध करते हुए यदि किसी की हिंसा होती है तो वह विरोधी हिंसा कहलाती है। यह भी हिंसा गृहस्था के लिए क्षम्य है। जैसे श्रीराम ने नारी के सतीत्व की रक्षा के लिए रावण के साथ घोर युद्ध किया, किन्तु वे हिंसक नहीं कहलाए। आज भी देश की रक्षा के लिए सीमा पर खड़े नौजवानों से जो हिंसा होती है वह हिंसा नहीं है।हिंसा के इन सभी भेदों का विशद विवेचन जैनाचार्यों ने धर्मग्रंथों में किया है जिनका अध्ययन करके अिंहसा की सूक्ष्म परिभाषाओं को जानकर वर्तमान की परिस्थितियों से जूझते हुए मानव को आतंकवाद, सामाजिक-पारिवारिक विघटन, परमाणु युद्ध की आशंका आदि समस्याओं पर गंभीर चिंतन करना होगा।
प्रिय पाठकों! अब आप आगे जानिए कि-
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की अर्थव्यवस्था मुख्यरूप से कृषि-खेती पर आधारित है, क्योंकि देश की ७० प्रतिशत जनसंख्या कृषि व्यवस्था पर ही अपना जीवनयापन करती है। कृषि से राष्ट्रीय आय का लगभग ५० प्रतिशत भाग प्राप्त होता है। कृषि की हीन दशा को देखकर ही आजाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री स्व. पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था-
Everything may wait but agriculture can not. There is nothing more important in India today than better-agriculture.
अर्थात् प्रत्येक वस्तु प्रतीक्षा कर सकती है परन्तु कृषि नहीं। वर्तमान में भारत देश में अच्छी कृषि से बढ़कर कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है।
भारत के लिए यह विडम्बना ही है कि यहाँ की ७० से ८० प्रतिशत जनसंख्या कृषि में संलग्न है फिर भी भारत को खाद्यान्न (गेहूँ-चावल-मेवा-फल आदि) दूसरे देशों से मंगाना पड़ता है, जबकि अंतर्राष्ट्रीय आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका के अन्दर कृषि में जनसंख्या का केवल ४ प्रतिशत भाग संलग्न है, फिर भी वह विश्व की एक तिहाई जनसंख्या के लिए खाद्यान्नों की पूर्ति करने में सक्षम है। हमारे देश में पर्याप्त भूमि है किन्तु फिर भी वह आत्मनिर्भर नहीं है। इस विषय में देश के युवा वर्ग एवं शासकों को चिन्तन करने की आवश्यकता है।
सड़क के किनारे चलते हुए पथिकों को हरे-भरे खेत देखकर उनके मनों में हरियाली समा जाती है और अनजाने में ही उन्हें स्वस्थता प्राप्त होती है, किन्तु आज अनावश्यक काटे जा रहे जंगल के पेड़, खेतों में डाली जा रही कीटनाशक दवाईयाँ जहाँ मानव मस्तिष्क को बीमार बना रही हैं, वहीं द्रुतगति से पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। अत: पर्यावरण की शुद्धि हेतु सेमिनार-कान्प्रन्स आयोजित करने पड़ते हैं, किन्तु इनसे पर्यावरण की शुद्धि कभी नहीं होगी, प्रत्युत् अहिंसक कृषि, वृक्षारोपण आदि से पर्यावरण की शुद्धि का अभियान विभिन्न संस्था-संगठनों के द्वारा चलाना आवश्यक है।
भगवान महावीर, राम और कृष्ण की धरती भारत देश में जहाँ Morning Walk (प्रात:कालीन भ्रमण) के समय लोगों के मन, मस्तिष्क में हरे-भरे, बाग-बगीचों से फल और फूलों की सुगंधी का अहसास हुआ करता है, वहीं वर्तमान में शहरों एवं गाँवों में जगह-जगह Poultry farmsदेखकर वहाँ की दुर्गन्ध से मन एकदम अपवित्र हो जाता है तथा अपनी पवित्र संस्कृति के ललाट पर पशु-पक्षियों के दूषित रक्त का टीका लगते देखकर हृदय बरबस रो पड़ता है। इस विषय पर हमारे समाज को, कृषकों तथा सत्ताधारी शासकों को गहराई से चिन्तन करके संस्कृति का संरक्षण, पर्यावरण की शुद्धि एवं अहिंसा के पालन का कदम आगे बढ़ाना चाहिए, क्योंकि ये पालन केन्द्र के नाम से चलाए जा रहे हिंसक उद्योग शत-प्रतिशत जीवों के मारण केन्द्र बनकर भारतीय अिंहसक शाकाहारी जनता को माँसाहार करने की प्रेरणा प्रदान कर रहे हैं। इन केन्द्रों को कभी भी कृषि की संज्ञा नहीं देना चाहिए, क्योंकि कृषि पेड़-वनस्पति का उत्पादन है और शेष अण्डे-मछली आदि का उत्पादन जीवधारी प्राणियों के पेट से होता है। अत: खेत और वृक्षों से उत्पन्न वस्तु को शाकाहारी माना गया है एवं मुर्गी के पेट से उत्पन्न अण्डे माँसाहार की श्रेणी में ही आते हैं।
भारत में प्राचीन काल से चली आई प्राकृतिक शाकाहारी भोजन की परम्परा को वर्तमान की प्रारंभिक पाठ्य पुस्तकों ने विकृत बना दिया है। बच्चों को पढ़ाई जाने वाली Social Studies की पुस्तकों में Good Food नामक lesson में शाकाहारी और माँसाहारी (Veg. & Non-Veg.)साथ चित्रित किये जाते हैं अत: बाल मन उन सबको एक समान समझकर माँसाहारी वस्तुओं को भी अनायास खाने की इच्छा करता है जबकि यह हमारी संस्कृति के साथ बहुत बड़ा धोखा है।
बंधुओं! यदि हमें बचपन से ही बालक-बालिकाओं को तामसिक एवं कठोर-हिंसात्मक प्रवृति से रोकना है, उन्हें सात्विक वृत्ति वाला, दया और परोपकारयुक्त स्वभाव वाला बनाना है तो उन्हें प्रारंभ से शाकाहार और मांसाहार में अन्तर बताना होगा तथा Public Schools (पब्लिक स्कूलों) में चल रही पुस्तकों के लेखक और प्रकाशकों से भी अनुरोध करना होगा कि वे ऐसे मिश्रित भोजन की प्रेरणा अपने Lessonमें कदापि न देवें। क्योंकि ध्यान दीजिएगा कि-
नींव मकान की आधार शिला है,
रीढ़ शरीर की आधारशिला है,
संस्कार देना है तो बच्चों में दो,
ये देश और समाज की आधारशिला हैं।
बच्चों के खानपान की बात तो प्रारंभिक भूमिका है, पुनश्च युवाओं के अत्याधुनिक विचारों में भी खानपान की अशुद्धता का साम्राज्य बढ़ रहा है तथा जाने-अनजाने में Fast Food एवं विदेशी व्यंजनों के स्वादों में पड़ कर देश का बड़ा प्रतिशत युवा अपने खानपान को अपवित्र बनाकर मन को भी अशुद्ध करता हुआ पाप का संचय कर रहा है।
इसमें हमारे समाज की महिलाओं की अनदेखी एवं आलसी वृत्ति का भी बहुत बड़ा योगदान देखा जा रहा है। जो नारी अपने घर की बेटी-बहन-माँ-बहू आदि के रूप में घर के अंदर नन्हें बच्चों से लेकर वृद्ध माता-पिता, सास-ससुर सबके लिए सबेरे से ताजा दूध और नाश्ता बनाकर उसके साथ ममता-प्रेम और अपनत्व का रस घोलकर सबको परोसती थी, वही नारी अब रेडीमेड पिज्जा-बर्गर-डबलरोटी-बिस्किट-आमलेट आदि देकर बच्चे-पति आदि का टिफिन तैयार करती है। तब आप स्वयं चिन्तन करें कि वह केवल पेट भरने का साधन ही तो रहा, उस टिफिन के भोजन में कोई ममता या प्रेम-अपनत्व का रस कहाँ घुल पाया ? इस पर हमारी बहनों को गहराई से चिन्तन करना होगा, अन्यथा खानपान की शुद्धि आपके घर से कोसों दूर चली जाएगी, जिसे वापस लाने में आप स्वयं समर्थ नहीं हो पाएंगी।
इसी तरह खानदान शुद्धि में भी तेजी से बदलाव आ रहा है। भारतीय परम्परा में अपनी-अपनी जाति में विवाह करने से खानदान की शुद्धि मानी जाती है। आज की ऊँची पढ़ाई, इंटरनेशनल कम्पनियों में नौकरी करने की युवक-युवतियों की परम्परा ने एक-दूसरे के प्रति आकर्षण पैदा करके खानदान शुद्धि को अलमारियों में बंद करके रख दिया है तथा लव जेहाद ने अनेक सुकुमारियों को गुलाम बनाकर जीवन भर आँसू बहाने के लिए बेबस कर दिया है।युवावस्था की मदहोशी में ऐसे शारीरिक संबंध विजातीय विवाह के लिए एक-दूसरों को मजबूर कर देते हैं और माता-पिता के किंचित् मात्र भी विरोध उनके और परिवार के लिए घातक हो जाते हैं।अब हमारा विवेकी समाज स्वयं चिन्तन करें कि हमारे पवित्र खानदानों की शुद्धि वैâसे रहेगी और हम तीर्थंकर जैसे एवं श्रीराम-कृष्ण महापुरुषों को जन्म वैâसे दे पाएंगे ? भारत का हर सम्प्रदाय आज इस समस्या से ग्रसित है अत: मिल बैठकर इसका भी हल निकालना चाहिए।