(जयधवला पुस्तक-१ के आधार से)
१कत्थ कहियं ? सेणियराए सचेलणे महामंडलीए सयलवसुहामंडलं भुजंते मगहामंडल-तिलओवमरायगिहणयर-णेरयिदिसमहिट्ठिय-विउलगिरिपव्वए सिद्धचारणसेविए बारहगणपरिवेड्ढिएण कहियं। उत्तं च-
पंचसेलपुरे रम्मे, विउले पव्वदुत्तमे।
णाणादुमसमाइण्णे सिद्धचारणसेविदे।।१७।।
ऋषिगिरिरैन्द्राशायां चतुरस्रो याम्यदिशि च वैभार:।
विपुलगिरिर्नैऋत्यामुभौ त्रिकोणौ स्थितौ तत्र।।१८।।
धनुषा (रा.) कारश्छिन्नो वारुण-वायव्य-सोमदिक्षु तत:।
वृत्ताकृतिरीशाने पांडुस्सर्वे कुशाग्रवृता:।।१९।।
कम्हि काले कहियमिदि पुच्छिदे सिस्साणं पच्चयजणणट्टं कालपरूवणा कीरदे। तं जहा, दुविहो कालो उस्सप्पिणी ओसप्पिणी चेदि। जत्थ बलाउउस्सेहाण-मुस्सप्पणं बुड्ढी होदि सो कालो उस्सप्पिणी। जत्थ तेसिं हाणी होदि सो ओसप्पिणी। तत्थ एक्केक्को सुसमसुसमादिभेएण छव्विहो। तत्थ एदस्स भरहखेत्तस्स ओसप्पिणीए चउत्थे दुस्समसुसमकाले णवहि दिवसेहि छहि मासेहि य अहियतेत्तीसवासावसेसे ३३-६-९ तित्थुप्पत्ती जादा। उत्तं च-
इम्मिस्सेवसप्पिणीए चउत्थकालस्स पच्छिमे भाए।
चोत्तीसवासावसेसे किंचि विसेसूणकालम्मि।।२०।।
तं जहा, पण्णरसदिवसेहि अट्ठहि मासेहि य अहियपंचहत्तरिवासावसेसे चउत्थकाले ७५-८-१५ पुप्फुत्तरविमाणादो आसाढ-जोण्हपक्ख-छट्ठीए महावीरो बाहत्तरिवासाउओ तिण्णाणहरो गब्भमोइण्णो। तत्थ तीसवासाणि कुमारकालो। बारसवासाणि छदुमत्थकालो। तीसं वस्साणि केवलिकालो। एदेसिं तिण्हं पि कालाणं समासो बाहत्तरिवासाणि। एदाणि (पण्णरसदिवसेहि अट्ठमासेहि य अहिय-) पंचहत्तरिवासेसु सोहिदे वड्ढमाणजिणिंदे णिव्वुदे संते जो सेसो चउत्थकालो तस्स पमाणं होदि।
एदम्हि छावट्ठिदिवसूणकेवलिकाले पक्खित्ते णवदिवसछम्मासाहियतेत्तीस-वासाणि चउत्थकाले अवसेसाणि होंति। छासट्ठिदिवसावणयणं केवलकालम्मि किमट्ठं कीरदे ? केवलणाणे समुप्पण्णे वि तत्थ तित्थाणुप्पत्तीदो। दिव्वज्झुणीए किमट्ठं तत्थापउत्ती ? गणिंदाभावादो। सोहम्म्ािंदेण तक्खणे चेव गणिंदो किण्ण ढोइदो ? ण:, काललद्धीए विणा असहेज्जस्स देविंदस्स तड्ढोयणसत्तीए अभावादो। सगपादमूलम्मि पडिवण्णमहव्वयं मोत्तूण अण्णमुद्दिस्सिय दिव्वज्झुणी किण्ण पयट्टदे ? साहावियादो। ण च सहायो परपज्जणिओगारुहो अव्ववत्थावत्तीदो। तम्हा चोत्तीसवासावसेसकिंचिविसेसूणचउत्थकालम्मि तित्थुप्पत्ती जादेत्ति सिद्धं।
अण्णे के वि आइरिया पंचहि दिवसेहि अट्ठहि मासेहि य ऊणाणि बाहत्तरिवासाणि त्ति वड्ढमाणजिणिंदाउअं परूवेंति ७१-३-२५। तेसिमहिप्पाएण गब्भत्थ-कुमार-छदुमत्थ-केवलिकालाणं परूवणा कीरदे। तं जहा, आसाढजोण्हपक्खछट्ठीए कुंडपुरणगराहिव-णाहवंस-सिद्धत्थणरिंदस्स तिसिलादेवीए गब्भमागंतूण तत्थ अट्ठदिवसाहियणवमासे अच्छिय चइत्त-सुक्कपक्ख-तेरसीए रत्तीए उत्तरफग्गुणीणक्खत्ते गब्भादो णिक्खंतो वड्ढमाणजिणिंदो। एत्थ आसाढजोण्हपक्खछट्ठिमादिं कादूण जाव पुण्णमा त्ति दसदिवसा होंति १०। पुणो सावणमासमादिं कादूण अट्ठमासे गब्भम्मि गमिय ८, चइत्त-मास-सुक्कपक्ख-तेरसीए उप्पण्णो त्ति अट्ठावीसदिवसा तत्थ लब्भंति। एदेसु पुव्विल्लदसदिवसे पक्खित्ते मासो अट्ठदिवसाहिओ होदि। तम्मि अट्ठमासेसु पक्खित्ते अट्ठदिवसाहियणवमासा वड्ढमाणजिणिंदगब्भत्थकालो होदि। तस्स संदिट्ठी ९-८।
एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओ-
सुरमहिदोच्चुदकप्पे भोगं दिव्वाणुभागमणुभूदो।
पुप्फुत्तरणामादो विमाणदो जो चुदो संतो।।२१।।
बाहत्तरिवासाणि य थोवविहीणाणि लद्धपरमाऊ।
आसाढजोण्हपक्खे छट्ठीए जोणिमुवयादो।।२२।।
कुंडपुरपुरवरिस्सरसिद्धत्थक्खत्तियस्स णाहकुले।
तिसिलाए देवीए देवीसदसेवमाणाए।।२३।।
अच्छित्ता णवमासे अट्ठ य दिवसे चइत्त-सियपक्खे।
तेरसिए रत्तीए जादुत्तरफग्गुणीए दु।।२४।।
एवं गब्भट्ठिदकालपरूवणा कदा।
संपहि कुमारकालपरूवणं कस्सामो। तं जहा, चइत्तमासस्स दो दिवसे २, वइसाइमादिं कादूण Dट्ठावीसं वस्साणि २८, पुणो वइसाहमासमादिं कादूण जाव कत्तियमासो त्ति ताव सत्तमासे च कुमारत्तणेण गमिय ७, तदो मग्गसिरकिण्हपक्ख-दसमीए णिक्खंतो त्ति कुमारकालपमाणं बारसदिवसेहि सत्तमासेहि य अहियअट्ठावीसवासमेत्तं होदि २८-७-१२।
एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओ-
मणुवत्तणसुहमतुलं देवकयं सेविऊण वासाइं।
अट्ठावीसं सत्त य मासे दिवसे य बारसयं।।२५।।
आभिणिबोहियबुद्धो छट्ठेण य मग्गसीसबहुलाए।
दसमीए णिक्खंतो सुरमहिदो णिक्खमणपुज्जो।।२६।।
एवं कुमारकालपरूवणा कदा।
संपहि छदुमत्थकालो वुच्चदे। तं जहा, मग्गसिर-किण्हपक्ख-एक्कारसिमादिं कादूण जाव मग्गसिरपुण्णमा त्ति वीसदिवसे २०, पुणो पुस्समासमादिं कादूण बारस वासाणि १२, पुणो तं चेव मासमादिं कादूण चत्तारि मासे च ४, वइसाहजोण्हपक्खपंचवीसदिवसे च २५, छदुमत्थत्तणेण गमिय वइसाह-जोण्हपक्ख-दसमीए उजुकूलणदीतीरे जंभियगामस्स बाहिं छट्ठोववासेण सिलावट्टे आदावेंतेण अवरण्हे पादछायाए केवलणाणमुप्पाइदं। तेण छदुमत्थकालस्स पमाणं पण्णारसदिवसेहि पंचमासेहि य अहियबारसवासमेत्तं होदि १२-५-१५।
एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओ-
गमइय छदुमत्थत्तं बारसवासाणि पंचमासे य।
पण्णारसाणि दिणाणि य तिरदणसुद्धो महावीरो।।२७।।
उजुकूलणदीतीरे जंभियगामे बहिं सिलावट्टे।
छट्ठेणादावेंते अवरण्हे पादछायाए।।२८।।
वइसाहजोण्हपक्खे दसमीए खवयसेढिमारूढो।
हंतूण घाइकम्मं केवलणाणं समावण्णो।।२९।।
एवं छदुमत्थकालो परूविदो।
संपहि केवलकालं भणिस्सामो। तं जहा, वइसाह-जोण्णपक्ख-एक्कारसिमादिं कादूण जाव पुणिमा त्ति पंच दिवसे ५, पुणो जेट्ठमासप्पहुडि एगुणतीसं वासाणि तं चेव मासमादिं कादूण जाव आसउजो त्ति पंच मासे ५, पुणो कत्तियमास-किण्हपक्खचोद्दसदिवसे च केवलणाणेण सह एत्थ गमिय परिणिव्वुओ वड्ढमाणो १४, आमावसीए परिणिव्वाणपूजा सयलदेविंदेहि कया त्ति तं पि दिवसमेत्थेव पक्खित्ते पण्णारसदिवसा होंति। तेणेदस्स कालस्स पमाणं वीसदिवस-पंचमासाहियएगुणतीसवासमेत्तं होदि २९-५-२०।
एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओ-
वासाणूणत्तीसं पंच य मासे य बीस दिवसे ये।
चउविहअणगारेहि य बारहदिणेहि (गणेहि) विहरित्ता।।३०।।
पच्छा पावाणयरे कत्तियमासस्स किण्हचोद्दसिए।
सादीए रत्तीए सेसरयं छेत्तु णिव्वाओ।।३१।।
एवं केवलकालो परूविदो।
परिणिव्वुदे जिणिंदे चउत्थकालस्स अब्भंतरे सेसं वासा तिण्णि मासा अट्ठदिवसा पण्णारस ३-८-१५। संपहि कत्तियमासम्हि पण्णरसदिवसेसु मग्गसिरादितिण्णिवासेसु अट्ठमासेसु च महावीरणिव्वाणगयदिवसादो गदेसु सावणमासपडिवयाए दुस्समकालो ओइण्णो। इमं कालं वड्ढमाणजिणिंदाउअम्मि पक्खित्ते दसदिवसाहिय-पंचहत्तरिवासावसेसे चउत्थकाले सग्गादो वड्ढमाणजिणिंदो ओदिण्णो होदि ७५-०-१०।
दोसु वि उवदेसेसु को एत्थ समंजसो ? एत्थ ण बाहइ जीब्भमेलाइरिय वच्छओ अलद्धोवदेसत्तादो दोण्हमेक्कस्स पहाणु (बाहाणु) वलंभादो, किन्तु दोसु एक्केण होदव्वं, तं च उवदेसं लहिय वत्तव्वं।जिणउवदिट्ठत्तादो होदु दव्वागमो पमाणं, किंतु अप्पमाणीभूदपुरिस-पव्वोलीकमेण आगयत्तादो अप्पमाणं वट्टमाणकालदव्वागमो त्ति ण पच्चवट्ठादुं जुत्तं; राग-दोष-भयादीदआइरियपव्वोलीकमेण आगयस्स अप्पमाणत्तविरोहादो। तं जहा, तेण महावीरभडारएण इंदभूदिस्स अज्जस्स अज्जखेत्तुप्पण्णस्स चउरमल-बुद्धिसंपण्णस्स दित्तुग्गतत्तवस्स अणिमादिअट्ठविहविउव्वणलद्धिसंपण्णस्स सव्वट्ठसिद्धिणिवासिदेवेहिंतो अणंतगुणबलस्स मुहुत्तेणेक्केण दुवालसंगत्थगंथाणं सुमरण-परिवादिकरणक्खमस्स सयपाणिपत्तणिवदिदरव्वं पि अमियसरूवेण पल्लट्टावणसमत्थस्स पत्ताहारवसहि-अक्खीणरिद्धिस्स सव्वोहिणाणेण दिट्ठासेसपोग्गलदव्वस्स तपोबलेण उप्पायिदुक्कस्सविउलमदिमणपज्जवणाणस्स सत्तभयादीदस्स खविदचदुकसायस्स जियपंचिंदियस्स भग्गतिदंडस्स छज्जीवदयावरस्स णिट्ठवियअट्ठमयस्स दसधम्मुज्जयस्स अट्ठमाउगणपरिवालियस्स भग्गवावीसपरीसहपसरस्स सच्चालंकारस्स अत्थो कहिओ। तदो तेण गोअमगोत्तेण इंदभूदिणा अंतोमुहुत्तेणावहारियदुवालसंगत्थेण तेणेव कालेण कयदुवालसंग-गंथरयणेण गुणेहि सगसमाणस्स सुहमा (म्मा) इरियस्स गंथो वक्खाणिदो। तदो केत्तिएण वि कालेण केवलणाणमुप्पाइय वारसवासाणि केवलविहारेण विहरिय इंदभूदिभडारओ णिव्वुइं संपत्तो १२। तद्दिवसे चेव सुहम्माइरियो जम्बूसामियादीणमणेयाणमाइरियाणं वक्खाणिददुवालसंगो घाइचउक्कक्खएण केवली जादो। तदो सुहम्मभडारयो वि वारहवस्साणि १२ केवलविहारेण विहरिय णिव्वुइं पत्तो। तद्दिवसे चेव जंबूसामिभडारओ विट्ठु (विष्णु) आइरियादीणमणेयाणं वक्खाणिददुवालसंगो केवली जादो। सो वि अट्ठत्तीसवासाणि ३८ केवलविहारेण विहरिदूण णिव्वुइं गदो। एसो एत्थोसप्पिणीए अंतिमकेवली।
एदम्हि णिव्वुइं गदे विण्णुआइरियो सयलसिद्धंतिओ उवसमियचउकसायो णंदिमित्ताइरियस्स समप्पियदुवालसंगो देवलोअं गदो। पुणो एदेण कमेण अवराइयो गोवद्धणो भद्दबाहु त्ति एदे पंच पुरिसोलीए सयलसिद्धंतिया जादा। एदेसिं पंचण्हं पि सुदकेवलीणं कालो वस्ससदं १००। तदो भद्दबाहुभयवंते सग्गं गदे सयलसुदणाणस्स वोच्छेदो जादो।णवरि, विसाहाइरियो तक्काले आयारादीणमेक्कारसण्हमंगाणमुप्पायपुव्वाईणं दसण्हं पुव्वाणं च पच्चक्खाण-पाणावाय-किरियाविसाल-लोगबिन्दुसारपुव्वाण-मेगदेसाणं च धारओ जादो। पुणो अतुट्टसंताणेण पोट्ठिल्लो खत्तिओ जयसेणो णागसेणो सिद्धत्थो धिदिसेणो विजयो बुद्धिल्लो गंगदेवो धम्मसेणो त्ति एदे एक्कारस जणा दसपुव्वहरा जादा। तेसिं कालो तेसिदिसदवस्साणि १८३। धम्मसेणे भयवंते सग्गं गदे भारहवस्से दसण्हं पुव्वाणं वोच्छेदो जादो। णवरि, णक्खत्ताइरियो जसपालो पांडू धुवसेणो कंसाइरियो चेदि एदे पंच जणा जहाकमेण एक्कारसंगधारिणो चोद्दसण्हं पुव्वाणमेगदेसधारिणो च जादा। एदेसिं कालो वीसुत्तरविसदवासमेत्तो २२०। पुणो एक्कारसंगधारए कंसाइरिए सग्गं गदे एत्थ भरहखेत्ते णत्थि कोइ वि एक्कारसंगधारओ।णवरि, तक्काले पुरिसोलीकमेण सुहद्दो जसभद्दो जहबाहू लोहज्जो चेदि एदे चत्तारि वि आयारंगधरा सेसंगपुव्वाणमेगदेसधरा य जादा। एदेसिमायारंगधारीणं कालो अट्ठारसुत्तरं वाससदं ११८। पुणो लोहाइरिए सग्गं गदे आयारंगस्स वोच्छेदो जादो। एदेसिं सव्वेसिं कालाणं समासो छसदवासाणि तेसीदिवासेहि समहियाणि ६८३। वड्ढमाणजिणिंदे णिव्वाणं गदे पुणो एत्तिएसु वासेसु अइक्कंतेसु एदम्हि भरहखेत्ते सव्वे आइरिया सव्वेसिमंगपुव्वाणमेगदेसधारया जादा।
शंका-भगवान महावीर ने धर्मतीर्थ का उपदेश कहाँ पर दिया ?
समाधान-जब महामंडलीक श्रेणिक राजा अपनी चेलना रानी के साथ सकल पृथिवीमंडल का उपभोग करता था, तब मगधदेश के तिलक के समान राजगृह नगर की नैऋत्य दिशा में स्थित तथा सिद्ध और चारणों के द्वारा सेवित विपुलगिरि पर्वत के ऊपर बारह गणों अर्थात् सभाओं से परिवेष्टित भगवान् महावीर ने धर्मतीर्थ का कथन किया। कहा भी है-
‘‘पंचशैलपुर में अर्थात् पाँच पहाड़ों से शोभायमान राजगृह नगर के पास स्थित, नाना प्रकार के वृक्षों से व्याप्त, सिद्ध तथा चारणों से सेवित और सर्व पर्वतों में उत्तम ऐसे अतिरमणीय विपुलाचल पर्वत के ऊपर भव्यजनों के लिए भगवान् महावीर ने धर्मतीर्थ का प्रतिपादन किया। ऐन्द्र अर्थात् पूर्व दिशा में चौकोर आकारवाला ऋषिगिरि नाम का पर्वत है। दक्षिण दिशा में वैभार और नैऋत्य दिशा में विपुलाचल नाम के पर्वत हैं। ये दोनों पर्वत त्रिकोण आकार वाले हैं। पश्चिम, वायव्य और उत्तर दिशा में धनुष के आकार वाला छिन्न नाम का पर्वत है। ऐशान दिशा में गोलाकार, पांडु नाम का पर्वत है। ये सब पर्वत कुश के अग्र भागों से ढके हुए हैं।।१७-१९।।
किस काल में धर्म, तीर्थ का प्रतिपादन किया ? ऐसा पूछने पर शिष्यों को काल का ज्ञान कराने के लिए आगे काल की प्ररूपणा की जाती है, वह इस प्रकार है-उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के भेद से काल दो प्रकार का है। जिस काल में बल, आयु और शरीर की ऊँचाई का उत्सर्पण अर्थात् वृद्धि होती है, वह काल उत्सर्पिणी काल है तथा जिस काल में बल, आयु और शरीर की ऊँचाई की हानि होती है, वह अवसर्पिणी काल है। इनमें से प्रत्येक काल सुषमासुषमा आदि के भेद से छह प्रकार का है। उनमें से इस भरतक्षेत्रसंबंधी अवसर्पिणी काल के चौथे दु:षमासुषमा काल में नौ दिन और छह महीना अधिक तेंतीस वर्ष अवशिष्ट रहने पर धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई। कहा भी है-
इस अवसर्पिणी काल के दु:षमासुषमा नामक चौथे काल के पिछले भाग में कुछ कम चौंतीस वर्ष बाकी रहने पर धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई।।२०।।
आगे इसी को स्पष्ट करते हैं-चौथे काल में पन्द्रह दिन और आठ महीना अधिक पचहत्तर वर्ष बाकी रहने पर आषाढ़ महीना के शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन बहत्तर वर्ष की आयु से युक्त तथा मति, श्रुत और अवधि ज्ञान के धारक भगवान महावीर पुष्पोत्तर विमान से गर्भ में अवतीर्ण हुए। उन बहत्तर वर्षों में तीस वर्ष कुमारकाल है, बारह वर्ष छद्मस्थकाल है तथा तीस वर्ष केवलिकाल है। इस प्रकार इन तीनों कालों का जोड़ बहत्तर वर्ष होता है। इस बहत्तर वर्ष प्रमाण काल को पन्द्रह दिन और आठ महीना अधिक पचहत्तर वर्ष में से घटा देने पर वर्द्धमान जिनेन्द्र के मोक्ष जाने पर जितना चतुर्थकाल शेष रहता है, उसका प्रमाण होता है।
इस काल में छ्यासठ दिन कम केवलिकाल अर्थात् २९ वर्ष, नौ महीना और चौबीस दिन के मिला देने पर चतुर्थ काल में नौ दिन और छह महीना अधिक तेतीस वर्ष बाकी रहते हैं।
विशेषार्थ-नये वर्ष का प्रारंभ श्रावण कृष्णा प्रतिपदा से होता है और भगवान महावीर की आयु बहत्तर वर्ष प्रमाण थी। जब भगवान् महावीर स्वामी मोक्ष गये, तब चतुर्थ काल में तीन वर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन बाकी थे अत: चतुर्थ काल में पचहत्तर वर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहने पर भगवान् महावीर स्वामी गर्भ में आये, यह निश्चित होता है। इसमें से गर्भ से लेकर कुमारकाल के तीस वर्ष और दीक्षाकाल के बारह वर्ष, इस प्रकार ब्यालीस वर्ष कम कर देने पर चतुर्थ काल में तेतीस वर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहने पर भगवान महावीर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ। पर केवलज्ञान प्राप्त होने के अनन्तर ही धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति नहीं हुई, क्योंकि दो माह और छह दिन तक गणधर के नहीं मिलने से भगवान की दिव्यध्वनि नहीं खिरी अत: तेतीस वर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन में से दो माह तथा छह दिन के और भी कम कर देने पर चतुर्थ काल में तेतीस वर्ष, छह माह और नौ दिन बाकी रहने पर धर्मतीर्थ की उत्पत्ति हुई, ऐसा सिद्ध होता है।
शंका-केवलिकाल में से छ्यासठ दिन किसलिए कम किये गये हैं ?
समाधान-भगवान् महावीर को केवलज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर भी छ्यासठ दिन तक धर्मतीर्थ की उत्पत्ति नहीं हुई थी, इसलिए केवलिकाल में से छ्यासठ दिन कम किये गये हैं।
शंका-केवलज्ञान की उत्पत्ति के अनन्तर छ्यासठ दिन तक दिव्यध्वनि की प्रवृत्ति क्यों नहीं हुई ?
समाधान-गणधर न होने से उतने दिन तक दिव्यध्वनि की प्रवृत्ति नहीं हुई।
शंका-सौधर्म इन्द्र ने केवलज्ञान के प्राप्त होने के समय ही गणधरों को क्यों नहीं उपस्थित किया ?
समधान-नहीं, क्योंकि काललब्धि के बिना सौधर्म इन्द्र गणधर को उपस्थित करने में असमर्थ था, उसमें उस समय गणधर को उपस्थित करने की शक्ति नहीं थी।
शंका-जिसने अपने पादमूल में महाव्रत स्वीकार किया है, ऐसे पुरुष को छोड़कर अन्य के निमित्त से दिव्यध्वनि क्यों नहीं खिरती है ?
समाधान-ऐसा ही स्वभाव है और स्वभाव दूसरों के द्वारा प्रश्न करने योग्य नहीं होता है, क्योंकि यदि स्वभाव में ही प्रश्न होने लगे तो कोई व्यवस्था ही न बन सकेगी।
अतएव कुछ कम चौंतीस वर्ष प्रमाण चौथे काल के रहने पर तीर्थ की उत्पत्ति हुई, यह सिद्ध हुआ।
कुछ अन्य आचार्य पाँच दिन और आठ माह कम बहत्तर वर्ष प्र्ामाण अर्थात् ७१ वर्ष ३ माह और पच्चीस दिन वर्द्धमान जिनेन्द्र की आयु थी, ऐसा प्ररूपण करते हैं। उन आचार्यों के अभिप्रायानुसार गर्भस्थकाल, कुमारकाल, छद्मस्थकाल और केवलिकाल का प्ररूपण करते हैं। वह इस प्रकार है-आषाढ़ महीना के शुक्लपक्ष की षष्ठी के दिन कुण्डलपुर (कुण्डलपुर) नगर के स्वामी नाथवंशी सिद्धार्थ नरेन्द्र की त्रिशलादेवी के गर्भ में आकर और वहाँ नौ माह आठ दिन रहकर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के दिन रात्रि में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के रहते हुए भगवान महावीर गर्भ से बाहर आये। यहाँ आषाढ़ शुक्ला षष्ठी से लेकर पूर्णिमा तक दस दिन होते हैं पुन: श्रावण माह से लेकर फाल्गुन माह तक आठ माह गर्भावस्था में व्यतीत करके चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को उत्पन्न हुए, इसलिए चैत्र माह के अट्ठाईस दिन और प्राप्त होते हैं। इन अट्ठाईस दिनों में पहले के दस दिन मिला देने पर आठ दिन अधिक एक माह होता है। इसे पूर्वोक्त आठ महीनों में मिला देने पर नौ माह और आठ दिन प्रमाण वर्द्धमान जिनेन्द्र का गर्भस्थकाल होता है। उसकी संदृष्टि-९ माह ८ दिन है। इस विषय की उपयोगी गाथाएँ यहाँ दी जाती हैंं-
जो देवों के द्वारा पूजा जाता था, जिसने अच्युत कल्प में दिव्य अनुभागशक्ति से युक्त भोगों का अनुभव किया, ऐसे महावीर जिनेन्द्र का जीव, कुछ कम बहत्तर वर्ष की आयु पाकर, पुष्पोत्तर नामक विमान से च्युत होकर, आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन, कुण्डलपुर नगर के स्वामी सिद्धार्थ क्षत्रिय के घर, नाथकुल में, सैकड़ों देवियों से सेवमान त्रिशला देवी के गर्भ में आया और वहाँ नौ माह आठ दिन रहकर चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की रात्रि में उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के रहते हुए भगवान का जन्म हुआ।।२१-२४।।
इस प्रकार गर्भस्थित काल की प्ररूपणा की।
अब कुमारकाल की प्ररूपणा करते हैं, वह इस प्रकार है-
चैत्र माह के दो दिन, वैशाख माह से लेकर अट्ठाईस वर्ष तथा पुन: वैशाख माह से लेकर कार्तिक माह तक सात माह कुमाररूप से व्यतीत करके अनन्तर मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के दिन भगवान महावीर ने जिन दीक्षा ली इसलिए कुमारकाल का प्रमाण सात माह और बारह दिन अधिक अट्ठाईस वर्ष होता है। आगे इस विषय की उपयोगी गाथाएँ दी जाती हैं-
अट्ठाईस वर्ष, सात माह और बारह दिन तक देवों के द्वारा किये गये मनुष्य संबंधी अनुपम सुख का सेवन करके जो आभिनिबोधिक ज्ञान से प्रतिबुद्ध हुए और जिनकी दीक्षासंबंधी पूजा हुई, ऐसे देवपूजित वर्द्धमान जिनेन्द्र ने षष्ठोपवास के साथ मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के दिन जिनदीक्षा ली।।२५-२६।।
इस प्रकार कुमारकाल की प्ररूपणा की।
अब छद्मस्थकाल का कथन करते हैं, वह इस प्रकार है-
मार्गशीर्ष कृष्णा एकादशी से लेकर मार्गशीर्ष पूर्णिमापर्यन्त बीस दिन, पुन: पौष माह से लेकर बारह वर्ष, पुन: उसी पौष माह से लेकर चार माह तथा वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की दशमी तक पच्चीस दिन छद्मस्थ अवस्थारूप से व्यतीत करके वैशाख शुक्ला दशमी के दिन, ऋजुकूला नदी के किनारे, जृंभिक ग्राम के बाहर षष्ठोपवास के साथ शिलापट्ट के ऊपर आतापनयोग से स्थित भगवान महावीर ने अपरान्ह काल में पादप्रमाण छाया के रहने पर केवलज्ञान उत्पन्न किया इसलिए छद्मस्थकाल का प्रमाण पाँच माह, पन्द्रह दिन अधिक बारह वर्ष होता है। अब इस विषय में उपयोगी गाथाएँ दी जाती हैं-
‘‘बारह वर्ष, पाँच माह और पन्द्रह दिन पर्यन्त छद्मस्थ अवस्था को बिताकर रत्नत्रय से शुद्ध और जृंभिक ग्राम के बाहर ऋजुकूला नदी के किनारे शिलापट्ट के ऊपर षष्ठोपवास के साथ आतापनयोग करते हुए महावीर जिनेन्द्र ने अपरान्ह काल में पादप्रमाण छाया के रहते हुए वैशाख शुक्ला दशमी के दिन क्षपक श्रेणी पर आरोहण किया और चार घातिया कर्मों का नाश करके केवलज्ञान प्राप्त किया।।२७-२९।।
इस प्रकार छद्मस्थकाल का प्ररूपण किया।
अब केवलिकाल को कहते हैं। वह इस प्रकार है-वैशाख शुक्लपक्ष की एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक पाँच दिन, पुन: ज्येष्ठ माह से लेकर उनतीस वर्ष पुन: उसी ज्येष्ठ माह से लेकर आसोज तक पाँच माह तथा कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तक चौदह दिन केवलज्ञान के साथ इस आर्यावर्त में व्यतीत करके वर्द्धमान जिन मोक्ष को प्राप्त हुए। अमावस के दिन सकल देव और इन्द्रों ने निर्वाणपूजा की, इसलिए अमावस का दिन भी इसी उपर्युक्त केवलिकाल में मिला देने पर कार्तिक माह के चौदह दिनों के स्थान में पन्द्रह दिन हो जाते हैं इसलिए इस केवलिकाल का प्रमाण उनतीस वर्ष, पाँच माह और बीस दिन होता है। अब इस विषय में उपयोगी गाथाएँ दी जाती हैं-
उनतीस वर्ष, पाँच मास और बीस दिन तक ऋषि, मुनि, यति और अनगार इन चार प्रकार के मुनियों और बारह गणों अर्थात् सभाओं के साथ विहार करके पश्चात् भगवान महावीर ने पावानगर में कार्तिक माह की कृष्णा चतुर्दशी के दिन स्वाति नक्षत्र के रहते हुए रात्रि के समय शेष अघातिकर्मरूप रज को छेदकर निर्वाण को प्राप्त किया।।३०-३१।।
इस प्रकार केवलिकाल का प्ररूपण किया।
महावीर जिनेन्द्र के मोक्ष चले जाने पर चतुर्थकाल में तीन वर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहे थे। जिस दिन महावीर जिन निर्वाण को प्राप्त हुए, उस दिन से कार्तिक माह के पन्द्रह दिन और मार्गशीर्षमाह से लेकर तीन वर्ष आठ माह काल के व्यतीत हो जाने पर श्रावण माह की प्रतिपदा से दु:षमाकाल अवतीर्ण हुआ। इस तीन वर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन प्रमाण काल को वर्धमान जिनेन्द्र की इकहत्तर वर्ष, तीन माह और पच्चीस दिन प्रमाण आयु में मिला देने पर पचहत्तर वर्ष और दस दिन प्रमाणकाल चतुर्थ काल में शेष रहने पर वर्द्धमान जिनेन्द्र स्वर्ग से अवतीर्ण हुए।
शंका-इन दोनों ही उपदेशों में से यहाँ कौन सा उपदेश ठीक है ?
समाधान-एलाचार्य के शिष्य को अर्थात् जयधवलाकार
श्री वीरसेनस्वामी को इस विषय में अपनी जुबान नहीं चलाना चाहिए, क्योंकि इन दोनों में से कौन योग्य है और कौन अयोग्य है ? इस विषय का उपदेश प्राप्त नहीं है तथा दोनों में से किसी एक उपदेश के समीचीन होने में बाधा भी नहीं पाई जाती है किन्तु दोनों में से एक ही होना चाहिए और वह एक उपदेश पाकर ही कहना चाहिए अर्थात् यद्यपि दोनों उपदेशों में से कोई एक उपदेश ही ठीक है यह तभी कहा जा सकता है जब उसके संबंध में कोई उपदेश मिला हो।
विशेषार्थ-आगम में एक उपदेश इस प्रकार पाया जाता है कि चौथे काल में पचहत्तर वर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहने पर भगवान महावीर स्वर्ग से अवतीर्ण हुए और दूसरा उपदेश इस प्रकार पाया जाता है कि चौथे काल में पचहत्तर वर्ष और दस दिन शेष रहने पर भगवान महावीर स्वर्ग से अवतीर्ण हुए। इन दोनों उपदेशों के अनुसार यह तो सुनिश्चित है कि चौथे काल में तीन वर्ष, आठ माह और पन्द्रह दिन शेष रहने पर भगवान महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए। अन्तर केवल उनकी आयु के संबंध में है। पहले उपदेश के अनुसार भगवान महावीर की आयु बहत्तर वर्ष प्रमाण बतलाई गई है और दूसरे उपदेश के अनुसार इकहत्तर वर्ष तीन माह और पच्चीस दिन प्रमाण बतलाई गई है। दूसरे उपदेश के अनुसार वर्ष, माह और दिनों की सूक्ष्मता से गणना करके आयु सुनिश्चित की गई है पर पहले उपदेश में स्थूल मान से आयु कही गई प्रतीत होती है। उपर्युक्त दोनों मान्यताओं के अन्तर का कारण यही है यह सुनिश्चित होते हुए भी वीरसेन स्वामी उक्त दोनों उपदेशों का संकलनमात्र कर रहे हैं, निर्णय कुछ भी नहीं दे रहे हैं। साथ ही यह भी सूचना करते हैं कि एलाचार्य के शिष्य को इन उपदेशों की प्रमाणता और अप्रमाणता के निश्चय करने में अपनी जीभ नहीं चलानी चाहिए। यहाँ मुख्य विवाद का कारण दूसरे उपदेश के अनुसार सुनिश्चित की गई आयु न होकर पहले उपदेश के अनुसार सुनिश्चित की गई आयु है। यह तो निश्चित प्राय है कि जब गर्भ और निर्वाण की तिथि एक नहीं है तो पूरे बहत्तर वर्ष प्रमाण आयु नहीं हो सकती। आयु या तो बहत्तर वर्ष से कम होगी या अधिक। पर पूरे बहत्तर वर्ष प्रमाण आयु के कहने में क्या रहस्य छिपा हुआ है, यह वर्तमान काल में अज्ञात है, उसके जानने का वर्तमान में कोई साधन नहीं है, इसलिए पहले उपदेश को अप्रमाण तो कहा नहीं जा सकता और यही कारण है कि वीरसेन स्वामी ने दोनों उपदेशों का संकलन मात्र कर दिया पर अपना कुछ भी निर्णय नहीं दिया।
यदि कोई ऐसा माने कि जिनेन्द्रदेव के द्वारा उपदिष्ट होने से द्रव्यागम प्रमाण होओ किन्तु वह अप्रमाणीभूत पुरुषपरंपरा से आया हुआ है अर्थात् भगवान के द्वारा उपदिष्ट आगम जिन आचार्यों के द्वारा हम तक लाया गया है वे प्रमाण नहीं थे। अतएव वर्तमानकालीन द्रव्यागम अप्रमाण है, सो उसका ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्यागम राग, द्वेष और भय से रहित आचार्यपरम्परा से आया हुआ है इसलिए उसे अप्रमाण मानने में विरोध आता है। आगे इसी विषय का स्पष्टीकरण करते हैं-
जो आर्य क्षेत्र में उत्पन्न हुए हैं, मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय: इन चार निर्मल ज्ञानों से सम्पन्न हैं, जिन्होंने दीप्त, उग्र और तप्त तप को तपा है, जो अणिमा आदि आठ प्रकार की वैक्रियक लब्धियों से सम्पन्न हैं, जिनका सर्वार्थसिद्धि में निवास करने वाले देवों से अनन्तगुणा बल है, जो एक मुहूर्त में बारह अंगों के अर्थ और द्वादशांगरूप ग्रंथों के स्मरण और पाठ करने में समर्थ हैं, जो अपने पाणिपात्र में दी गई खीर का अमृतरूप से परिवर्तित करने में या उसे अक्षय बनाने में समर्थ हैं, जिन्हें आहार और स्थान के विषय में अक्षीण ऋद्धि प्राप्त है, जिन्होंने सर्वावधिज्ञान से अशेष पुद्गलद्रव्य का साक्षात्कार कर लिया है, तप के बल से जिन्होंने उत्कृष्ट विपुलमति मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न कर लिया है, जो सात प्रकार के भय से रहित हैं, जिन्होंने चार कषायों का क्षय कर दिया है, जिन्होंने पाँच इन्द्रियों को जीत लिया हैं, जिन्होंने मन, वचन और कायरूप तीन दंडों को भग्न कर दिया है, जो छहकायिक जीवों की दया पालने में तत्पर हैं, जिन्होंने कुल मद आदि आठ मदों को नष्ट कर दिया है, जो क्षमादि दस धर्मों में निरन्तर उद्यत हैं, जो आठ प्रवचन मातृकगणों का अर्थात् पाँच समिति और तीन गुप्तियों का परिपालन करते हैं, जिन्होंने क्षुधा आदि बाईस परीषहों के प्रसार को जीत लिया है और जिनका सत्य ही अलंकार है ऐसे आर्य इन्द्रभूति के लिए उन महावीर भट्टारक ने अर्थ का उपदेश दिया। उसके अनन्तर उन गौतम गोत्र में उत्पन्न हुए इन्द्रभूति ने एक अन्तर्मुहूर्त में द्वादशाङ्ग के अर्थ का अवधारण करके उसी समय बारह अंगरूप ग्रंथों की रचना की और गुणों से अपने समान श्री सुधर्माचार्य को उसका व्याख्यान किया। तदनन्तर कुछ काल के पश्चात् इन्द्रभूति भट्टारक केवलज्ञान को उत्पन्न करके और बारह वर्ष तक केवलिविहाररूप से विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए। उसी दिन सुधर्माचार्य, जंबूस्वामी आदि अनेक आचार्यों को द्वादशांग का व्याख्यान करके चार घातिया कर्मों का क्षय करके केवली हुए। तदनन्तर सुधर्म भट्टारक भी बारह वर्ष तक केवलिविहाररूप से विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए। उसी दिन जम्बूस्वामी भट्टारक विष्णु आचार्य आदि अनेक ऋषियों को द्वादशांग का व्याख्यान करके केवली हुए। वे जम्बूस्वामी भी अड़तीस वर्ष तक केवलिविहाररूप से विहार करके मोक्ष को प्राप्त हुए। ये जम्बूस्वामी इस भरतक्षेत्रसंबंधी अवसर्पिणी काल में पुरुषपरम्परा की अपेक्षा अंतिम केवली हुए हैं।
इन जम्बूस्वामी के मोक्ष चले जाने पर सकल सिद्धान्त के ज्ञाता और जिन्होंने चारों कषायों को उपशमित कर दिया था ऐसे विष्णु आचार्य, नन्दिमित्र आचार्य को द्वादशांग समर्पित करके अर्थात् उनके लिए द्वादशांग का व्याख्यान करके देवलोक को प्राप्त हुए। पुन: इसी क्रम से पूर्वोक्त दो और अपराजित, गोवर्द्धन तथा भद्रबाहु इस प्रकार ये पाँच आचार्य पुरुष परम्पराक्रम से सकल सिद्धान्त के ज्ञाता हुए। इन पाँचों श्रुतकेवलियों का काल सौ वर्ष होता है। तदनन्तर भद्रबाहु भगवान के स्वर्ग चले जाने पर सकल श्रुतज्ञान का विच्छेद हो गया।
किन्तु इतना विशेष है कि उसी समय विशाखाचार्य आचार आदि ग्यारह अंगों के और उत्पादपूर्व आदि दशपूर्वों के तथा प्रत्याख्यान, प्राणावाय, क्रियाविशाल और लोकबिन्दुसार इन चार पूर्वों के एकदेश के धारक हुए पुन: अविच्छिन्न संतानरूप से विशाख, प्रोष्ठिल्ल, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह मुनिजन दस पूर्वों के धारी हुए। उनका काल एक सौ तिरासी वर्ष होता है। धर्मसेन भगवान के स्वर्ग चले जाने पर भारतवर्ष में दस पूर्वों का विच्छेद हो गया। इतनी विशेषता है कि नक्षत्राचार्य, जसपाल, पाँडु, ध्रुवसेन, कंसाचार्य ये पाँच मुनिजन ग्यारह अंगों के धारी और चौदह पूर्वों के एकदेश के धारी हुए। इनका काल दो सौ बीस वर्ष होता है पुन: ग्यारह अंगों के धारी कंसाचार्य के स्वर्ग चले जाने पर यहाँ भरतक्षेत्र में कोई भी आचार्य ग्यारह अंगों का धारी नहीं रहा।
इतनी विशेषता है कि उसी काल में पुरुषपरम्पराक्रम से सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चार आचार्य आचारांग के धारी और शेष अंग और पूर्वों के एकदेश के धारी हुए। आचारांग के धारण करने वाले इन आचार्यों का काल एक सौ अठारह वर्ष होता है पुन: लोहाचार्य के स्वर्ग चले जाने पर आचारांग का विच्छेद हो गया। इन समस्त कालों का जोड़ ६२±१००±१८३± २२०±११८·६८३-तेरासी अधिक छह सौ वर्ष होता है।
विशेषार्थ-तीन केवलियों के नामों में से धवला में सुधर्माचार्य के स्थान में लोहार्य नाम आया है। लोहार्य सुधर्माचार्य का ही दूसरा नाम है। जैसा कि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की ‘तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुधम्मणामेण’ इस गाथांश से प्रकट होता है तथा दस पूर्वधारियों के नामों में जयसेन के स्थान में जयाचार्य, नागसेन के स्थान में नागाचार्य और सिद्धार्थ के स्थान में सिद्धार्थदेव नाम धवला में आया है। इन नामों में विशेष अन्तर नहीं है। मालूम होता है कि प्रारंभ के दो नाम जयधवला में पूरे लिखे गये हैं और अंतिम नाम धवला में पूरा लिया गया है तथा ग्यारह अंग के नामधारियों में जसपाल के स्थान में धवला में जयपाल नाम आया है। बहुत संभव है कि लिपि दोष से ऐसा हो गया हो या ये दोनों ही नाम एक आचार्य के रहे हों। इसी प्रकार आचारांगधारी आचार्यों के नामों में जहबाहू के स्थान में धवला में जसबाहू नाम पाया जाता है। इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार में इसी स्थान में जयबाहू यह नाम पाया जाता है इसलिए यह कहना बहुत कठिन है कि ठीक नाम कौन सा है। लिपि दोष से भी इस प्रकार की गड़बड़ी हो जाना बहुत कुछ संभव है। जो भी हो, यहाँ एक ही आचार्य की दोनों कृति होने से पाठभेद का दिखाना मुख्य प्रयोजन है।
वर्द्धमान जिनेन्द्र के निर्वाण चले जाने के पश्चात् इतने अर्थात् ६८३ वर्षों के व्यतीत हो जाने पर इस भरतक्षेत्र में सब आचार्य सभी अंगों और पूर्वों के एकदेश के धारी हुए।