-अनुष्टुप् छंद-
पुरुदेव! नमस्तुभ्यं, युगादिपुरुषाय ते।
इक्ष्वाकुवंशसूर्याय, वृषभाय नमो नम:।।१।।
नमस्तेऽजितनाथाय, कर्मशत्रुजयाय ते।
अजयेशक्ति-लाभार्थ-मजिताय नमो नम:।।२।।
भवसंभवदु:खार्त्ति-नाशिने परमेष्ठिने।
नमो संभवनाथाया-नंत विभवलब्धये।।३।।
गुणसमृद्धियुक्ताय, जिनचंद्राय ते नम:।
अभिनंदनदेवाय, नम: स्वगुणवृद्धये।।४।।
ध्वस्तकुमतिदेवाय, जन्ममृत्युप्रमाथिने।
नमो सुमतिनाथाय, सुष्ठुमतिप्रदायिने।।५।।
मुक्तिपद्मासुकांताय, पद्मवर्ण! नमोस्तु ते।
पद्मप्रभजिनेशाय, निजलक्ष्म्यै नमो नम:।।६।।
भवपाशच्छिदे तुभ्यं, श्रीसुपार्श्व! नमो नम:।
संसृतिपार्श्वदूराय, मुक्तिपार्श्वविधायिने।।७।।
वागमृतकरैर्भव्य-पोषिणे जिनचंद्र! ते।
नमो नमोऽस्तु चन्द्राय, सर्वसंतापहानये।।८।।
पुष्पदंतजिनेन्द्राय, पुष्पवाणच्छिदे नम:।
तुष्टिपुष्टिप्रदातस्ते, स्वात्मपुष्ट्यै नमो नम:।।९।।
शीतलेश! नमस्तुभ्यं, वचस्ते सर्वतापहृत्।
श्रीमत्शीतलनाथाय, शीतीभूताय देहिनाम्।।१०।।
श्रेयस्करो जगत्यस्मिन्, श्री श्रेयन्! ते नमो नम:।
अन्वर्थनामधृत् देव! श्रेयो मे कुरुतात् सदा।।११।।
वासुपूज्यो जगत्पूज्य:, पूज्यपूजातिदूरग:।
पूज्यो जन: प्रसादात्ते, भवेत्तुभ्यं नमो नम:।।१२।।
कर्ममलविनिर्मुक्तो, विमलाय नमो नम:।
तव नामस्मृतिर्लोकं, नैर्मल्यं कुरुते क्षणात्।।१३।।
अनंतनाथ! दृग्ज्ञान-वीर्यसौख्यैरनन्तग:।
अनंतसौख्यलाभाय, भक्त्या तुभ्यं नमो नम:।।१४।।
नमोऽस्तु धर्मनाथाय, धर्मतीर्थंकराय ते।
धर्मचक्रेश! मे नित्यं, धर्म्यध्यानं विधीयताम्।।१५।।
स्वकर्मक्षयत: शांतिं, लब्ध्वा शांतिकरोऽभवत्।
शांतिनाथ! नमस्तुभ्यं, मन:क्लेशप्रशांतये।।१६।।
अहिंसां कुंथुजीवेषु, कृत्वा कुंथुजिनोऽभवत्।
रक्षां विधेहि मे नित्यं, कुंथुनाथ! नमोऽस्तु ते।।१७।।
जगत्त्रयविभुर्सूर्यो, मोहान्धकारहृज्जिन:।
हंताप्यरेर्नमस्तुभ्य-मरनाथ! नमो नम:।।१८।।
कर्ममल्लभिदे तुभ्यं, मल्लिनाथ! नमो नम:।
स्वमोहमल्लनाशाय, भववल्लिभिदे नम:।।१९।।
महाव्रतधरो धीर:, सुव्रतो मुनिसुव्रत:।
नमस्तुभ्यं तनुतान्मे, रत्नत्रयस्य पूर्णताम्।।२०।।
सर्वसंगविरक्त: सन्, मुक्तिश्रीरक्तमानस:।
नमिनाथ! नमस्तुभ्यं, मह्यं मुक्तिश्रियं दिश।।२१।।
राजीमतीं परित्यज्य, महादयार्द्रमानस:।
लेभे सिद्धिवधूं सिद्ध्यै, नेमिनाथ! नमोऽस्तु ते।।२२।।
सर्वंसहो जिन: पार्श्वो, दैत्यारिमदमर्दक:।
सहिष्णुतां प्रपुष्यान्मे, नित्यं तुभ्यं नमो नम:।।२३।।
वर्धमानो महावीरो-ऽतिवीरो सन्मतिर्जिन:।
वीरनाथो नमस्तुभ्यं, सन्मतिं वितनोतु मे।।२४।।
चतुर्विंशतितीर्थेशान्, त्रिसंध्यं स्तौति यो नर:।
प्राप्नोति स त्वरं लक्ष्मीं, ज्ञानमत्या समन्विताम्।।२५।।